इस हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुर्खियों में रहे, प्रोटोकॉल को परे रखते हुए वो इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का स्वागत करने नई दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पहुंचे. इस बीच, नेपाल ने भारत से हासिल टेलीकॉम बैंडविथ पर अपनी निर्भरता कम करने का फैसला किया. नेपाल ने अपने नागरिकों को इंटरनेट सेवा मुहैया कराने के लिए चाइना टेलीकॉम ग्लोबल के साथ हाथ मिलाया है. ऐसा करने से नेपाल में इंटरनेट सेवा से भारत का एकाधिकार खत्म हो गया है. इन दोनों घटनाओं को एक फ्रेम में रखें तो इसके भीतर बनने वाली तस्वीर भारत की विदेश नीति पर सोच-विचार की मांग करेगी.
अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने इजरायल और अमेरिका के साथ रणनीतिक रिश्ते बनाए और उन रिश्तों को आगे बढ़ाया. डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में इन संबंधों में और मजबूती आई. हालांकि इन दोनों ही सरकारों ने पूरा ख्याल रखा कि परंपरागत सहयोगी देश जैसे कि रुस, मध्य पूर्व या कह लें खाड़ी के मुल्कों से रिश्तों की अनदेखी ना हो. इन देशों के साथ भी रिश्तों को और ज्यादा मजबूती दी गई. ऐसा करते हुए वाजपेयी की एनडीए और यूपीए-1, यूपीए-2 की सरकार नेहरुवादी विदेश नीति और गुट-निरपेक्षता के इसके सिद्धांत पर ही अमल कर रही थी.
इजरायल के साथ अमेरिका से भी मजबूत रिश्ते बनाने की जरूरत
निजी तौर पर मेरे मन में इस बात के लिए स्वागत भाव और समर्थन है कि भारत इजरायल के साथ अपने रिश्ते मजबूत बनाए. इसकी एक खास वजह यह भी है कि दोनों देश कई नीतिगत मसलों पर हाथ मिला सकते हैं. इसमें आंतक-निरोधी और खुफिया जानकारियों को साझा करने जैसे रणनीतिक मसलों के साथ-साथ व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और प्रौद्योगिकी और नवाचार (इनोवेशन) में आर्थिक सहयोग जैसे मुद्दे भी शामिल हैं. मेरा मानना है कि इन्हीं वजहों से अमेरिका के साथ भी रिश्तों को मजबूत बनाने की जरुरत है, साथ ही यह भी ध्यान में रखना होगा कि दोनों देश लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध हैं, सो ऐसा करना इस नाते भी जरूरी है.
बेशक ये बातें अपनी जगह दुरुस्त हैं लेकिन इनके साथ-साथ मुझे यह भी लगता है कि भारत अपने करीब के मुल्कों और पड़ोसी देशों की अनदेखी नहीं कर सकता और ना ही उसे ऐसा करना चाहिए. भारत अपनी जरूरत के कच्चे तेल के 60 फीसद का आयात मध्य पूर्व या कह लें खाड़ी के देशों से करता है. लगभग 70 लाख भारतीय मध्य पूर्व के मुल्कों में रहते और काम करते हैं. चीन के साथ हमारी सीमाएं जुड़ी हुई हैं और यह मुल्क भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. साल 2017 के दिसंबर महीने में द इकॉनॉमिक टाइम्स में रिपोर्ट छपी थी कि चीन के साथ भारत का व्यापार सालाना 13.56 फीसदी के हिसाब से बढ़कर 6.33 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है. चीन को भारत का निर्यात सालाना 53 फीसदी के हिसाब से बढ़ा है.
नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ भारत के व्यावसायिक और आर्थिक संबंध तो हैं ही. साथ ही इन देशों के साथ इतिहास, भाषा और सांस्कृतिक संबंध के एतबार से भी भारत के गहरे रिश्ते हैं. इन मुल्कों से बड़ी तादाद में लोग भारत आते-जाते हैं. सो, इन पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को लगातार गति देना और मजबूत बनाए रखना बहुत अहम है.
पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को परवान चढ़ाना और भी ज्यादा जरूरी
नेपाल चूंकि टेलीकॉम (दूससंचार) के मामले में भारत से दूर जा रहा है सो पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को परवान चढ़ाना और भी ज्यादा जरूरी है. नेपाल ने अपने नागरिकों को इंटरनेट सेवा मुहैया कराने के लिए चीन को साझीदार बना लिया है.
चीन के साथ हमारा आम रवैया मुंह फेरे रखने का है और ऐसा कर के हम अपनी अर्थव्यवस्था और देश को नुकसान पहुंचा रहे हैं. मिसाल के लिए डोकलाम विवाद के समाधान के बाद चीन ने व्यावहारिक तौर पर उत्तरी डोकलाम में अपने 1600-1800 सैनिक स्थाई तौर पर तैनात कर दिए हैं. स्थिति का समाधान बेशक कर लिया गया था लेकिन चीन ने साफ तौर पर इलाके में अपने को एक ताकत के तौर पर स्थापित कर लिया है.
