नरेंद्र मोदी के आलोचक बस घात लगाए बैठे थे और जैसे ही साल 2017-18 की पहली तिमाही के आंकड़ों का ऐलान हुआ, साझे स्वर में एक शोर उठा कि देखो! मैंने कहा था ना कि यही होगा! इस शोर में अपनी भड़ास निकालने के लिए दो चुके हुए तोप और आ जमे— एक तो यशवंत सिन्हा और दूसरे अरुण शौरी. शायद सियासी अकेलेपन के कबाड़खाने से निकलकर वे यह जांचना चाहते थे कि उनकी आवाज में वही गरजदार गूंज बाकी है या नहीं.
दिल्ली में मीडिया का माहौल बड़ा संक्रामक है, एक की नाक में खुजली होती है तो पूरी की पूरी जमात ही छींकने लगती है. जाड़ा तो अभी कुछ दूर है लेकिन जब से एक वरिष्ठ पत्रकार ने सूंघा है कि ‘हो ना हो हवा में कुछ ना कुछ तो जरूर है’- राजधानी के गणमान्य पत्रकार बिरादरी के सदस्य ‘हवा-बदल’ की बाते करने लगे हैं.
जाहिर है, अखबारों में संपादकीय पन्ने पर धड़ाधड़ लेख छप रहे हैं और सोशल मीडिया पर खूब तेज चटर-पटर हो रही है कि कांग्रेस ने अंगड़ाई ली है और राहुल गांधी ने अपने नए अवतार में प्रधानमंत्री और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया है. सरकार के वे आलोचक जिन्होंने 2019 में विपक्ष के जाग उठने की सारी उम्मीद छोड़ दी थीं अब क्षितिज पर नए सवेरे की लाली देखकर जैसे एकबारगी चहक उठे हैं.
आम सहमति है कि सरकार चार मोर्चे पर फिसड्डी साबित हुई है. आरोप लगाया जा रहा है कि नोटबंदी से पैदा असर से निपटने में सरकार नाकाम रही, जीएसटी का अमल लचर रहा, कीमतों के बढ़ने पर लगाम ना लगा और रोजगार के नए अवसर सरकार ना जुटा सकी. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), वर्ल्ड बैंक, इन्वेस्टमेंट बैंकर्स और आलोचकों की राय से इत्तेफाक ना रखने वाले अर्थशास्त्रियों ने अगर इन बातों को लेकर सरकार के बारे में कोई सकारात्मक बात कही तो उसे बड़ी हिकारत से नकार दिया गया.
अब सरकार की प्रतिक्रिया भले ही कुछ रक्षात्मक जान पड़े लेकिन यह देखना सचमुच खुशगवार है कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री नकार की मुद्रा में नहीं है. ऐसा कुछ मौकों पर साफ-साफ जाहिर भी हुआ. मिसाल के लिए ‘द इंस्टीट्यूट ऑफ कंपनी सेक्रेटरीज’ में दिया गया मोदी का भाषण या फिर वह मौका जब प्रधानमंत्री गुजरात के गांधीनगर में कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे.
भरोसा यह देखकर भी बढ़ता है कि आर्थिक रणनीतियों के मामले में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री का संकल्प अपनी टेक पर कायम रहने का है, वे वित्तीय मदद (फिस्कल स्टिम्यूलस) देकर अर्थव्यवस्था को गति देने जैसा ढुलमुल कदम नहीं उठाने जा रहे भले ही आगे आने वाले सूबाई चुनावों को देखते हुए ऐसा करना सियासी तौर पर जरुरी हो.
हालांकि आलोचना सिद्धांत की जमीन पर कमोबेश सही जान पड़ सकती है लेकिन जो सबूत गिनाए जा रहे हैं वो दरअसल लुटियन्स दिल्ली की शाही मीनारों में आरामकुर्सी पर बैठकर की जाने वाली जेहनी कवायद की देन हैं. अब राहुल गांधी भले कहें कि वो सारी मुश्किल छह महीने में दुरुस्त कर देंगे लेकिन सच्चाई यही है कि अर्थव्यवस्था के बड़े फलक पर किए गए उपाय वित्तवर्ष के दो तिहाई हिस्से के बीत जाने के बाद ही नतीजे दे पाएंगे.
जमाए रखना होगा लंगर
जो बीच का वक्त है उसमें मोदी को लंगर जमाए रखने की रणनीति को अपनाना जरुरी होगा, बड़ी महीन सूझबूझ की जरुरत होगी ताकि जमीन पर पकड़ बनी रहे. बेशक इस तर्क में दम है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण अर्थव्यवस्था के जिन रग-रेशों में दर्द उपजा है उसे कम किया जा सकता है बशर्ते नौकरशाही और टैक्स-एडमिनिस्ट्रेशन (कर उगाही से जुड़ा प्रशासनिक तंत्र) पहले से तैयार होते और अपने काम में थोड़ी फुर्ती दिखाते.
