इन दिनों पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मशती वर्ष पर प्रकाशित उनकी ग्रंथावली और उनके विचारों की खूब चर्चा है. कई राज्यों में भाजपा सरकारें भारतीय जनसंघ के इस संस्थापक के विचार और दर्शन के ग्रंथों को स्कूलों के पुस्तकालयों में रखवाना चाहती है.
लेकिन अगर पंडित दीनदयाल उपाध्याय आज अगर जिंदा होते तो पार्टी से निकाल दिए गए होते या मार्गदर्शक मंडल में डाल दिए गए होते.
अभी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में चुनाव चल रहे हैं और इन चुनावों में भाजपा जिस तरह चुनाव लड़ रही है, उसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देख लिया होता तो वे आज जरूर अपने उत्तराधिकारियों को उसी जु़बान और अंदाज में धिक्कार रहे होते, जिसमें वे कभी कांग्रेस पर बरसा करते थे.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक पॉलिटिकल डायरी भी लिखी थी. इसमें उन्होंने उस समय की राजनीति के पतन को लेकर बहुत बातें लिखी थीं.
भाजपा के नेता इन्हें पढ़ लेंगे तो उन्हें एहसास होगा कि वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचारधारा को कैसे-कैसे सैद्धांतिक शीर्षासन करवा रहे हैं.
जाति आधार पर प्रत्याशियों का चयन गलत
पंडित दीनदयाल उपाध्याय चुनावों में जातिगत आधार पर वोट देने के बेहद खिलाफ थे. वे जाति और जातीयता की भावना फैलाने के कट्टर विरोधी थे.
उपाध्याय साफ कहते थे कि, चुनाव में जातिवादी और सांप्रदायिक नजरिया बहुत घृणित है. इसके लिए उन्होंने लिखा, 'इस दिशा में कांग्रेस सबसे बड़ा अपराधी दल है, परंतु अन्य दल भी इस लांछन से बच नहीं सकते हैं.'
पंडित जी ने माना था कि चुनावों में जाति के आधार पर टिकट देना और जाति के आधार पर मतदान करना और करवाना एक गंभीर रोग बन चुका है.
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वे लिखते हैं, 'स्थिति इस सीमा तक पहुंच जाती है कि डॉ. राममनोहर लोहिया तक को केवल इसलिए प्रत्याशी बनने से वंचित रह जाना पड़ा, क्योंकि वे उस जाति के नहीं थे जिसके सदस्यों की उस निर्वाचन क्षेत्र में बहुत अधिक संख्या थी. यह घटना कुछ समय पहले उत्तरप्रदेश के एक उपचुनाव में घटित हुई जो एक एक गंभीर रोग की सूचक है.'
धनबल के आधार पर टिकट गलत
अपनी पॉलिटिकल डायरी में पंडित जी लिखते हैं, 'अनेकानेक लोगों को किसी अन्य योग्यता पर नहीं, बल्कि धन खर्च करने की क्षमता के कारण ही टिकट दे दिए जाते हैं. ये लोग चुनाव के अवसर पर मैदान में आते हैं और उसके बाद पांच साल तक कलकत्ता और बंबई के घनी बस्तियों में आराम करते हैं.'
वे आगे कहते हैं, 'ये लोग जनता के पास उनके मत की याचना करने नहीं आते, बल्कि उन्हें खरीदने आते हैं. ये लोग दल के टिकट के लिए न याचना करते हैं और न उसके लिए आवश्यक योग्यता ही रखते हैं बल्कि वे टिकट की खरीद करते हैं.'
नेताओं ने राजनीति को रेसकोर्स रोड बनाया
जनता का मत: उपयुक्त प्रत्याशी कौन? शीर्षक से लिखे एक लेख में पेज 146 पर उन्होंने लिखा है: 'भारतवर्ष में शायद ही कोई राजनीतिक दल इन सिद्धांतों की चिंता करता है. वह केवल एक ही दृष्टि से विचार करते हैं और वह यह कि उनका प्रत्याशी ऐसा हो जो चुनाव में विजय प्राप्त कर सके.'
