एक समय था जब भारत में चुनाव लगभग इकलौते धावक की दौड़ होते थे. आमतौर पर चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी. चुनाव की भविष्यवाणी करना ऐसा ही था मानो यह बताना कि सूरज पूरब में उगता है.
यह वह दौर था जब नेहरू-गांधी खानदान की मतदाताओं पर चिमटे जैसी पकड़ थी. और फिर 1980 का दशक आया- और वो हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था. कांग्रेस ने पाया कि अलग-अलग राज्यों में अलग पार्टियां उसके पांव के नीचे से कालीन खींच रही हैं. प्रतिद्वंद्विता की राजनीति उस मुकाम पर पहुंच गई जिसे वास्तव में लोकतंत्र कहा जा सकता था और चुनाव नतीजे की भविष्यवाणी कर पाना मुश्किल से मुश्किल होता चला गया. लेकिन कुछ पके बालों वाले राजनीतिक संवाददाता, जिनकी इकलौती विशेषता चुनावों को डिकोड करना है, कामचलाऊ ही सही, वो अब चुनावी भविष्यवाणी करने लगे हैं.
यह स्थिति 1980 के दशक में बदल गई और 1990 के शुरू तक, जब अखबारों में विस्तार का दौर शुरू हो चुका था और बदलावों ने उन्हें झटके देना शुरू कर दिया था, मैगजीन के शुरुआती उफान से मुकाबला करने के लिए वो कंटेंट सुधारने के साथ ही खोजी स्टोरी और 'फीचर' पर ध्यान देने लगे थे. इसके बाद वह दौर आने में ज्यादा समय नहीं लगा जब चुनाव आते ही मीडिया दफ्तरों में पागलपन फैल जाता. अखबार चुनावी कवरेज को ज्यादा जगह देने लगे और पूरा एक पेज चुनाव को देने लगे. चुनावों के दौरान अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ जाता-और भी बढ़ जाता है- लेकिन प्रबंधन जानता था कि कहां रुकना है.
1990 के मध्य में मैंने अपने अखबार को जिसमें मैं काम करता था- चुनाव नतीजे आने तक रोजाना एक सप्लीमेंट देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया. मुझे कहा गया कि खेल पेज की तरह ही राजनीति भी पाठकों का तो ध्यान खींचती है, लेकिन इसके लिए विज्ञापन नहीं मिलते और यह सप्लीमेंट महंगा पड़ता है.
चुनावी कवरेज को बढ़ाने का मतलब स्पेशल पेज को सभी तरह की स्टोरी से भरना था, जिसमें चतुराई से लिखी चुनावी नतीजे की भविष्यवाणी करने वाली स्टोरी भी हो. यही चीज अब भी जारी है, फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जिसकी इजाजत सिर्फ तपे हुए रिपोर्टरों को थी, अब रंगरूट भी करने लगे हैं, जिनमें से कुछ तो सीधे कॉलेज से आए होते हैं.
पुराने समय से एक बात और अलग है. उस समय रिपोर्टर को फील्ड से अपने दफ्तर को स्टोरी भेजने में भारी मुसीबत उठानी पड़ती थी. हम टाइपराइटर से टाइप किए पन्ने टेलीग्राफ दफ्तर को सौंप देते और उनके दफ्तर पहुंच जाने का बेचैनी से इंतजार करते. टेलेक्स और फैक्स लाइनें हमेशा काम नहीं करती थीं. कई बार वाक्य या कभी-कभी पूरा पैरा ही ट्रांसमिशन में गायब हो जाता था.
तेज कवरेज = तेज गलतियां
आंकड़ों पर आधारित स्टोरी लिखना हमेशा आसान नहीं था. आंकड़े हासिल करने का मतलब था चुनाव आयोग द्वारा बेचे जाने वाले मोटे ग्रंथों का अध्ययन करना होता था. हालांकि यह काम डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणय रॉय द्वारा 1991 में लिखित इंडिया डिसाइड्सः इलेक्शंस 1952-1991 ने यह काम आसान कर दिया.