लेख के इस मुकाम पर पहुंचकर जरुरी होगा कि हम चालू सोच के उलट पड़ती कुछ सूझ भरी बातों को जान लें. ये बातें इन पंक्तियों के लेखक ने एक घुमंतू मार्केटियर के रुप में देश के कोने-अंतरों की खाक छानकर जुटाई हैं.
तो आईए, बात की शुरुआत नोटबंदी से ही करते हैं क्योंकि इसे ही सबसे बड़ा खलनायक ठहराया जा रहा है. इसमें कोई शक नहीं कि नोटबंदी का सबसे बुरा असर दूर-दराज के गांवों में हुआ जहां बैंकिंग नेटवर्क कायदे से पनप नहीं पाया है. शहरों, कस्बों और अर्ध-शहरी (रर्बन) इलाकों में आठ से बारह हफ्ते में हालात नए सिरे से सम पर पहुंच गए थे. हां, शुरुआत में पुराने नोटों को नए में तब्दील करने या पुराने नोटों की शक्ल में नकदी जमा करने के लिए हड़बड़ी जरुर मची थी.
यह कहना कि नोटबंदी के कारण लोगों की नौकरियां चली गईं और वे भूखे मरने को मजबूर हुए कोरा गप्प है. अभी तक एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिला जिसमें एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मंझोले उद्योग) या फिर अर्थव्यवस्था के अनियोजित क्षेत्र के किसी छुटभैया उत्पादक या वितरक को कारोबार में नकदी की किल्लत के कारण बाधा का सामना करना पड़ा हो. यही बात किराना दुकानों के बारे में कही जा सकती है. अगर इन्हें नुकसान पहुंचा तो इसकी वजह ये नहीं थी कि बैंकों में नोट कम पड़ गए थे बल्कि कारण ये था कि मांग में सुस्ती आ गई थी.
उस वक्त के बाद के समय में जो आंकड़े प्रकाशित हुए हैं उनसे संकेत मिलता है कि जितने पुराने नोट चलन में थे उनके मूल्य के बराबर की नकदी फिर से चलन में आ गई और यहां तक कि शेल (छद्म) कंपनियों में खपाई गई रकम भी निकाल ली गई. जाहिर है, ऐसे में एक आम नागरिक यह सवाल तो पूछेगा ही कि बताओ, फिर अर्थव्यवस्था में नकदी की किल्लत कहां से है?
अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा ट्रांसपोर्टेशन (परिवाहन) नकदी पर बहुत ज्यादा निर्भर है. ट्रक ड्राईवर को ईंधन भरवाने के लिए रकम देनी होती है, टोल-टैक्स (चुंगी) अदा करना पड़ता है और रास्ते में खाने-ठहरने के नाम पर रकम खर्च करनी पड़ती है. लेकिन उन्हें भुगतान हमेशा बड़े कन्साइनर्स करते हैं जो कि चेक की शक्ल में होता या बैंक-ट्रांसफर के रुप में. क्या कोई व्यक्ति ऐसे उदाहरण गिना सकता है जब ट्रकों का परिचालन सिर्फ इस वजह से ठप पड़ गया क्योंकि ट्रक मालिक के पास ड्राईवर को देने के लिए नकदी नहीं थी या ट्रक-ड्राईवर नकदी की किल्लत के कारण डीजल नहीं भरवा सके?
एक प्रचलित सोच यह है कि नोटबंदी की सबसे बुरी मार रीयल इस्टेट पर पड़ी. लेकिन नकदी की किल्लत की चपेट में यह सेक्टर किस हद तक आया ? इस सेक्टर के जानकार बताते हैं कि आगे का फायदा सोचकर जो रकम रीयल सेक्टर में लगाई जाती थी उसमें कमी आई है जबकि बिल्डर्स यह सोचकर कि एक ना एक दिन ग्राहकों को लौटना ही है अपने उत्पाद की कीमत बनावटी तरीके से ऊंचा बनाए हुए हैं और यही रीयल इस्टेट में छाई सुस्ती की मुख्य वजह है. साथ ही, एक बात यह भी है कि असली खरीदार अभी अपना हाथ खींचे हुए हैं, उन्हें उम्मीद है कि बाजार अपने तर्क से खुद को दुरुस्त करेगा और मार्टगेज रेट में कमी आएगी.
लेकिन एक बड़े मसले की तरफ लोगों का पर्याप्त ध्यान नहीं गया है. बात ये है कि इमारतों के निर्माण की सामग्री जैसे कि बालू, बजरी-रोड़ी वैगरह की पूरे देश में भारी कमी बनी हुई है.
