दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन का आम आदमी पार्टी पर लगातार जारी हमला उस मॉडल के मुनासिब ही है जिसे भारतीय जनता पार्टी की बढ़वार के बाद अपनी पतन के शुरुआत के साथ कांग्रेस ने गले से लगा रखा है.
आप चाहें तो इसे सत्ता में वापसी का कांग्रेस-मॉडल कह सकते हैं. इस मॉडल की बुनियादी मान्यता है कि बीजेपी के हिंदुत्व और प्रशासन की कमियों से वामधारा के उदारवादी, दक्षिणपंथी खेमे के शराफतपसंद और विचारधारा के मामले में तटस्थ रुख अपनाए रखने वाले लोग उकताकर कांग्रेस को वोट करेंगे. भारत की सबसे पुरानी पार्टी के खेमे को छोड़कर मोहभंग के शिकार हुए ये लोग भला और कहां जाएंगे? आखिर, एक कांग्रेस ही तो है जिसे बीजेपी का राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प कहा जाए. कांग्रेस को बस इतना सुनिश्चित करना है कि क्षेत्रीय पार्टियों को बीजेपी के विरोध में पड़ने वाले वोट जहां तक हो सके कम हासिल हों ताकि सत्ता में कांग्रेस के आने की संभावना कायम रहे.
लचर मॉडल के भरोसे कांग्रेस
सत्ता में वापसी के इस लचर मॉडल से प्रेरणा पाकर अजय माकन बीजेपी की जगह आम आदमी पार्टी की तरफ बंदूक तान रहे हैं. यह बात ठीक है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस की ही जमीन खिसकाकर फली-फूली, सो कांग्रेस के मन में आम आदमी पार्टी को लेकर कड़वाहट है. यह बात भी ठीक है कि विपक्षी पार्टी के रुप में कांग्रेस को वैसे मुद्दे जरूर उठाने चाहिए जिनमें सत्ताधारी दल की कोई कमी जान पड़ती हो. सत्ता में वापसी के लिए अपने को तैयार करने का दरअसल कांग्रेस को हक हासिल है.
लेकिन कांग्रेस के नेता और समर्थक कभी यह कहने का मौका नहीं गंवाते कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी से मुकाबले के लिए एक व्यापक मोर्चा बनाने की जरुरत है. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि बीजेपी के हिंदुत्ववादी उभार और मोदी सरकार के मनमानेपन पर लगाम कसने के लिए विपक्षी दलों का आपसी हितों की टकराहटों से उबरते हुए एकजुट होना जरुरी है. कांग्रेस का तर्क है कि अगर ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र हाथ से निकल जाएगा और हमारे गणतंत्र के महान मूल्यों की हानि होगी.
कांग्रेस के खुद के हैं संसदीय सचिव
लेकिन कथनी और करनी में अंतर हो तो ऐसी चिंताएं बड़ी पाखंड भरी जान पड़ती है. माकन ने आम आदमी पार्टी के संसदीय सचिवों के मसले पर खूब हल्ला-हंगामा मचा रखा है हालांकि कर्नाटक की सरकार में खुद ही 10 संसदीय सचिव हैं और उनमें से हर एक को मंत्री के बराबर वेतन मिलता है और वैसी ही हैसियत भी हासिल है. राष्ट्रपति को ‘लाभ का पद’ मामले में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य ठहराने की चुनाव आयोग की सिफारिश के एक हफ्ते पहले अजय माकन मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोति से मिले और उनसे ठोस कदम जल्दी उठाने के लिए कहा.
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साल 2016 की जुलाई में माकन लाभ का पद मामले में एक भागीदार बनना चाहते थे लेकिन चुनाव आयोग ने उनकी अर्जी नकार दी. शायद अजय माकन को यकीन है कि दिल्ली में 20 सीटों पर उपचुनाव (आम आदमी पार्टी के विधायकों के अयोग्य करार होने से) होंगे तो कांग्रेस को विधानसभा में घुसने का मौका मिलेगा और इस तरह वे कांग्रेस आलाकमान के सामने अपनी अहमियत का इजहार कर सकेंगे. फिलहाल दिल्ली विधानसभा में कांग्रेस की एक भी सीट नहीं है. बहरहाल, अभी तो यही नजर आ रहा है कि अजय माकन और उनकी पार्टी अपने वजन से कहीं ज्याद बड़ा मुक्का मार रही है क्योंकि 20 सीटों के लिए उपचुनाव होते हैं तो संभावना बीजेपी के सीटों के बढ़ने की बनती है और ऐसे में बीजेपी को एक बार फिर से अपनी कामयाबी के बारे में शोर मचाने का मौका मिलेगा.
