8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. इस अवसर पर हम आपकी भेंट दक्षिण एशिया की कुछ ऐसी महिलाओं से करवा रहे हैं जिनका नाम यों तो ज्यादा जाना-पहचाना नहीं लेकिन जिन्होंने अपने स्थानीय समुदाय के बीच रहते हुए तमाम दुश्वारियों का सामना किया, उनसे डटकर लोहा लिया और आखिरकार हालात को बेहतरी के लिए बदलकर दिखाया है.
इनमें से कुछ महिलाएं मजबूत संकल्प की रोशन मशाल है तो कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, समाज ने महिला होने के कारण उनकी राह में कांटे बिछाए.
यहां पेश की जा रही ऋंखला में हम सिर्फ यही नहीं बताएंगे कि जिंदगी महिलाओं से हर मुकाम पर कोई ना कोई इम्तिहान लेती है या कि उनकी राह में बाधाएं खड़ी करती है बल्कि हमारा जोर यह भी दिखाने पर होगा कि जाति, पितृसत्ता और भेदभाव के खिलाफ लड़कर कैसे किसी महिला ने अपने लिए आगे सफलता की राह बनाई.
पहले पति की मौत, फिर खेत की फसल का मारा जाना.. दुर्भाग्य की ये घटनाएं सिलसिलेवार ना घटतीं तो एस. रंगननायकी की शख्शियत वह ना होती जो आज की तारीख में है.
किसान की इस विधवा ने पति के गुजर जाने के बाद प्रण किया कि परिवार का गुजर-बसर अपने बूते करके दिखाना है और आज किसानों का पूरा समुदाय उसकी तरफ गर्व की भावना से देखता है कि इस औरत के कारण उनके गांव तक पानी पहुंचा और खेतों को पानी मिला.
अकेले दम पर नहर में पानी लाया
‘राजा वैक्कल’ तमिलनाडु के कुड्डुलोर जिले की एक नहर है जिसमें पानी वीरानाम झील से पहुंचता है. वैसे तो इस झील से 30 से ज्यादा नहरों को पानी मिलता है लेकिन राजा वैक्कल इनमें सबसे ज्यादा लंबी नहर है. इसकी लंबाई 9.6 किलोमीटर है और इससे 13 गांवों के 1400 एकड़ दायरे में फैले खेतों को पानी मिलता है.
दशकों से इस नहर में पानी नहीं था. नहर के इलाके के गांव और खेत पानी को तरसते थे. रंगननायकी ने हिम्मत की और अपने अकेले प्रयास के दम पर नहर में पानी ला दिखाया. इलाके के खेतों की ऊपज कई गुना ज्यादा बढ़ गई. आस-पास के लोग इसी कारण उसे प्यार से राजा वैक्कल रंगननायकी कहकर बुलाते हैं.
वीरानाम झील से 13 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है वादामूर. उम्र के 65 वसंत पार कर चुकी रंगननायकी इसी गांव की हैं. वे कहती हैं कि 'मैंने तो यही मान रखा था कि मुझे एक किसान की पत्नी बनकर रहना है लेकिन किस्मत ने शायद मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा था.'
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1993 में रंगननायकी के पति फेफड़े के कैंसर के कारण चल बसे. पति की मौत के बाद वे सकते में थीं. वे बात को समझाते हुए कहती हैं 'मेरे तीन बच्चे थे, इनमें एक ऐसी बच्ची भी थी जिसे खास देखभाल की जरुरत थी जबकि हमारे पास आमदनी का जरिया नहीं था.'
रंगननायकी ने अपने पिता से खेती-बाड़ी करना सीखा और 2001 में पिता के ही खेतों के एक हिस्से को संभालना शुरु किया. उनके नाम से गांव में 23 एकड़ की खेती थी और जल्द ही रंगननायकी को समझ में आ गया कि गांव में तो पानी की बहुत कमी है, ना पीने का पानी पर्याप्त है और ना ही सिंचाई के लिए.
इस समस्या की वजह थी राजा वैक्कल नहर का एक जगह से बंद हो जाना. इसी नहर से गांव और खेतों को पानी मिलता था.
'जब मैंने बाकी किसानों से पूछा तो सबने यही कहा कि हमें अब याद नहीं कि नहर में आखिरी बार कब पानी आया था. पानी की आपूर्ति नहीं थी इसलिए गांववालों को कई किलोमीटर दूर चलकर पीने का साफ पानी लाना पड़ता था. खेतों को पानी मिलना मुहाल था, सिंचाई नहीं हो पा रही थी.'