विपक्ष खींच रहा सरकार की टांग
इसकी एक बड़ी वजह तो ये है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण(एनजीटी) ने कुछ प्रतिबंध आयद कर रखे हैं और फिर सूबे की सरकारें भी बालू के अवैध खनन और माइनिंग को लेकर सख्त रवैया अपना रही हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में महीनों से बालू की भारी किल्लत है. इससे ना सिर्फ आवासीय निर्माण-कार्य बल्कि बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजना के काम पर भी असर पड़ा है. नौकरशाही गवर्नेस (प्रशासन) के बाकी जरुरी मसलों में इस कदर मुब्तिला है कि उसे अर्थव्यवस्था के इन ढीले पड़ते कल-पुर्जे की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं.
आईए, अब जीएसटी के बारे में कुछ चर्चा कर लें. नोटबंदी के उलट जीएसटी के अमल और कर-ढांचे (टैक्स-स्ट्रक्चर) को लेकर राय अलग-अलग हो सकती है लेकिन विशेषज्ञ इस एक बात पर सहमत हैं कि जीएसटी टैक्स रिफार्म(सुधार) का एक बड़ा कदम है और यह काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. चूंकि काम बहुत भारी-भरकम है सो अगर कोई मानता है बेड़ा बड़ी आसानी से पार लग जाएगा तो यह उसका भोलापन है.
विपक्ष ने मौका भांपकर जीएसटी के सवाल पर बात को पेंचदार बनाते हुए नुक्ताचीनी करने और सरकार की टांग खिंचाई का काम शुरु कर दिया है. विपक्ष चाहता था कि जीएसटी पर अमल कुछ महीने आगे खिसक जाए ताकि गड़बड़झाला अगले वित्तवर्ष में भी जारी रहे और इससे 2019 के चुनावों के मद्देनजर बीजेपी की संभावनाओं को चोट पहुंचे.
जाहिर है, सरकार ने भांप लिया था कि जीएसटी के क्रियान्वयन में बाधा आएगी. इसलिए मोदी और अरुण जेटली ने अपना सारा जोर लगा दिया कि जीएसटी हर हाल में 2017 के जून तक अमल में आ जाए ताकि जो भी खामियां सामने आती हैं उनसे वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही(जुलाई-सितंबर) के भीतर ही निपटा जा सके और 2017-18 की बाकी दो तिमाहियों में जीएसटी एकदम से पटरी पर आ जाए.
अब यहां होड़ एक-दूसरे को मनोवैज्ञानिक तौर पर मात देने की चल रही थी और इस लड़ाई में सरकार पहले से तय की गई डेडलाईन को लेकर मजबूती से अड़ी रही. जाहिर है, ऐसे में सरकार को मान-मनौव्वल के खेल में अपनी मनपसंद कुछ बातों का मोह छोड़ना भी पड़ा. यह खासतौर से बहुस्तरीय टैक्स रेट के मुद्दे पर नजर आया, सरकार को बहुस्तरीय टैक्स रेट के पचड़े ने बहुत जल्दी घेर लिया.
लेकिन किसी गफलत में रहना ठीक नहीं. ऐसा नहीं है सरकार को टैक्स के पचड़े से घिरने का पहले से पता नहीं रहा हो. हमारे देश में तो नई दिशा में कदम बढ़ाने फिर उसे पीछे खींचने लेने की परंपरा ही रही है सो वित्त मंत्रालय पहले से ही तैयार था कि आगे के वक्त में कुछ ना कुछ तो सुधार करने ही पड़ेंगे. तो अब हम देख रहे हैं कि टैक्स-रेट को युक्तिसंगत बना दिया गया है और यह काम लोगों की उम्मीद से कहीं ज्यादा पहले हुआ है. रेट को युक्तिसंगत बनाने का काम हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव के भी पहले हो गया.
और यह बात तो पूरे दावे के साथ कही जा सकती है कि मुद्रास्फीति के मोर्चे पर मोदी सरकार का कामकाज सबसे बेहतर रहा है. आंकड़ों से भी यह बात सामने निकल कर आती है. डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ने का शोर गुमराह करने की कोशिश भर था. बेशक यह मानने की वजहें हैं कि प्याज-टमाटर के दाम राजनेताओं और व्यापारियों की मिलीभगत से बढ़ीं. लेकिन दामों की बढ़ती पर जल्दी ही लगाम कस दिया गया. बात इतनी नहीं बढ़ी जितनी कि 2016 में बिहार में अरहर की दाल के दाम के मामले में बढ़ आई थी. सरकार ने मुट्ठी बांधकर खर्च करने का संकल्प लिया है और इससे संकेत मिलते हैं कि वह मुद्रास्फीति के मोर्चे पर जोखिम नहीं लेना चाहती ताकि उसका हश्र 2004 वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार जैसा ना हो जाए.