उन्होंने आगे लिखा, 'ये लोग भूल जाते हैं कि राजनीति में विजेता के प्रति उनका साथ घुड़दौड़ के बाद समाप्त नहीं हो जाता. उन्हें सतत बोझ ढोना है और उसके माध्यम से ही दल को विधानमंडलों और निर्वाचन क्षेत्रों में कार्य करना होगा.'
राजपरिवारों को टिकट के खिलाफ
पंडित दीनदयाल उपाध्याय भूतपूर्व राजपरिवारों के सदस्यों को भी टिकट देने के बिलकुल खिलाफ थे.
वे अपनी पॉलिटिकल डायरी में लिखते हैं: 'यह मानते हुए भी करते हुए भी कि भूतपूर्व राजाओं को भी चुनावों में भाग लेने का नागरिक अधिकार है, यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वर्तमान स्थिति सुखकर नहीं है. आज की स्थिति को भूतपूर्व राजाओं द्वारा नहीं, बल्कि जनता और विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथों ही सुधारा जा सकता है.'
चार राज्यों में चुनाव के दौरान भाजपा के नेता अपने कामकाज के आधार पर वोट मांग रहे हैं, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय ने कुछ और लिखा है.
अपनी पॉलिटिकल डायरी के पेज 147 पर वे कहते हैं, 'जनता को यह समझना चाहिए कि वोट आभार जताने का माध्यम नहीं है, वह जनता की इच्छाओं काे लागू करने का आदेश है.'
जनता कर सकती है नेताओं को ठीक
दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि सत्ता के लालच में विकृत सोच वाले लोग भी विभिन्न दलों में किसी तरह प्रवेश पाकर सत्ता पर काबिज हो जाते हैं. ऐसे लोगों को मतदाता ही सबक सिखा सकता है.
पंडित जी ने अपनी डायरी में लिखा है: मतदाताओं को कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए, उन्हें तो अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए. उन्हें गिड़गड़ाना नहीं चाहिए, उन्हें तो अादेश देना चाहिए. उन्हें नेताओं की चालों में नहीं आना चाहिए, असंतोष न करें और धैर्य से काम लें और ऐसे नेताओं के खिलाफ दृढ़ता से पेश आएं.
पंडित जी लिखते हैं: मतदाता को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह किसी सिद्धांत के लिए मतदान करता है, न कि किसी दल के लिए.
काबिल का साथ दें
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि राजनीतिक दल विभिन्न दबावों में गलत लोगों को उम्मीदवार बना देते हैं, लेकिन मतदाताओं को किसी की चाल में नहीं आना चाहिए, उन्हें उद्देश्य पर विचार करना चाहिए, जाति पर नहीं.
पंडित जी ने चेताया था कि अगर आप किसी भ्रम में जीतने की सबसे अधिक संभावना वाले उम्मीदवार को ही वोट देते हैं तो चुनाव परिणाम चाहे जो हो, लेकिन एक मतदाता के रूप में आपकी हार तय है. प्रत्याशी अगर बुरा है तो वह किसी दल से हो, उसे हरा देना मतदाता का कर्तव्य है.
पंडित जी ने प्रत्याशी, दल और सिद्धांत नामक एक लेख में कहा कि प्रत्याशी चाहे किसी भी दल से खड़ा हो लेकिन अगर वह बुरा है तो उसे हरा देना मतदाता का पहली जिम्मेदारी है.
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वे लिखते हैं: कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल की ओर से खड़ा है. बुरा-बुरा ही है और दुष्ट वायु की कहावत की भांति वह कहीं भी, किसी और का भी अहित कर सकता है.
हो सकता है कि दल के हाईकमान ने ऐसे व्यक्तियों को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा, या नेकनीयती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा उसके इस भूल को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी मतदाता की ही होती है.
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