रंगननायकी समस्या को समझाते हुए कहती हैं. कई गांवों में बोरवेल की जुगत लगाई थी और उनमें भी पानी का स्तर नीचे जा रहा था. साथ ही बोरवेल के पानी से खेती-बाड़ी की जरुरत पूरी नहीं हो पा रही थी. आखिरकार रंगननायकी ने फैसला किया कि अधिकारियों से मिलना है और नहर में पानी की राह रोके बैठी गाद को साफ करवाना है.
खुद के पैसे से नहर का पानी साफ करवाया
रंगननायकी बताती हैं कि 'पहले मैं लोक-निर्माण विभाग के पास गई और नहर को साफ करने की एक अर्जी दी.' कई बार खत लिखे लेकिन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया.
ऐसे में रंगननायकी ने नहर को साफ करने का जिम्मा अपने कंधे पर लिया. पहले साल रंगननायकी ने अपना खुद का ट्रैक्टर इस्तेमाल किया और मजदूरी के पैसे देकर नहर के एक हिस्से को साफ करवाया ताकि झील से गांव तक पानी पहुंच सके.
वह बताती हैं कि 'बड़ा कठिन और मशक्कत भरा काम था. हमारे चारो तरफ अस्पताल का कचरा, इस्तेमाल किए गए सीरिंज, नजदीक के कसाईखाने का कूड़ा-कर्कट और नालियों का छाड़न भरा पड़ा था. इन सबने नहर को जाम कर रखा था. मैंने जो रकम खर्च की उसका बड़ा हिस्सा मजदूरों के स्वास्थ्य की देखभाल पर व्यय हुआ.'
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अपने प्रयासों के दम पर रंगननायकी ने नहर के 3 किलोमीटर के हिस्से को साफ करवाया. इससे पांच गांवों और 400 एकड़ से ज्यादा खेतों तक पानी पहुंचा.
इसी बीच रंगननायकी के काम की खबर सरकारी अधिकारियों तक पहुंची. उस वक्त कुड्डुलोर में राजेन्द्र रतनू कलेक्टर थे. उन्होंने 2007-08 में नहर की सफाई के लिए 1.75 लाख रुपये मंजूर किए.
रंगननायकी के मुताबिक 'एक बार ऐसा होने के साथ खेती के सीजन में नहर में पानी का छोड़ा जाना एक सरकारी उत्सव में तब्दील हो गया. अब तो हमारे गांव में मंत्री भी आने लगे हैं.'
इसके बाद से रंगननायकी का नाम वीरानाम इलाके के घर-घर में गूंजने लगा है. नजदीक के गांव कदुवुली चवादी के एक भूस्वामी आर कवियारसु हैं. वे कहते हैं कि रंगननायकी ने कोशिश ना की होती तो बीते दस सालों में इलाके के कई किसान आत्महत्या करते.
उन्होंने बताया कि 'हमलोग सरकार के हाथ पर हाथ धर बैठे रहने के कारण ख सहते आ रहे थे. ज्यादातर किसान सरकार की शिकायत करके चुप बैठ जाते थे लेकिन रंगननायकी ने मामले को अपने हाथ मे लिया और बदलाव लाकर दिखाया. ज्यादातर लोग इस साल के सूखे को दोष देते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि फसल तो पिछले साल कम हुई थी.'
ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है रंगननायकी
बीते सालों में रंगननायकी को कई समारोहों में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया है. वे कहती हैं 'मैंने तो स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं की. बस सातवीं जमात तक पढ़ी हूं. लेकिन जब नजर आता है कि मेरी बात कई प्रोफेसर और अन्य किसान सुन रहे हैं तो मन में लगता है कि मैंने सचमुच कुछ अच्छा कर दिखाया है.'
हालांकि रंगननायकी को अपने प्रयास में कामयाबी मिली है लेकिन वे यह भी कहती हैं कि महिला किसान के लिए जिंदगी अब भी आसान नहीं है.
उन्होंने बताया कि 'मैं कई कृषि संघों की सदस्य हूं और वीरानाम लेक राधावैक्कल प्रोटेक्शन एसोसिएशन का मुझे अध्यक्ष भी बनाया गया है लेकिन आज भी कई पुरुषों को मुझे संघ का सदस्य मानने में परेशानी होती है.
कई अवार्ड लेने के लिए उन्हें किसी से बिना बताए जाना पड़ा और वे ध्यान रखती हैं कि ये अवार्ड कहीं लोगों की नजर में ना आ जाएं. वे बात को समझाते हुए कहती हैं 'किसानों में औरतों को लेकर बहुत ज्यादा द्वेष-भावना है. कभी-कभी तो खेतिहर मजदूर तक किसी महिला किसान के लिए काम करना हो तो ज्यादा पैसे मांगते हैं.'
