पिछले हफ्ते ब्रिगेड परेड मैदान के मंच पर 23 दलों के नेताओं की मौजूदगी में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीजेपी के लिए ‘मौत की घंटी’ बजाई थी. यहां मौजूद लाखों लोगों के सामने उन्होंने घोषणा की थी कि नरेंद्र मोदी सरकार अपनी 'एक्सपायरी डेट' पार कर चुकी है. उन्होंने ‘यूनाइटेड इंडिया’ रैली में महागठबंधन की ‘एकता’ को दिखाने के लिए सभी नेताओं के साथ एक रस्मी तस्वीर भी खिंचवाई. ममता की कोशिश यह साबित करना था कि महागठबंधन के मामले में जितना अर्थमेटिक है, उतनी ही केमिस्ट्री भी है.
ऐसी कोशिशें भारतीय राजनीति में नई नहीं है. जब एक प्रमुख राजनीतिक दल के शीर्ष पर कोई नेता मजबूत हो जाता है, या राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत माना जाता है, तो बहु-दलीय लोकतंत्र की प्रतिवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं. सामने मौजूद बड़े खतरे का सामना करने के लिए क्षेत्रीय दल और यहां तक कि परंपरागत प्रतिद्वंद्वी दल भी अपने मतभेद दफन कर देते हैं (या ऐसा करने की कोशिश करते हैं). इसलिए, यह देखना आश्चर्यजनक नहीं है कि बीजेपी के चुनावी प्रभुत्व और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता ने बिखरे विपक्ष को एक साथ ला दिया है और वे बीजेपी के आधिपत्य को चुनौती दे रहे हैं.
सर्वे में पीएम मोदी के लोककल्याण मार्ग से जाने की संभावना
अगर महागठबंधन हकीकत में बदलता है, तो बीजेपी के लिए समस्या होगी. सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में बीजेपी को झटका लग सकता है. बीजेपी ‘अकेली सबसे बड़ी पार्टी’ के तमगे को बरकरार रख सकती है, लेकिन यह 272 के आंकड़े से काफी पीछे रह सकती है, जिससे मोदी के 7, लोक कल्याण मार्ग में बने रहने की संभावना धूमिल हो जाती है.
एबीपी न्यूज-सी वोटर के एक सर्वे के मुताबिक, 543 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए 233 पर रह सकता है. इंडिया टुडे-कार्वी इनसाइट द्वारा किए गए एक अन्य सर्वे में बीजेपी और उसके सहयोगियों को 237 सीटें दी गई हैं. दोनों जनमत सर्वे ने एनडीए को हाफ मार्क से कम कर दिया है. एबीपी का सर्वे दिसंबर-जनवरी के दौरान सभी 543 सीटों पर 22,309 मतदाताओं से बातचीत पर आधारित है, जबकि इंडिया टुडे का सर्वे 97 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में 13,179 मतदाताओं से 'आमने-सामने के साक्षात्कार' पर आधारित था.
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दिलचस्प बात यह है कि ये सर्वे एक ऐसे परिदृश्य की भविष्यवाणी करते हैं जहां एकजुट विपक्ष मोदी से मुकाबला कर रहा है. जनमत सर्वे के पीछे मूल धारणा यह है कि ये बेमेल राजनीतिक ताकतें चुनाव पूर्व सीट-साझेदारी पर समझौता कर लेंगी और ‘सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम’ भी बना लिया जाएगा. प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का सवाल खुला रखा जाएगा. संक्षेप में यह महागठबंधन की पुरजोर पैरोकार ममता बनर्जी की ओर से पेश 1 बनाम 1 का फॉर्मूला है.
महागठबंधन नहीं बना तो?
लेकिन अगर महागठबंधन नहीं बना तो क्या होगा? एक बिखरे विपक्ष की ओर से अपना वोट शेयर हस्तांतरित कर देने और लोकसभा चुनाव में 543 लोकल मुकाबले के संग्रह तक सीमित करना एक काबिले-तारीफ थ्योरी है, लेकिन थ्योरी के साथ एक बुरी बात है कि ये अव्यावहारिक होती हैं.
महागठबंधन को लेकर चारों ओर मचे हल्ले-गुल्ले और चुनावी सर्वे की ओर से पेश की जा रही ‘एकजुट विपक्ष’ की मनभावन तस्वीर के लिए प्रस्तावित महागठबंधन को हकीकत में उतरना बाकी है. चुनाव में तीन महीने से भी कम समय बाकी है, और कई राज्यों में महागठबंधन या तो बना ही नहीं या उसका गर्भपात हो गया है. आइए कुछ उदाहरण देखते हैं:
उत्तर प्रदेश के, जो कि लोकसभा में 80 सांसदों को भेजने वाला भारतीय लोकतंत्र का अगुवा राज्य है, यहां दो प्रमुख दलों एसपी और बीएसपी ने अपनी सीट साझेदारी तय करने में कांग्रेस को नजरअंदाज कर दिया है. बीएसपी सुप्रीमो मायावती कहती हैं कि अनुभव ने उन्हें सिखाया है कि, 'हमारे वोट कांग्रेस को ट्रांसफर हो जाते हैं, लेकिन उनके वोट हमें नहीं मिलते. हमें कांग्रेस के साथ गठबंधन से कोई फायदा नहीं होता है, जबकि एसपी-बीएसपी गठबंधन में ठीक से वोट ट्रांसफर होता है.'