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चुनाव के दिन आमतौर पर देर शाम तक या अगले दिन तक मतदान का विवरण नहीं मिल पाता था. और मुझे याद है कि राजनीतिक पार्टियों का वोट प्रतिशत जोड़ने-घटाने में मुझे घंटों लग जाते थे और फिर जब एक हफ्ते या उससे भी ज्यादा समय के बाद आधिकारिक आंकड़े कुछ चुनाव क्षेत्रों के विवरण संशोधित कर दिए जाने के कारण दशमलव के एक या दो प्वाइंट से अलग आते, तो मैं निराशा में सिर धुन रहा होता था.
बाद में मोबाइल फोन और इंटरनेट ने संचार और सूचना तक पहुंच को आसान बना दिया. लेकिन चुनाव कवरेज की रफ्तार में तेजी के साथ ही गलतियां भी तेज हो गई हैं. 1990 के दशक के अंत में और 2000 की शुरुआत में निजी टीवी चैनल आ जाने के बाद उथल-पुथल और बढ़ गई. ओपिनियन पोल्स, जो पहले सिर्फ कुछ पत्रिकाएं ही छापने का साहस करती थीं, सभी मीडिया घरानों में आम हो चुका था.
ज्यों-ज्यों मीडिया बड़ा होता गया और ज्यादा लोग इसमें आ गए. क्रांति लाने के लिए भ्रमित और वामपंथी-झुकाव व लेनिन जैसी दाढ़ी वाले बुद्धिजीवी- जो कि अब भी हैं- पत्रकारिता में चारों तरफ भर गए. अगर कोई ग्रेजुएट है और अपने नाम के हिज्जे भी सिर्फ एक गलती के साथ लिख ले, तो उसे अच्छी कंपनी में काम मिल जाता था. ऐसे ही कोई अगर बिना सांस लिए दस सेकेंड में दस विशेषणों के साथ दस वाक्य बोल सकता था, तो वह टीवी रिपोर्टर बन सकता था.
तथ्य? आप मजाक तो नहीं कर रहे?
अगर एक चीज जो वक्त के साथ नहीं बदली तो वह है प्रमुख चुनाव क्षेत्रों के आकलन करने और कौन सी पार्टी सरकार बनाने वाली है, यह जानने का संदिग्ध तरीका. इसमें कोई बदलाव आया है तो सिर्फ इतना कि यह और संदिग्ध हो गया है. सटीक तथ्यों के साथ आकलन की जगह प्रतिद्वंद्वी पर बढ़ाने के लिए लालच ने जगह बना ली है.
यह इस तरह से हो रहा है:
एक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लिए मिलने वाले एक या दो दिन के समय में आलसी रिपोर्टर थोड़े से लोगों से मिल लेते हैं और अपनी स्टोरी लिख मारते हैं. भारत में क्रिकेट और राजनीति के विशेषज्ञों की कमी नहीं है, और एक रिपोर्टर को सिर्फ अपनी कलम का इशारा भर करने की देरी है, विशेषज्ञ अचानक प्रेत की तरह प्रकट हो जाते हैं.
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मेहनती रिपोर्टर इससे कुछ ज्यादा करते हैं. मिले हुए सीमित समय में वह प्रमुख प्रत्याशियों के कैंप ऑफिस जाते हैं और गांवों में बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर अखबार पढ़ रहे लोगों के दिमाग को पढ़ने की कोशिश करते हैं कि वो अखबारों में छपने वाली खबरों की किस तरह व्याख्या कर रहे हैं. वो सभी प्रमुख उम्मीदवारों की कुछ सभाओं में भी जाते हैं. इस सबके बीच किसी जाने-माने भरोसेमंद शख्स का पक्षपातहीन आकलन भी मिल जाना एक अनमोल उपहार है.
