जाट नेता कहे जाने पर पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह दुखी होते थे. पर उनके पुत्र अजित सिंह की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी ही है उनकी जातीय पहचान.
गठबंधनीय गतिशीलता उनके स्वभाव का अंग है. हालांकि मुजफ्फरनगर दंगे के कारण रालोद का चुनावी भविष्य जाट बहुल इलाके में भी इस बार अनिश्चित सा हो गया है.
वैसे पूर्वजों के सत्कर्मों और वोट बैंक की पूंजी पर राजनीति करने वाले अजित सिंह आज इस देश में अकेले नेता नहीं हैं.
गत लोक सभा चुनाव में अजित सिंह के दल रालोद एक भी सीट नहीं जीत सका था।
जाट बहुल इलाकों तक सीमित हैं अजित सिंह
निवर्तमान उत्तर प्रदेश विधान सभा में रालोद के 8 विधायक हैं. रालोद के सामने अपनी सीटें बचाने की चुनौती है.
अजित सिंह की राजनीति मोटे तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के छह जाट बहुल जिलों तक सीमित है.
मुजफ्फरनगर दंगे के कारण जाट बहुल क्षेत्र में इस बार रालोद की कीमत पर बीजेपी का असर बढ़ने की खबर मिल रही है.
खुद अजित सिंह पिछला लोक सभा चुनाव हार गए थे. इससे भी अजित सिंह दबाव में दिखते हैं.
जानकार सूत्र बताते हैं कि मुस्लिम वोट के बिदकने के डर से भी राष्ट्रीय लोक दल से चुनावी समझौता करने से सपा ने मना कर दिया था.
डांवाडोल हैं राजनीतिक स्थिति
अजित सिंह की मौजूदा डांवाडोल राजनीतिक स्थिति को देखते हुए चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक शैली को याद करना मौजू होगा.
चरण सिंह कहा करते थे कि यदि जातिवाद खत्म करना है तो अंतरजातीय शादियों को बढ़ावा देना होगा.
उनकी राय थी कि सरकार की गजटेड नौकरियां उन्हीं को मिलनी चाहिए जिन्होंने अंतरजातीय विवाह किया हो.
संयोग था या प्रयास, पता नहीं. पर चौधरी चरण सिंह की दोनों पुत्रियों की शादी गैर जाट परिवारों में हुई. चौधरी ने यह भी कहा था कि सन 1932 से 1962 तक मेरा रसोइया अनुसूचित जाति का रहा.
जाट नेता नहीं कहलाना चाहते थे चरण सिंह
जाट नेता कहे जाने से दुखी चरण सिंह ने 1981 में कहा था कि ‘जब मैं प्रधानमंत्री था तो मेरे मंत्रिमंडल में सिर्फ एक जाट था. वह भी राज्य मंत्री. लेकिन इंदिरा गांधी के कैबिनेट में तो आज दस ब्राह्मण मंत्री हैं, पर कोई पत्रकार उन्हें ब्राह्मण नेता नहीं लिखता.’
उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैंने जाटों के सकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए कभी कुछ नहीं किया. चूंकि मुझ पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा सकते, इसलिए मेरे विरोधी मुझे जाट नेता कहते हैं.’
आम धारणा के विपरीत चैधरी चरण सिंह पढ़े-लिखे नेता थे. उन्होंने आगरा विश्व विद्यालय में कानून की पढ़ाई पूरी की थी.
बाद में गाजियाबाद में वकालत करते थे. वे उन्हीं मुकदमों को स्वीकार करते थे जिनके मुवक्किल का पक्ष न्यायपूर्ण होता था.
उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया. साथ ही आजादी की लड़ाई के दौरान वे कई बार जेल गये.
आजादी मिलने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बने. जमींदारी उन्मूलन विधेयक उन्होंने ही विधान सभा में पेश किया था.
खेती के बिना उद्योग का विकास नहीं
चरण सिंह की राय रही कि खेती का विकास किए बिना उद्योग का विकास नहीं हो सकता.
क्योंकि जब तक अधिकांश किसान आबादी की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी, तब तक कारखाने के माल के खरीददार कैसे बढ़ेंगे? खरीददार नहीं बढ़ेंगे तो कारखाने चलेंगे कैसे?
दलबदलू नेता का आरोप
चरण सिंह पर दल बदल कर सत्ता पाने का आरोप जरूर लगा. लेकिन उन्होंने अपने कुछ मूल सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया.
1979 में जब कांग्रेस ने चरण सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तो यह खबर भी आई थी कि उससे पहले प्रधान मंत्री चरण सिंह ने इंदिरा गांधी पर चल रहे मुकदमे वापस लेने से इनकार कर दिया था.
मुकदमे पूर्ववर्ती मोरारजी देसाई सरकार ने शुरू कराए थे. उस सरकार में चरण सिंह गृह मंत्री थे.
उन में कुछ अन्य गुण भी थे. अजित सिंह वैसी सिद्धांतवादिता के लिए नहीं जाने जाते हैं. संभवतः इसलिए भी अजित सिंह को अपने आधार क्षेत्र में भी अपने जनाधार को बनाये रखने में कभी-कभी दिक्कत होती है.
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