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के मेरे मित्र सुधींद्र कुलकर्णी ने ठोस तर्कों के सहारे समझाया है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) से पैदा भारत की संप्रभुता संबंधी चिंताओं का समाधान करते हुए अगर भारत और चीन एक-दूसरे के करीब आते हैं तो चीन की वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) की पहल में साथ देना भारत के अपने हित में होगा. सुधींद्र कुलकर्णी का तर्क है कि आधुनिक विश्व में ऐसा (वन बेल्ट वन रोड) ना तो कभी सोचा गया और ना ही अमल में आया है. इस परियोजना के सहारे जिस विशाल क्षेत्र को जोड़ने का सपना देखा गया है वह अपने आप में अप्रत्याशित जान पड़ता है.
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वन बेल्ट वन रोड के सहारे होने जा रहे अलग-अलग इलाकों के आपसी जुड़ाव के जरिए हम आर्थिक सहयोग और एकीकरण के एक नए वक्त में कदम रख सकते हैं. चीन ने यह भी साफ कर दिया है कि उसकी बेल्ट-रोड पहल का मकसद सिर्फ आर्थिक नहीं है, इसके तार संस्कृति और सभ्यता से भी जुड़ते हैं. इस अर्थ में देखें तो कहा जा सकता है कि चीन पुराने जमाने के ‘सिल्क रोड’ की व्यवस्था को नया जीवन देना चाहता है. सिल्क-रोड ने एक समय में आपसी खोज-बीन, हेल-मेल और ज्ञान और संस्कृति के आदान-प्रदान में भूमिका निभाई थी.
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा का नाम चीन-भारत-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा होना चाहिए
इस अर्थ में सुधींद्र कुलकर्णी का कहना है कि बेल्ट-रोड पहल पर भारत का कठोर रवैया दूरगामी हित में नहीं है. उनका मानना है कि आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस अवसर को खोना ठीक नहीं बशर्ते भारत इसे लेकर एक ऐसी स्थिति तैयार कर ले जिसमें जुड़े हुए तमाम पक्षों को फायदा होता हो. उनका एक प्रस्ताव यह भी है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा का नाम चीन-भारत-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा होना चाहिए ताकि इससे भारत की संप्रभुता संबधी चिंताओं का समाधान हो. वो भारत-चीन सहयोग की बात करते हुए यह भी कहते हैं कि पश्चिमी चीन के काश्गर से बलूचिस्तान के ग्वादर तक बनने वाला आर्थिक गलियारा जम्मू-कश्मीर और उत्तर भारत के रास्ते तैयार किया जाना चाहिए. ऐसा करने से भारत और चीन के बीच जमीनी रास्ते से आवाजाही संभव होगी जिसका फिलहाल अभाव है. इसके अतिरिक्त उनका यह भी कहना है कि भारत को पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान तक जमीनी रास्ता बनाना चाहिए, इससे भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार बढ़ेगा और दोनों देशों में खुशहाली आएगी.
उनका तर्क है कि ईरान में बेशक हमारे लिए चाबहार पोर्ट है लेकिन मध्य एशिया तक पहुंच बनाने के लिए चाबहार का रास्ता चुनने की जगह वहां अफगानिस्तान के रास्ते जाना कहीं ज्यादा किफायती और कारगर होगा.
चूंकि भारत और चीन के बीच तनाव ठंडा पड़ चुका है सो मेरा मानना है कि दोनों देशों को बातचीत की मेज पर जुटना चाहिए और नए जमाने के सिल्क रोड में साझेदारी की संभावनाओं को नए सिरे से सोचना चाहिए. बेल्ट-रोड पहल की कामयाबी का एक अहम पहलू भारत से जुड़ा है और हमें अपने हितों के ख्याल से इस दिशा में प्रयास करने चाहिए. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को चीन का 99 वर्षों के लिए पट्टे पर हासिल करना और हाल में मालदीव के साथ चीन की हुई मुक्त व्यापार संधि के कारण भारत इलाके में अलग-थलग पड़ सकता है. यह हमारे लिए एक सबक की तरह है कि सबसे करीब और परंपरागत पड़ोसियों की उपेक्षा क्यों कर ठीक नहीं.
पाकिस्तान पर दबाव बनाए रखना होगा कि वह आतंकवाद निरोधी हमारे प्रयासों में सहयोग करे
चीन-विरोध और पाकिस्तान-विरोध के शोर-शराबे में चाहे सियासी तौर पर जितनी भी ताकत हो लेकिन हमें पाकिस्तान पर लगातार दबाव बनाए रखना होगा कि वह आतंकवाद निरोधी हमारे प्रयासों में सहयोग करे. मुझे यह भी लगता है कि हमें आत्मपरीक्षण करने की जरूरत है, हमें यह सोचना होगा कि स्थितियों के भरपूर अनुकूल होने की संभावना मौजूद है तो भी कहीं हम दूरगामी आर्थिक और रणनीतिक फायदों से पीठ फेरकर तो नहीं खड़े हैं!
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