2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान ‘पांच साल केजरीवाल’ का नारा पूरे प्रदेश पर छा गया था. विशाल डडलानी के तैयार किए गए एक चुनावी गाने में पांच साल केजरीवाल के नारे का इस्तेमाल हुआ था. कहा जाता है चुनाव जीतने के लिए बढ़िया चुनाव प्रचार भी एक माध्यम होता है. इस गाने ने भी अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली के दिल में खूब जगह बनाई थी. लोगों ने आम आदमी पार्टी को जमकर वोट दिए. सालों से दिल्ली की द्विपक्षीय राजनीति ने एक तीसरा मोड़ ले लिया था और तीसरे मोड़ ने पहले के दोनों रास्ते बंद कर दिए थे. स्थिति ये थी कि 1998 से 2013 तक दिल्ली पर हुकूमत करने वाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था. एक विधायक सदन में नहीं था और बीजेपी 31 से घटकर 3 पर आ गई थी.
पांच साल केजरीवाल नारे के पीछे सांकेतिक वजहें भी थी. ये नारा यूं ही नहीं तैयार किया गया था. दरअसल 2013 के आखिरी में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को अपने चुनावी पदार्पण में ही 28 सीटें मिल गई थीं लेकिन ये आंकड़ा बहुमत से दूर था. केजरीवाल को कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनानी पड़ी. अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा देते हुए अपनी गठबंधन की मजबूरी भी जनता के सामने रखी थी. जब वो दोबारा जनता के बीच पहुंच तो ये भी एक वादा किया वो पांच साल दिल्ली में ही रहेंगे. और दूसरी एक स्पष्ट बात यह भी थी कि लोग अगर उन्हें पूरे बहुमत से जिताएंगे तो पांच साल शासन भी कर पाएंगे. अन्यथा कमजोर सरकार आगे भी कमजोर स्थिति में रहेगी. केजरीवाल जनता से तसव्वुर से ज्यादा दिया.
पंजाब से शुरू हुआ विवाद
लेकिन पांच साल के नारे में पहली दरार उस समय आई जब पंजाब चुनाव होने वाले थे. राजनीतिक हल्कों में यह बात मुंहा-मुंही चली कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली के सीएम का पद छोड़कर पंजाब भी जा सकते हैं. हालांकि पार्टी की तरफ से कभी ऐसी कोई आधिकारिक बात सामने नहीं आई. इस बात की टेस्टिंग भी इस वजह से नहीं हो पाई क्योंकि आप पंजाब में सरकार नहीं बना सकी. वहां अमरिंदर सिंह सीएम बन गए. अन्यथा अगर आप चुनाव जीत जाती तो अरविंद केजरीवाल क्या करते इसका सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है.
रही बात दिल्ली की तो राज्य का सीएम बनने के बाद से ही ऐसा लगता है कि अरविंद केजरीवाल एक मजबूत कुर्सी पर तो हैं लेकिन उस कुर्सी के नीचे की जमीन में भूकंप हर कुछ दिनों बाद आ ही जाता है. कभी नजीब जंब तो कभी अनिल बैजल तो फिर कुमार विश्वास, संदीप कुमार, कपिल मिश्रा जैसे न जाने कितनी ही ऐसी बातें हैं जो उनकी कुर्सी को हिलाकर रखती हैं. पिछले करीब तीन सालों के शासन के दौरान आप सरकार शांतिपूर्ण ढंग से चलती हुई नहीं दिखाई देती है.
बिछड़े सभी बारी-बारी
इसके पीछे कई लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि अरविंद की कुर्सी की डगमगाहट के पीछे उनके व्यवहार का बदलाव भी है. उनके सारे पुराने साथी एक-एक कर पीछे छूटते जा रहे हैं. हर दो महीने बाद कोई घटना घटती है और अरविंद का सालों पुराना कोई साथी उन पर बेहद ओछे आरोप लगाता हुआ पार्टी से बाहर निकल जाता है.
अब चूंकि निर्विवाद रूप से अरविंद केजरीवाल इस समय दिल्ली के सबसे लोकप्रिय नेता हैं इस वजह से उनके खिलाफ उठने वाली हर आवाज खामोश होकर ही रह जाती है. इतनी मजबूत स्थिति में कोई अपनी मनमर्जी चलाए तो कोई कर भी क्या सकता है. अब केजरीवाल के इंडिया अगेस्ट करप्शन वाले दिन भी नहीं रहे कि उनके साथी सोचें की उनकी भी कोई वकत है. अब अरविंद मतलब आम आदमी पार्टी है. अब उन्हें रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए किसी कुमार विश्वास या योगेंद्र यादव या अन्ना हजारे की जरूरत नहीं है. वो जानते हैं कि 67 सीटें दिल्ली की जनता ने उनके नाम पर दिए हैं सो वो क्यों किसी से डरने लगे?
लेकिन इन सब स्थितियों की वास्तविक स्थिति से शायद अरविंद केजरीवाल वाकिफ नहीं हैं. दरअसल इस पूरे विवादों के बीच वो कमजोर होते जा रहे हैं. उनके साथ नए लोग भले ही जुड़ रहे हों लेकिन ऐसा नहीं है कि पुराने लोगों के छोड़ने की वजह से उनकी छवि बिल्कुल बेदाग बनी हुई है.
67 का आंकड़ा 46 पर पहुंच चुका है. वहीं कपिल मिश्रा और कुमार विश्वास की नाराजगी पार्टी के दूसरे विधायकों में भी है. ऐसा नहीं है कि पार्टी में कुमार विश्वास पर विश्वास जताने वाला कोई नहीं है. संभव है पार्टी के नेता किसी मौके का इंतजार कर रहे हों और सही मौका मिलते ही अपना वास्तविक रंग दिखाएं जो अरविंद केजरीवाल का रंग फीका कर दे. तो उस समय दिल्ली की जनता को किया वो वादा अधूरा ही रह जाएगा.
इसलिए जरूरत है कि अरविंद अपने पुराने साथियों को साधे. बजाए कि हर किसी महत्वपूर्ण बात पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाकर औकात दिखाने के. ऐसा करना सिर्फ उनके लिए ही खतरनाक नहीं होगा बल्कि दिल्ली की उस जनता के साथ भी नाइंसाफी होगी जिसने उन्हें पूर्ण नहीं संपूर्ण बहुमत से राज्य की सत्ता सौंपी थी
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