शायद ही कोई इस बात से इनकार करे कि मोदी सरकार ने आम आदमी पार्टी के सरकार के सुचारु संचालन में बाधाएं खड़ी कीं, ‘आप’ सरकार ने जो भी कदम उठाए उसपर मोदी सरकार ने आपत्ति जताई, परियोजनाओं में या तो विलंब किया या फिर उन्हें सिरे से ही नकार दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में अभी यह फैसला होना बाकी है कि दिल्ली में किस सरकार का राज माना जाए लेकिन उप-राज्यपाल के दफ्तर के सहारे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राह रोकने की एनडीए सरकार की प्रवृत्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वेच्छाचारी रवैये की एक दलील है और कांग्रेस इसी बिनाह पर प्रधानमंत्री की आलोचना करती आई है.
इसके बावजूद कांग्रेस ने मामले में बीजेपी का तरफदार होने की राह चुनी. बात चाहे मोहल्ला क्लीनिक की हो या फिर सरकारी स्कूलों मे सुधार, ऑफिस बनाने के लिए ‘आप’ को जमीन के आवंटन या फिर पार्टी के विज्ञापन पर होने वाले खर्च की- अजय माकन आम आदमी पार्टी पर कुछ ऐसे हमला बोलते रहे, मानो उनके सिर पर भूत सवार हो. माना जा सकता है कि उनकी रणनीति को कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी की शह हासिल है, क्योंकि दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष के प्रति राहुल गांधी का मन नरम होने की बात कही जाती रही है.
'आप' से है कांग्रेस की पुरानी खुन्नस
आम आदमी पार्टी ने अपने पूर्ववर्ती अवतार में मनमोहन सिंह सरकार को निशाने पर लेते हुए भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान की शुरुआत की थी और मनमोहन सिंह सरकार की साख गिर गई थी. शायद कांग्रेस ने अभी तक इस बात के लिए आप’ को माफ नहीं किया है. आम आदमी पार्टी ने सियासत का जो मुहावरा रचा वह कांग्रेस की हार का बड़ा कारण साबित हुआ. अब देश की सबसे पुरानी पार्टी के सामने ‘आप’ से बदला लेने का मौका है. बेशक, यह बात समझी जा सकती है. आखिर, भारतीय राजनीति में बदला लेने का भाव एक जमाने से मौजूद रहा है.
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कांग्रेस 1989 के लोकसभा चुनावों में हारी थी और अगर आप इसके बाद से कांग्रेस के बीते 28 सालों पर नजर डालें तो एक नई कहानी के नक्श उभरते दिखाई देंगे. कांग्रेस की सियासत ने एक नई शैली अपनाई जिसमें बीजेपी को कमजोर करने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों पर हमलावर होने की बात थी.
मिसाल के लिए, 1990 के दशक में कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और कांशीराम-मायावती की जोड़ी को लगातार अपने निशाने पर रखा. सियासत के इन चार किरदारों ने कांग्रेस के परंपरागत वोट में सेंधमारी की थी सो उन्हें कांग्रेस ने अपने हमले के निशाने पर रखा. लेकिन यही काम बीजेपी ने भी किया था, कांग्रेस के अगड़ी जाति के वोटर बीजेपी की तरफ हो गए थे.
कांग्रेस के नेतृत्व के शीर्षस्तर पर अगड़ी जाति के नेता काबिज थे और पार्टी अपने संगठन में नई जान नहीं फूंक सकी, अपने को नए सिरे से गढ़ने मे नाकाम रही और ऐसे में उसका शीर्ष नेतृत्व ओबीसी और दलित नेताओं के प्रति अपनी खुन्नस छुपाने में नाकाम रहा. ये नेता हिंदुत्व के मुखर विरोधी थे लेकिन कांग्रेस ने इनके ऊपर हमला बोला. कांग्रेस ने उम्मीद पाली कि ये नेता कमजोर होंगे तो पार्टी मजबूत बनेगी, नया जीवन हासिल करेगी.
कांग्रेस को यह समझने में 14 साल लग गए कि क्षेत्रीय पार्टियों को साथ लिए बगैर वह बीजेपी की काट नहीं कर सकती. साल 2004 के लोकसभा चुनावों से पहले सोनिया गांधी ने कांग्रेस नेतृत्व के पूर्वग्रह से उबरते हुए क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन बनाया. क्षेत्रीय पार्टियों की कमान पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथ में थी. बड़ी वजह यह रही कि सोनिया गांधी का जन्म इटली में हुआ है सो उनकी कोई जाति नहीं. इस तरह लालू यादव 2004 तथा 2009 की यूपीए सरकार के साझीदार बने.
90 के दशक की रणनीति के भरोसे चल रही कांग्रेस
कांग्रेस ने 1990 के दशक में रणनीति अपनाई कि जिस पार्टी का जनाधार कांग्रेस के जनाधार से मिलता हो उसपर हमला बोलना है. 1990 के दशक की इसी रणनीति की वापसी अजय माकन के हमले में दिखाई देती है. सतर्कता बरतते हुए हमलावर होने की यह रणनीति भी एकहद तक ठीक ही कहलाएगी. आखिर दुनिया की कौन सी पार्टी वैसे मुकाबले को पसंद करेगी जिसमें उसके हितों की हानि हो रही हो.
