लोग सिर खुजा रहे हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद को हिला कर रख देने वाला 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला अदालत के फैसले के बाद खोदा पहाड़ निकली चुहिया साबित होगा. अदालत ने मामले में प्रमुख आरोपियों को आरोप मुक्त कर दिया. इस घड़ी बॉलीवुड की हिट फिल्म 'जॉली एलएलबी' में जज का किरदार निभाने वाले सौरभ शुक्ला की एक यादगार लाइन याद आ रही है, 'अदालत सच से नहीं चलती, इसे सबूत चाहिए.'
सच और सबूत के बीच बरी होने की अपार संभावनाएं डोलती हैं- और हम कह सकते हैं चाहे 2जी घोटाले में स्पेशल कोर्ट का फैसला हो या गुजरात को दहला देने वाले 2002 के सांप्रदायिक दंगे में दिया गया फैसला हो, ऐसे ही फैसला होता है. अगर अपने पक्ष का आरोपी बरी होता है तो राजनेता खुश होते हैं, लेकिन दूसरे मुकदमे में प्रतिद्वंद्वी केस जीतता है तो कानून की खामियों पर सवाल उठाते हैं.
इस नजरिये से देखें तो यह कांग्रेस पार्टी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार में गठबंधन के सहयोगी रहे डीएमके का दिन रहा. एनडीए की तरफ से अभियोजन पक्ष द्वारा स्पेशल कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने की खबरें विपक्षी दलों के प्राइम टाइम प्रवक्ताओं के गुलगपाड़े में दब कर रह जाएंगी. गुजरात चुनाव, जिसमें बीजेपी को असहज जीत मिली है, के बाद आने वाले दिनों में राजनीति एक नए दौर में पहुंच चुकी है.
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न्याय प्रक्रिया की पेंच में फंस जाती है जनता
क्या आम आदमी 21वीं सदी में ज्यादा स्मार्ट है?
यह आम हकीकत है कि भ्रष्टाचार के मामले आमतौर पर उन तकनीकी पहलुओं में दफन हो जाते हैं, जिन्हें आम पुरुष और महिलाएं नहीं समझ सकते हैं, जबकि चालाक वकील और स्मार्ट राजनेता इन्हीं तकनीकी पहलुओं की आड़ लेकर मुश्किल हालात से बच निकल जाते हैं. इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि न्यायिक मशीनरी में- ट्रायल कोर्ट के बाद हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कई स्तर हैं, फाइल मोटी होती जाती है और समय खिंचता जाता है. इस बीच के समय में राजनीतिक परिदृश्य बदल जाता है और इसके नतीजे में कई मामलों में यह अभियोजन पर भी असर डाला है.
2G की सड़ांध
आइए, 2जी केस को थोड़ा विस्तार से देखते हैं. एक पहलू है पारदर्शिता का अभाव, नियमों में बारंबार बदलाव, 'पहले आओ-पहले पाओ' के आधार पर शर्मनाक तरीके से बेशकीमती स्पेक्ट्रम का आवंटन किया जाना इतना सड़ांध भरा फैसला था कि हजारों इत्र और परफ्यूम की शीशियां उंडेल कर भी जिसे दूर नहीं किया जा सकता था. इस बदबू ने कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (सीएजी) को जगा दिया.
सरकार के संवैधानिक ऑडिटर ने विशुद्ध रूप से सरकारी खजाने को राजस्व घाटे पर सवाल उठाते हुए कमाई से वंचित रह गए 176,000 करोड़ रुपए के घोटाले का आंकड़ा पेश किया था, जिसने निश्चित रूप से आम जनता को भ्रमित किया, लेकिन बीजेपी और इसके प्रधानमंत्री पद के सफल उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने इसे हथियार बना कर इसका भरपूर इस्तेमाल किया.
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हकीकत में 2जी मामला आंशिक रूप से देश में टेलीफोन नेटवर्क को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडाइज दरों पर स्पेक्ट्रम का आवंटन करना था और आंशिक रूप से अजीब और संदिग्ध प्रक्रिया से इसका आवंटन किया जाना था, जिसमें भ्रष्टाचार की गंध आती थी.
जैसा कि एक रिपोर्टर शालिनी सिंह, जिन्होंने इस घोटाले के दौरान इसकी रिपोर्टिंग की थी, विस्तार से बताती हैं, कि डीएमके के अंदिमुथु राजा जब-तब नियम बदल दिया करते थे, जो ईमानदारी और समझदारी से लिए गए फैसले नहीं लगते थे. और फिर इसके बाद जैसा कि शालिनी बताती हैं यूपीए ने आरोपों को नकारने के लिए अस्पष्ट और झूठे तरीके से इस फैसले को पूर्व एनडीए शासन द्वारा तय की गई नीति से जोड़ दिया.
राजा और उनकी पार्टी सहयोगी कनिमोझि अब राहत की सांस ले सकते हैं, लेकिन 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में अंधेरगर्दी के दाग अभी भी मौजूद हैं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की थी.
उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि किसानों की मदद के लिए सब्सिडी देना एक के बाद एक सभी सरकारों ने जारी रखा, लेकिन क्या किसी भी सरकार ने फर्टिलाइजर कंपनी को 'पहले आओ पहले पाओ' के आधार पर सब्सिडी लेने की पेशकश की. आधुनिक तकनीकी क्रांति में अरबों लोगों पर असर डालने वाला स्पेक्ट्र्म जो कि एक बहुमूल्य संपदा बन चुका है, उसे खैरात की तरह बांट दिया गया, तो सवाल उठने लाजमी हैं, और इसी लिए सवाल उठे भी. बीजेपी ने अपनी सुविधा के हिसाब से इसे मुद्दा बनाया और बढ़त हासिल की- ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस ने मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बने रहने को लेकर 2002 के गुजरात दंगे को मुद्दा बनाया था.
न्यायिक व्यवस्था की अस्पष्टता
दोनों इंगित मामलों में, सामान्य समझदारी से इतर तकनीकी पहलू शामिल हैं- क्योंकि मुकदमे में अपना पक्ष रखने के लिए ‘कुछ करने या करने वाला काम ना करने’ का पता लगाने में ‘कहे गए और ना कहे गए’ शब्दों की आड़ ली गई. इसे देखते हुए समझ सकते हैं कि न्यायिक व्यवस्था में किस तरह अस्पष्टता भरी है.
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जैसा कि सब कुछ लिखित है, स्पेशल कोर्ट के फैसले को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह साफ है कि भ्रष्टाचार के मुकदमे में शायद लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के आवंटन और इसके एवज में घूस और कर्ज लिए जाने के आरोप साबित करने के लिए ठोस सुबूत नहीं थे.
लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला और जे जयललिता का दोषी साबित होना दिखाता है कि न्यायिक प्रक्रिया और राजनीतिक प्रक्रिया किस तरह अलग दिशाओं में चलती है. यादव जेल गए, चौटाला अब भी जेल में हैं और जयललिता की फैसला आने से कुछ महीने पहले मौत नहीं हो गई होती तो शायद वो भी वहीं जातीं.
जैसा कि आमतौर कहा जाता है, इंसाफ का पहिया धीमा चलता है, लेकिन चलता रहता है. लेकिन राजनीति के अपने आयाम हैं और लोकप्रिय नेता व ताकतवर पार्टियां खेल के दौरान मध्यकाल के अंकों पर ही अपनी जीत का दावा करने लगते हैं. इस तरह से कांग्रेस और डीएमके के लिए फिलहाल तो यह राहत की घड़ी है. कल तो कल आएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी ट्विटर आईडी है @madversity)
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