भारत में किसी भी सरकार के लिए आलोचकों की तरफ से 'अघोषित आपातकाल' कहने का प्रचलन-सा बन गया है. हालात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले लोगों को आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है कि आपातकाल के दौरान खुद उनकी भूमिका क्या थी. इनमें से ज्यादातर लोग या तो आपातकाल का समर्थन कर रहे थे या फिर आपातकाल के खिलाफ किसी भी प्रदर्शन से वे नदारद रहे.
आपातकाल सभी लोकतांत्रिक संस्थानों पर हमला था. इसने सिर्फ व्यक्तिगत तानाशाही को स्थापित नहीं किया, बल्कि समाज में भय और प्रताड़ना का वातावरण बना दिया. 1975 में 25-26 जून की आधी रात को आपातकाल की घोषणा कर दी गई. इसकी आधिकारिक और काल्पनिक वजह तो देश पर खतरा था, लेकिन हकीकत में यह कारण मनगढ़ंत था.
वास्तविक कारण था कि एक चुनाव याचिका के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से इंदिरा गांधी संसद की सदस्यता खो बैठी थीं और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर सशर्त स्टे लगा दिया था. वह सत्ता में बनी रहना चाहती थीं और इसलिए उन्होंने आपातकाल का सहारा लिया. वैसे लोगों को, जो 'अघोषित आपातकाल' का बहुत सामान्य तरीके से उपयोग करते हैं, ये याद दिलाना जरूरी है कि उस दौरान क्या हुआ था.
आपातकाल लागू होने के बाद विरोधी राजनीतिक नेताओं को एहतियातन हिरासत में लेने की पहली कार्रवाई हुई. डीएम और कलेक्टर्स को हिरासत में लेने के लिए जरूरी खाली फॉर्म मुहैया करा दिए गए ताकि विपक्ष के हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया जा सके. इसमें हिरासत में लिए जाने वाले का नाम, पिता का नाम और पता सिर्फ हाथ से भरना था. किसी भी मामले में हिरासत में लेने का आधार नहीं था.
पुलिस थानों को सलाह दी गई थी कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करते हुए उन्हें भारत रक्षा कानून के तहत एक जैसे एफआईआर रजिस्टर करना है. इसके तहत उन्हें एफआईआर में ये जिक्र करना है कि वे या तो प्रतिबंधित संगठनों से जुड़े थे या सरकार को उखाड़ फेंकने की धमकी दे रहे थे. देश के 9 हाईकोर्ट ने हिरासत आदेश को न्यायसंगत बताया और कहा कि हिरासत में लेने का आधार नहीं रहने पर भी याचिकाएं खारिज की जा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इनसे अलग फैसला दिया.
आपातकाल की तैयारी में सुप्रीम कोर्ट को निर्णायक न्यायाधीशों से भर दिया गया. तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरीयता को दरकिनार कर दिया गया और वैसे लोगों को अदालत का नियंत्रण दे दिया गया, जिन्हें सरकार के सैद्धांतिक दर्शन में भरोसा था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपातकाल के दौरान अवैध तरीके से हिरासत में लिए गए लोगों के पास कानूनी सहारा नहीं है. एकमात्र जज जस्टिस एच आर खन्ना इससे असहमत थे.
पूरे न्यूज़ मीडिया पर प्री सेंसरशिप थोप दी गई. सेंसर हुए बिना अखबार की एक खबर भी नहीं छप सकती थी. सभी अखबारों के परिसर में सेंसर का एक अधिकारी ठहरा करता था. विपक्ष की सभी गतिविधियां अखबार से बाहर हो गईं और मीडिया में सिर्फ सरकारी प्रोपेगेन्डा रहने लगा. 'अघोषित आपातकाल' की शिकायत कर रहे कई लोग तब या तो सक्रिय थे या आपातकाल के कट्टर समर्थक बने हुए थे.
भारतीय संविधान और जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों को पूर्व प्रभाव (बैक डेट से) से बदल दिया गया ताकि हर उस आधार को खत्म किया जा सके, जो श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराता हो. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों में पूर्व संशोधनों को सही ठहराया, जिसके बाद संसद में किसी भी कानून को पूर्व प्रभाव से लागू करने की ताकत आ गई.
दोनों सदनों के विरोधी सदस्य हिरासत में रहे. संसद का संख्या बल कम हो गया. इससे सरकार को मौका मिल गया कि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत से संविधान में संशोधन कर सकें.
पांच साल के लिए चुनी गई संसद ने अपने कार्यकाल को संविधान में संशोधन कर 5 साल से बड़ा कर लिया. कुछ राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं और भारत वास्तव में एक व्यक्ति के शासन में बदल गया. इसमें तानाशाही के सभी तत्व देखे जा सकते थे. कोई व्यक्तिगत आजादी नहीं थी, प्रेस की स्वतंत्रता नहीं थी, संसद ढीला-ढाला हो गया, सर्वोच्च अदालत तानाशाही के अधीन हो गई और किसी असंतोष के लिए कोई जगह नहीं थी.
एक तानाशाह के लिए अपने परिवार को आगे बढ़ाने का यह बेहतर अवसर था और इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी असली उत्तराधिकारी बनकर सामने आए. देश जबरन नसबंदी, अल्पसंख्यकों समेत बड़े पैमाने पर लोगों का उनके घरों से अपहरण और मीडिया के दुरुपयोग का गवाह बना.
चाटुकारिता का नया युग हमेशा से विरोधाभास से जुड़ा रहा है. तानाशाही का युग अक्सर अपने प्रोपेगेन्डा से लोगों को गलत रास्ते पर ले जाता है. अपने प्रोपेगेन्डा पर चलने वाले भी ये खुद होते हैं क्योंकि कोई और उन पर विश्वास नहीं करता. गलत तरीके से यह खुद को विश्वास दिलाता है कि जनता तानाशाही के पक्ष में है. इसलिए आखिरकार यह उस चुनाव का आदेश देने की गलती कर बैठता है जो आपातकाल के खिलाफ अपनी बागी राय जाहिर करता है.
आज मुझे खुशी होगी अगर ऐसे लोग जो नियमित रूप से 'अघोषित आपातकाल' का उपयोग करते हैं, वे आत्मनिरीक्षण करें और अपने आपसे सवाल करें- ‘19 महीने के आपातकाल के दौरान मैं कहां था और उस समय मेरा घोषित सार्वजनिक रुख क्या था?’
(लेखक बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री हैं)
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