सार्वजनिक सभाओं से मूड को समझ पाना पेचीदा होता है. कुछ रिपोर्टर भीड़ का आकार आंक सकते हैं, एक ऐसी ट्रिक जो अच्छे पुलिस अधिकारी से सीखी जा सकती है. जहां एक रिपोर्टर 5,000 की भीड़ बताता है दूसरा 20,000 बता सकता है. भीड़ का आकार जो भी हो, मैंने भोले-भाले, अनुभवहीन और पक्षपाती रिपोर्टरों को बड़ी भीड़ से प्रभावित होते देखा है. मुझे कुछ चुनावों के बाद समझ में आया कि कई गांवों और छोटे कस्बों में चुनावी रैली मुफ्त के मनोरंजन के तौर पर देखी जाती है, और कुछ लोग सिर्फ मजा लेने के लिए पान चबाते या मूंगफली खाते हुए सभी पार्टियों के शो देखते हैं.
भीड़ के आकार से ज्यादा नेता के भाषण पर लोगों का मूड और उनकी प्रतिक्रिया ज्यादा अच्छा संकेतक हो सकती है.
सोनिया-सुषमा की लड़ाई में मैं गच्चा खा गया
हालांकि सिर्फ भीड़ का जोश, पूरी कहानी नहीं बताता. सितंबर 1999 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक के बेल्लारी में सोनिया गांधी और सुषमा स्वराज उम्मीदवार थीं, मुझे जिंदगी का यादगार सबक मिला.
दिल्ली से हवाई दौरे पर आए वंशवादी वरिष्ठ पत्रकारों ने सोनिया गांधी की बड़ी जीत की भविष्यवाणी की. मैं वहां करीब एक महीने रहा और लोकसभा क्षेत्र का हर कोना देखा और रिपोर्टों की श्रृंखला लिखी.
हालांकि मुझे पता था कि संघ परिवार के कार्यकर्ता बेल्लारी में भरे हुए हैं और सही-गलत तरीकों से लोगों को सुषमा की सभाओं में जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, मैंने पाया कि उनका भाषण उनके बड़ी संख्या में समर्थकों को जोश से भर दे रहे हैं. जो लोग सोनिया गांधी की रैली में जाते हैं, ऊबे से लगते हैं, जैसा कि वो कर देती हैं: वह इतनी बनावटी लगतीं मानो कोई घरेलू महिला अनमने तरीके से सब्जियों की लिस्ट पढ़ रही हो. इस बात और अन्य कई तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मैंने सुषमा स्वराज के जीत जाने की 'संभावना' जताई थी. लेकिन वो नहीं जीतीं.
मैंने इन तथ्यों से खुद को सांत्वना दीः सोनिया ने 56,100 वोट से बेल्लारी जीता (अमेठी में वह 3,00,012 वोटों के अंतर से जीती थीं, जहां से वह बेल्लारी के साथ ही चुनाव लड़ी थीं). यहां 44,628 अवैध वोटर थे. बेल्लारी में तीसरे स्थान पर रहे जनता दल (सेकुलर) के उम्मीदवार को 28,855 वोट मिले थे. लेकिन भूल तो बस भूल होती है.
