टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में सीबीआई ट्रायल कोर्ट के फैसले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद को पीड़ित घोषित कर दिया. कोर्ट ने इस मामले में ए राजा और कनिमोड़ी को आरोपों से मुक्त किया था. कोर्ट ने कहा कि जांच एजेंसियां आरोपियों के खिलाफ अपराध साबित करने में बुरी तरह नाकाम रहीं. कांग्रेस और मनमोहन सिंह ने फैसले के तुरंत बाद खुद को किसी भी तरह के गलत काम से दोषमुक्त करार दे दिया, जबकि मामले में वो आरोपी ही नहीं थे.
हालांकि कई वजहों से पूर्व प्रधानमंत्री का दावा टिकता नहीं है, जिन पर बाद में रोशनी डाली जाएगी. पहले इस पर नजर डालते हैं कि उन्होंने टीवी चैनलों से क्या कहा-
मनमोहन सिंह ने एनडीटीवी के सुनील प्रभु से कहा, 'मेरे और मेरी सरकार के खिलाफ बड़ा दुष्प्रचार किया गया. अब फैसला खुद इसकी कहानी कहता है.'
पूर्व दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने तो अदालत के फैसले को कांग्रेस पार्टी के लिए नैतिक जीत तक बता डाला.
काफी कुछ बताती है संजय बारू की किताब
लेकिन कई लोग मनमोहन सिंह और उनके मंत्रिमंडल को इस मामले में नैतिक रूप से दोषी मानते हैं. यूपीए-1 के दौरान मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू का दावा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने के अनुभवों पर किताब लिखने वाले वह पहले अधिकारी हैं. अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में बारू लिखते हैं कि मनमोहन सिंह खुद नैतिकता पर चलते थे, लेकिन अपने साथियों के लिए उनका इस पर जोर नहीं रहता था. यह बात आज अधिक उचित लगती है क्योंकि मनमोहन सिंह कथित स्पेक्ट्रम घोटाले में नैतिक रूप से दोषी हैं.
बारू किताब में कहते हैं, 'सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर डॉ. सिंह का व्यवहार सरकार में लंबे वक्त तक रहते हुए बना. मुझे लगता है कि सार्वजनिक जीवन में वो खुद अपने लिए उच्च दर्जे की पारदर्शिता बरतते थे, लेकिन वो इसे दूसरों पर नहीं थोपते थे. दूसरे शब्दों में वो खुद भ्रष्टाचार नहीं करने वाले थे और उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि उनका परिवार भी गलत काम नहीं करे, लेकिन वो अपने साथियों और कनिष्ठों के लिए खुद को जवाबदेह नहीं मानते थे. इस मामले में (टूजी घोटाले के संदर्भ में) उन्होंने खुद को और कम जवाबदेह माना क्योंकि वो राजनीतिक अथॉरिटी नहीं थे, जिन्होंने मंत्रियों की नियुक्ति की थी. व्यवहार में, इसका मतलब है कि वो अपने मंत्रियों के भ्रष्ट कामों की अनदेखी करते रहे. उनको लगता था कि कांग्रेस आलाकमान उनकी सरकार में बैठे भ्रष्ट लोगों से निपटेगा. अपने गठबंधन सहयोगियों से भी उन्होंने यही उम्मीद पाल रखी थी. अपने आचरण को लेकर उनकी अंतरात्मा हमेशा पाक-साफ थी. उनका मानना था कि हर किसी को अपनी अंतरात्मा साफ रखनी चाहिए.'
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'जब डीएमके कोटे से मंत्री ए राजा को पकड़ा गया तो उन्होंने कहा कि कानून अपना काम करेगा.... डॉ सिंह का दृष्टिकोण खुद के लिए सक्रिय नैतिकता का और दूसरों के प्रति निष्क्रिय नैतिकता का एक संयोजन था.'
पूर्व पीएम मान चुके हैं- गठबंधन मजबूरी थी
अगर घोटाले का आरोप प्रोपेगेंडा था तो सुप्रीम कोर्ट ने सभी टूजी लाइसेंस रद्द क्यों किए और फिर से नीलामी का आदेश क्यों दिया? ऐसी खबरें भी हैं कि दूरसंचार मंत्री बनने से पहले मनचाहा मंत्रालय पाने के लिए राजा कथित तौर पर हाईप्रोफाइल कॉरेपोरेट लॉबिस्ट के संपर्क में थे. ऐसी रिपोर्ट भी है कि संपादकों के साथ एक बैठक में मनमोहन सिंह ने कथित तौर पर माना था कि 'गठबंधन की मजबूरियों' ने उनके हाथ बांध दिए हैं.
बारू की किताब में यह भी लिखा है कि यूपीए-1 में डीएमके कैसे गठबंधन सहयोगी बना, वो आगे कहते हैं कि वास्तव में, मनमोहन सिंह इस गठबंधन के सूत्रधार थे.
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'शुरूआत में, करुणानिधि के भतीजे और यूपीए सरकार में दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन डॉ सिंह और चेन्नई में डीएमके नेताओं के बीच वार्ताकार का काम करते थे. मारन जब डीएमके के पारिवारिक युद्ध में शामिल हो गए तो उनकी ये हैसियत जाती रही... 11 मई, 2007 को डॉ. सिंह और सोनिया गांधी एक सार्वजनिक रैली में शामिल होने चेन्नई गए...रैली स्थल पर ही करुणानिधि ने उन्हें बताया कि अब से ए राजा दिल्ली में उनके मुख्य प्रतिनिधि होंगे. उसी रात डॉ सिंह, चेन्नई से लौटे और करुणानिधि के अनुरोध पर अमल कर दिया. दयानिधि मारन की जगह ए राजा को दूरसंचार मंत्रालय दे दिया गया. 13 मई को राजा ने कार्यभार संभाला और कुछ महीनों के अंदर ही उन पर खास कंपनियों को गलत तरीके से स्पेक्ट्रम बेचने का आरोप लग गया. इसे ही टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के नाम से जाना गया.'
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तो फिर, यूपीए-1 के दौरान मीडिया और विपक्षी दल इस मुद्दे से दूर क्यों रहे? बारू का कहना है कि नैतिकता को लेकर प्रधानमंत्री की दो धारणाओं के चलते यूपीए-1 के दौरान लोगों की राय उनके खिलाफ नहीं गई. यूपीए-एक के दौरान ये मामला सामने भी नहीं आया था. उनके पहले कार्यकाल में मीडिया ने उनकी नीतियों को ज्यादा तवज्जो दी. लेकिन जब यूपीए-2 में जब घोटाले सामने आए तो उनकी सार्वजनिक छवि और लोगों के बीच उनकी प्रतिष्ठा गिर गई. वो इससे कभी उबर नहीं पाए क्योंकि उनके पास कोई सामानान्तर पॉलिसी नेरेटिव नहीं था जो उनकी प्रतिष्ठा को बचा सकता था. दूसरे शब्दों में ऐसा कुछ सकारात्मक नहीं था जो लोगों के दिलो-दिमाग को छूता, जो नकारात्मक कामों की भरपाई कर सकता था, जिसके लिए उन्हें दंडित किया जा रहा था. जैसे-जैसे उनकी प्रतिष्ठा गिरी, वैसे-वैसे उनकी सरकार भी जाती रही.'
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