इस सबके बावजूद रंगननायकी ने खेती से लाभ कमाया. ऐसा लगने लगा कि उनकी जिंदगी पटरी पर लौट रही है. लेकिन 2013 में एक बार फिर से विपदा ने इस परिवार पर चोट मारी.
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रंगननायकी की बड़ी बेटी कैंसर से मर गई. इसके तुरंत बाद उनके दामाद का भी देहांत हो गया और बेटी की दो बच्चियां अपनी नानी के देखभाल में आ गईं. रंगननायकी बताती हैं कि 'बेटी की मौत के सदमे से उबरने में मुझे समय लगा लेकिन मुझे लगता है मानो नियति ने इशारा किया हो कि मैं कुछ गलत कर रही हूं.'
इसी समय से उन्होंने अपने खेतों में सिर्फ जैविक फसल उगाना शुरु किया. रंगननायकी कहती हैं कि 'मैं चिदंबरम के एक सेमिनार में शिरकत करने गई थी. वहां एक वक्ता ने मुझे 20 किलो जैविक बीज दिए. मेरे मन में अचानक यह ख्याल कौंधा कि कहीं कीटनाशकों के कारण तो मेरी बेटी को कैंसन नहीं हुआ.'
उन्होंने कहा 'इसलिए, मैंने सिर्फ जैविक फसल उगाने का फैसला किया. अपने इलाके में पहले पहल पूरी तरह से जैविक खेती रंगननायकी ने ही शुरु की. आज वे नजदीक के खेतों के लिए दूसरों को भी जैविक बीज देती हैं ताकि वे भी जैविक खेती की राह अपना सकें. वे कहती हैं.'
बीते दो सालों में जैविक खेती के अभियान के साथ-साथ उन्होंने करुवेल्लम नाम के पेड़ को उखाड़ने के भी एक अभियान का जिम्मा उठा रखा है.
रंगननायकी में कुछ नया करने की चाह थी
रंगननायकी बताती हैं कि 'दो साल पहले एक प्रोफेसर ने मुझे बताया कि करुवेल्लम का पेड़ पानी के सोतों को सोख लेता है. मद्रास के हाईकोर्ट ने तो इस पेड़ को खत्म करने के आदेश बाद में दिए. मैंने इन पेड़ों को उखाड़ना इसके पहले ही शुरु कर दिया था. मैंने निश्चित किया है कि राधावैक्कल गांव के आस-पास करुवेल्लम का कोई पेड़ ना रहे.'
नजदीक के एक गांव के किसान एस शेखर कहते हैं कि रंगननायकी में कुछ नया करने की चाह हमेशा से रही है.
वे बताते हैं 'वह हमेशा कुछ ना कुछ नया करने की कोशिश करती है, वह अपने नुकसान को फायदे में बदल देती है. चाहे गांव में पानी लाने के लिए सरकारी अधिकारियों से लड़ने की बात हो या फिर मकामी मजदूरों को नुकसानदेह पेड़ के सफाये पर लगाने की बात वह हर मोर्चे पर सबसे आगे डटी रहती है. 65 साल की उम्र में भी वह इलाके की सबसे सक्रिय किसान है.'
हालांकि रंगननायकी अपने आस-पास के इलाके के किसानों के अधिकार के लिए पिछले एक दशक से संघर्ष कर रही है लेकिन अबकी का साल उसके लिए अच्छा साबित नहीं हुआ.
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रंगननायकी के मुताबिक 'सूखे के कारण अबकी बार मुझे अपने खेतों से ऊपज नहीं मिली. उम्मीद थी कि कर्नाटक से हमें कुछ पानी मिलेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमारे गांव में भूजल सूख रहा है और जबतक बारिश नहीं होती आसार बदहाली के ही दिख रहे हैं.'
लेकिन अपनी परेशानियों की फिक्र करने के बावजूद रंगननायकी का कहना है कि मैं फिलहाल सोच रही हूं कि फसल से ज्यादा ऊपज लेने के लिए क्या तरीका अपनाया जाय, मन में यह भी लगा है कि खेत को उपजाऊ बनाए रखना है.
इस दरम्यान रंगननायकी ने इलाके के बुजुर्ग और विधवा महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई भी छेड़ रखी है.
वे कहती हैं 'इनमें कइयों को पेंशन नहीं मिलता. चूंकि मुझे पता है कि सरकारी काम कैसे होता है इसलिए मैं उनकी मदद करती हूं. मैं चाहती हूं कि देश की हर विधवा यह समझे कि जीवन पति की मौत के बाद खत्म नहीं हो जाता. दरअसल, पति की मौत के बाद जीवन का सच्चा मकसद खोज निकालने की जरुरत होती है.'
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