लेकिन कांग्रेस और उसके समर्थक उन पार्टियों के खिलाफ भी मोर्चा नहीं खोल सकते जिनके उम्मीदवारों के कारण चुनावी मुकाबला बहुकोणीय संघर्ष में तब्दील होता है और ऐसा होने से विपक्ष की एकता पर चोट पड़ती और बीजेपी को फायदा पहुंचता है. बीते तीन सालों से देखने में आ रहा है कि जैसे ही किसी राज्य में चुनाव के नतीजे घोषित होते हैं, हमें बिल्कुल नपे-तुले शब्दों मे बताया जाता है कि गैर-बीजेपी उम्मीदवारों के खाते में गए वोटों के कारण कांग्रेस ने कितनी सीटें खोईं. मंशा ये जताने की होती है कि गैर-बीजेपी उम्मीदवार मुकाबले में नहीं होते तो उन्हें मिले वोट कांग्रेस के खाते में जाते.
अब ऐसा तो हो नहीं सकता ना कि आप केक खायें भी और उसे ज्यों का त्यों बचायें भी जबकि कांग्रेस कुछ ऐसी ही दुविधा की शिकार है. वह क्षेत्रीय पार्टियों पर हमलावर नहीं हो सकती, साथ ही उसने यह भी उम्मीद लगा रखी है कि ये पार्टियां चुनावी मैदान में अपने उम्मीदवार ना उतारें ताकि हिंदुत्व की हार हो. अब कौन पार्टी चाहेगी कि वह सेक्युलर होने का बीड़ा उठाए ताकि विचारधारा और संगठन के मामले में कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस के लिए सत्ता में आना मुमकिन हो सके? दरअसल कांग्रेस किसी आंदोलन का नाम तो है नहीं, वह सत्ता की होड़ में शामिल बाकी पार्टियों की तरह ही है.
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इस सच्चाई को कांग्रेस के समर्थक जिसमें वामपंथी रुझान वाले उदारवादी भी शामिल हैं, एकदम नहीं समझते. वे चाहते हैं कि सेक्युलरिज्म के नाम पर तमाम छोटी पार्टियां अपने हितों का त्याग करने को तैयार रहें. मिसाल के लिए, गुजरात चुनाव के महीनों पहले वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि कहीं आम आदमी पार्टी अपने उम्मीदवार ना खड़े कर दे. तर्क दिया गया कि ‘आप’ और अन्य पार्टियों के उम्मीदवार कांग्रेस के वोट में सेंधमारी करेंगे जो कि बीजेपी की जीत में मददगार होगा. अगर नगालैंड में होने जा रहे चुनाव में आम आदमी पार्टी विधानसभा की 60 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करती है तो सेक्युलरिज्म के मकसद को धोखा देना का आरोप उसपर फिर से मढ़ा जा सकता है.
माकन को नहीं रोकेगी कांग्रेस
माकन आम आदमी पार्टी पर अपना अगला हमला बोलें इसके पहले कांग्रेस उनसे कहे कि जरा हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई के बारे में भी सोच लिया कीजिए तो यह जतन कैसा रहे?
लेकिन कांग्रेस केजरीवाल पर हमला बोलने से अजय माकन को नहीं रोकेगी क्योंकि वे लालू, मुलायम और मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव या फिर मायावती की तरह नहीं हैं. गठबंधन के लिहाज से ये सभी नेता कांग्रेस के लिए जरुरी हैं क्योंकि कांग्रेस को पता है कि इनके बिना बीजेपी को हराना मुश्किल है. लेकिन कांग्रेस के लिए दिल्ली में केजरीवाल को अपने साथ लेने की कोई खास बाधा भी नहीं दिखती क्योंकि सूबे में लोकसभा की महज सात सीटें हैं और आम आदमी पार्टी इन सभी सीटों पर चुनाव लड़ सकती है.
इसी कारण माकन केजरीवाल पर लगातार हमला बोल रहे हैं. उनकी पार्टी का ख्याल है कि आम आदमी पार्टी की छवि पर निशाना साधने में बीजेपी के साथ होकर पार्टी बहुत से मतदाताओं को अपने पाले में खींच सकती है क्योंकि ये मतदाता बीजेपी के उभार से चिंतित हैं. हिंदुत्व से लड़ने के लिए हिंदुत्व की तरफ दिखने की यह रणनीति बड़ी विचित्र है. हिंदुत्व के उभार का भय दिखाकर कांग्रेस आगे बढ़ती है लेकिन पार्टी बीजेपी पर हमला नहीं बोलेगी. सत्ता में वापसी का कांग्रेस का मॉडल बड़ी कमजोर बुनियाद पर बना है.
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