आखिर में एक बात रोजगार के अवसरों की रह जाती है. बेहिचक कहा जा सकता है कि मोदी के कामकाज के चार कमजोर माने जा रहे मोर्चे पर सबसे लचर हालत रोजगार के मौके गढ़ पाने के मामले में ही रही है. लेकिन इसका कोई झटपट इलाज नहीं है. कांग्रेस और यूपीए की सरकार को भी इसमें समय लगा और वो सरकार मनरेगा जैसी रेवड़ी बांटने की योजना लेकर आई.
गवर्नेंस में ढिलाई का जोखिम नहीं उठा सकती सरकार
औद्योगिक उत्पादन की दर ऊंची रहने से बेशक इस मुश्किल में कुछ देर के लिए राहत मिल सकती थी लेकिन लंबे समय तक चलने वाली नौकरियों के अवसर तभी पैदा होंगे जब अगले चरण के आर्थिक सुधार किए जाएंगे— ये सुधार खास तौर से श्रम-कानून और भूमि-अधिग्रहण से संबंधित कानून के मोर्चे पर किए जाने हैं. लेकिन सरकार के पास अब आर्थिक तौर पर जोखिम लेने का समय नहीं है और ना ही ऐसा करने लायक सियासी दमखम ही बाकी है. सो, इस मोर्चे पर हालत बदस्तूर कायम रहने वाले हैं और ‘मेक इन इंडिया’ को अपनी उड़ान भरने के लिए 2019 के बाद के समय का इंतजार करना होगा.
दरअसल, अभी सरकार प्रशासनिक मामलों में ढिलाई और पैसा खुलकर खर्च करने के जोखिम नहीं उठा सकती. नरेंद्र मोदी को अपनी जानी-मानी प्रशासनिक काबिलियत का इजहार करते हुए चाबुक फटकारनी होगी और उन्होंने जो ढेर सारी सामाजिक कल्याण की चमकदार योजनाएं शुरु की हैं उनके पूरे नतीजे समय रहते सामने लाने होंगे. उन्हें आने वाले महीने में ऐसी कुछ और योजनाएं शुरु करनी पड़ सकती हैं. प्रत्यक्ष नगदी हस्तांतरण (डीबीटी) के इंतजाम से जो फायदे हुए हैं उनके बारे में लोगों को बताना होगा और यह बात खुद लाभार्थियों के मुंह से कहलवाई जाए तो बेहतर रहे.
बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं को गति देनी होगी और प्रधानमंत्री आवास योजना और स्मार्ट-सिटी परियोजना पर ज्यादा जोर लगाने की जरुरत है.
यह बात तो खैर तय है कि अलग-अलग किस्म के मतदाताओं को देखते हुए चुनाव से पहले उन्हें फायदा पहुंचाने और लुभाने के लिए कुछ योजनाएं लाई जाएंगी लेकिन इसके लिए धन की जरुरत पड़ेगी और यह धन राजस्व वसूली को बेहतर बनाकर हासिल किया जा सकता है. दरअसल नोटबंदी और जीएसटी को लेकर मोदी सरकार ने जो बड़ा दांव खेला है उसमें जीत हासिल करने के लिए राजस्व-उगाही का मोर्चा अहम है. ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के दायरे में लाकर राजस्व-उगाही के जरिए मोदी सरकार अपने लिए कामयाबी की राह निकाल सकती है और अगर ऐसा होता है तो यह मोदी सरकार के आलोचकों को आईना दिखाने जैसा काम होगा. लेकिन टैक्स वसूली के अधिकारियों और इसके शीर्ष नौकरशाहों को काबू में रखना जरुरी है ताकि वे मनमानी पर उतरते हुए आम नागरिक को परेशान करने के खेल में ना लग जाएं.
मोदी सरकार के सामने वास्तविक चुनौती गवर्नेंस की है. पूरा देश एक तरह से चुनावी मनोदशा में आ गया है. राजनेता और नौकरशाह अपने काम से कुछ खिंचे-खिंचे से दिखाई दे रहे हैं. यह बात सिर्फ बीजेपी शासित प्रदेशों में ही नहीं गैर-बीजेपी शासित सूबों में भी नजर आ रही है. और इसी मोर्चे पर मोदी की परीक्षा होनी है कि वे एक स्टार-कैंपेनर (चुनाव-प्रचारक) और अव्वल दर्जे के सीईओ की अपनी दोहरी भूमिका को कितनी कामयाबी से निभा पाते हैं.
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