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रिपोर्टर चुनाव-विश्लेषक नहीं हैं…
अच्छी चुनावी कवरेज की राह गड्ढों से भरी है. जाति इन्हीं में से एक है. यह मान लेना कि एक पूरी जाति (अथवा ओबीसी या एससी या एसटी ग्रुप) का मतदाता एकाकार होकर किसी पार्टी के पक्ष में वोट डालेगा, पत्रकारीय खुदकशी करने जैसा होगा. भारत के तमाम बकवास और जटिलताओं से भरे इस सिस्टम में कि जो सबसे ज्यादा वोट पाएगा उसे विजेता घोषित कर दिया जाएगा, कुछ कारक जो चुनावी भविष्यवाणी को असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल जरूर बनाते हैं. इनमें से कुछ इस प्रकार हैंः
- अंतर-जातीय और जातियों के भीतर मतदान के रुझान में अंतर
- पार्टियों और व्यक्तित्वों के प्रति निष्ठा में बदलाव
- खामोश मतदाता
- अंतिम समय का बदलाव
- चुनावी उपहारों का बंटवारा
- मतदान के दिन मतदाताओं का बूथ तक वोट देने जाना
- चुनावी धांधली
- छोटी पार्टियों और निर्दलीयों द्वारा वोट का बंटवारा
- सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा की गई चुनावी तिकड़म
- सत्ताविरोधी फैक्टर
- मतदाताओं का वोट देने के लिए निकलना
- विकास के मुद्दे
- करीबी बढ़त
गठबंधन के साझीदार द्वारा किसी प्रत्याशी को मतों का हस्तांतरण इन सबमें सबसे बुरा है किसी पार्टी को हासिल वोट और सीटों में अंतर, जिसे जाने-माने चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने एक बार 'ब्लैक बॉक्स' कहा था. रिपोर्टर अपने बारे में कभी सुनना पसंद नहीं करते कि चुनावी रुझान बताने के लिए वो ना तो शिक्षित हैं ना ही प्रशिक्षित हैं और यह चुनावी विश्लेषकों या अनुभवी चुनाव-लेखकों का काम है जिसके कान जनता की सुनते हैं ना कि टीवी की. ज्यादा से ज्यादा ये हो सकता है कि रिपोर्टर मतदाता के सामने चुनाव की झलकियां पेश कर सकते हैं और संभावित रुझान का संकेत दे सकते हैं.
चुनावी विश्लेषक भी गलतियों से मुक्त नहीं हैं
वर्ष 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में ओपिनियन पोल कमोबेश सही साबित हुए, लेकिन 2004 और 2009 में नाकाम साबित हुए और 2014 में तो निशाने से कोसों दूर थे. पूर्व में राज्यों के विधानसभा चुनाव में कई मतदान-पूर्व सर्वे और एक्जिट पोल बुरी तरह गलत साबित हो चुके हैं. चुनावी विश्लेषकों का गलत साबित होना उनके तरीकों के गैर-व्यावसायिक होने और भारतीय राजनीति की जटिलताओं को सामने लाता है.
चुनावी नतीजे बताने में संशोधित पद्धतियों के साथ एक चुनावी विश्लेषक अब भी एक पत्रकार से बेहतर है, हालांकि कुछ चुनावी पंडित यही तर्क देंगे कि उनका काम सिर्फ गुणदोष के आधार पर रुझान बताना है. लेकिन रिपोर्टर खुद को राजनीतिक नास्त्रेदमस की भूमिका में रखने के लालच से बमुश्किल ही रोक पाते हैं. अब जबकि टेक्नोलॉली की मदद से भविष्यवाणी करना बहुत आसान हो गया है, इस लालच पर काबू पाना बहुत कठिन है. और ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) की बदौलत मतदान-बाद के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करना फटाफट नूडल्स तैयार करने से भी ज्यादा आसान हो गया है. कम से कम कुछ मामलों में तो चुनावी भविष्यवाणी में खुद की ख्वाहिश ही प्रदर्शित होती है.
इसके लिए एक नाम दिया गया हैः इसे पक्षपात कहते हैं.
और वामपंथी झुकाव वालों की काट के लिए मीडिया में दक्षिणपंथी भी भरपूर संख्या में आ गए हैं. एक दूसरे पर अखबारी कागज, वायु तरंगों और इंटरनेट को प्रदूषित कर देने का आरोप लगाते हुए इन सभी का एक ही डिसक्लेमर होता है- चित आया तो मैं जीता, पट आया तो तुम हारे. इस सब के बीच कोई चीज कहीं नेपथ्य में छूट जाती है.
इसके लिए एक नाम दिया गया हैः इसे सच कहते हैं.
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