एसपी प्रमुख अखिलेश यादव का कहना है कि 'चुनावी अंकगणित' ने उन्हें कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखने पर मजबूर किया. इस बात से गुस्साए राहुल गांधी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से प्रियंका गांधी वाड्रा को मैदान में उतार दिया है, लेकिन एसपी-बीएसपी नेताओं का कहना है कि उनके कांग्रेस में आने से गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
हर जगह से गायब है कांग्रेस
उत्तर प्रदेश में हम जो देखने वाले हैं, वह बीजेपी, एसपी-बीएसपी और कांग्रेस के बीच त्रिकोणीय लड़ाई है. अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि बीजेपी पर इसका सकारात्मक या नकारात्मक असर पड़ेगा या नहीं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश में कोई ‘महागठबंधन’ नहीं है.
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ऐसा ही एक मामला आंध्र प्रदेश में सामने आया है. हाल ही में हुए तेलंगाना विधानसभा चुनावों में के. चंद्रशेखर राव की टीआरएस के हाथों करारी मात खाने के बाद, टीडीपी-कांग्रेस गठबंधन टूट गया है. विडंबना यह है कि टीडीपी प्रमुख और आंध्र प्रदेश के सीएम एन. चंद्रबाबू नायडू की दिल्ली में राहुल गांधी से मुलाकात के ठीक एक दिन बाद, कांग्रेस ने फैसला लिया कि वह आंध्र में अकेले चलेगी और एक साथ होने वाले चुनाव में सभी 25 लोकसभा सीटों और 175 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
कर्नाटक में, कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन को एकता और योग्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक माना जाना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय यह इस तरह की सत्ता-साझेदारी की सभी बुराइयों का एक टेस्ट केस बन गया है. नाराज कांग्रेस विधायक एक-दूसरे की पिटाई करने में मशरूफ हैं, जबकि मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी अपनी तकलीफ जाहिर करने और फिर इसका खंडन करने के बीच झूल रहे हैं.
इस महीने के शुरू में जेडी(एस) के विधायकों की एक बैठक को संबोधित करते हुए, मुख्यमंत्री ने कथित तौर पर कहा कि वह, 'एक क्लर्क की तरह काम कर रहे हैं ना कि मुख्यमंत्री की तरह, जिसकी वजह कांग्रेस की हर चीज में दखलअंदाजी है' और 'कांग्रेस के नेता उनसे हमेशा अधीनस्थ की तरह बर्ताव करने की उम्मीद करते हैं.' यह ‘गठबंधन’ शायद लोकसभा चुनाव से आगे ना चले.
पश्चिम बंगाल में गठजोड़ के अलावा, तृणमूल कांग्रेस चीफ ‘महागठबंधन’ को लेकर उत्साहित हो सकती हैं, लेकिन उनकी पार्टी का चुनावों में कांग्रेस (जिसका अस्तित्व लगभग न के बराबर है) के साथ कोई गठजोड़ नहीं होगा. वास्तव में, राहुल गांधी और सोनिया गांधी ममता की ‘यूनाइटेड इंडिया’ की रैली में इसी लिए नहीं गए, क्योंकि मंच पर उनकी मौजूदगी स्थानीय कांग्रेस इकाई से उसके अस्तित्व की अंतिम निशानी भी छीन लेती.
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बिहार में भी उन कुछ जगहों पर, जहां कांग्रेस अपने क्षेत्रीय सहयोगी के साथ तालमेल से फायदा मिलने की उम्मीद कर रही है, असंतोष की फुसफुसाहटें हैं. हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि आरजेडी-कांग्रेस में सीटों के बंटवारे की बातचीत में रुकावट आ गई है और इस मोर्चे पर किसी भी घोषणा को फिलहाल के लिए टाल दिया गया है.
ओडिशा में, नवीन पटनायक का ‘महागठबंधन’ से कुछ लेना-देना नहीं है. वह राष्ट्रीय राजनीति से उदासीन हैं और अंदाजा लगाया जाता है कि वह अपने राज्य में चैन से रहना चाहेंगे. चूंकि बीजेडी मुस्लिम वोटों पर निर्भर नहीं करती है, पटनायक चुनाव बाद के परिदृश्य में एनडीए के संभावित साझीदार के रूप में उभर सकते हैं. इसी तरह तेलंगाना में केसीआर, जो कि प्रधानमंत्री बनने के सपने देखते हैं, गैर-कांग्रेस, संघीय ताकतों के गैर-बीजेपी गठबंधन से उम्मीद लगाए हैं. महागठबंधन से उनका भी कुछ लेना-देना नहीं है.
महागठबंधन एक ताकतवर गठबंधन को हराने की गणितीय संभावना पर आधारित है. हालांकि, जमीन पर मैथमेटिक्स, केमिस्ट्री के अधीन है. अन्य बातें भी विचारणीय हैं. इस तरह के गठबंधन में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए, कांग्रेस के पास क्षेत्रीय ताकतों के बीच स्वीकार्यता होनी चाहिए, उसे अपना दम दिखाने में सक्षम होना चाहिए और उचित रवैया दिखाना चाहिए. अभी तक, इन तीनों मानदंडों पर यह पीछे दिखती है.
एसपी, बीएसपी इसे उत्तर प्रदेश में एकदम फिसड्डी मानते हैं. पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में इसकी मोलभाव की ताकत बहुत कमजोर है. और कर्नाटक जैसे कुछ मामलों में यह सचमुच के बड़े भाई की तरह बर्ताव करती है. जब तक अंतिम लम्हे में कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं होता, तब तक महागठबंधन एक नॉन-स्टार्टर रहेगा. यह बदलता है- या इसे बदलना ही चाहिए- तो जोड़-घटाने में काफी बदलाव आ सकता है.
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