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क्या नेशनल मेडिकल कमीशन बिल से बदलेगी भारतीय चिकित्सा व्यवस्था की हालत

अगर आगामी सत्र में यह बिल पास हो गया तो एमसीआई जो चिकित्सा शिक्षा को रेगुलेट करता है उसे समाप्त कर दिया जाएगा और उसकी जगह नेशनल मेडिकल कमीशन का गठन किया जाएगा

Updated On: Jul 11, 2018 09:51 AM IST

Pankaj Kumar Pankaj Kumar

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क्या नेशनल मेडिकल कमीशन बिल से बदलेगी भारतीय चिकित्सा व्यवस्था की हालत

केंद्र सरकार ने संसद के आगामी सत्र में राष्ट्रीय चिकित्सा बिल (एनएमसी बिल) पास कराने का पूरी तरह से मन बना लिया है. एनएमसी बिल के प्रारूप में मामूली फेर-बदल कर सरकार इसे पास कराने के लिए पूरी तरह से तैयार नजर आ रही है. सूत्रों की मानें तो सरकार के सभी महकमे जैसे, स्वास्थ्य विभाग से लेकर कानून मंत्रालय तक ने इसे अमली-जामा पहनाने में भरपूर मदद की है. अगर जरूरत पड़ी तो सरकार इस बिल को लाने में ऑर्डिनेंस तक का भी सहारा ले सकती है.

बिल की प्रमुख बातें

बता दें कि अगर आगामी सत्र में बिल पास हो गया तो भारतीय चिकित्सा परिषद् (MCI), जो कि चिकित्सा शिक्षा को रेगुलेट करता है उसको समाप्त कर दिया जाएगा और उसकी जगह पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (नेशनल मेडिकल कमीशन) का गठन किया जाएगा.

दरअसल इस बिल को लाने के लिए मोदी सरकार ने कुछ साल पहले से ही कवायद शुरू कर दिया था. 15 दिसंबर 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (नेशनल मेडिकल कमीशन) बिल को स्वीकृति दे दी थी. इस बिल का उद्देश्य चिकित्सा शिक्षा प्रणाली को विश्व स्तर के समान बनाने का है.

प्रस्तावित आयोग इस बात को सुनिश्चित करेगा की अंडरग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट दोनों लेवल पर बेहतरीन चिकित्सक मुहैया कराए जा सकें... इस बिल के प्रावधान के मुताबिक प्रस्तावित आयोग में कुल 25 सदस्य होंगे, जिनका चुनाव कैबिनेट सेक्रेटरी की अध्यक्षता में होगा. इसमें 12 पदेन और 12 अपदेन सदस्य के साथ साथ 1 सचिव भी होंगे.

इतना ही नहीं देश में प्राइमरी हेल्थ केयर में सुधार लाने के लिए एक ब्रिज-कोर्स भी लाने की बात कही गई है, जिसके तहत होमियोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सक भी ब्रिज-कोर्स करने के बाद लिमिटेड एलोपैथी प्रैक्टिस करने का प्रावधान है. वैसे इस मसौदे को राज्य सरकार के हवाले छोड़ दिया गया है कि वो अपनी जरुरत के हिसाब से तय करें की नॉन एलोपैथिक डॉक्टर्स को इस बात की आज़ादी देंगे या नहीं.

प्रस्तावित बिल के मुताबिक एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा पूरे देश में एक साथ कराई जाएगी और इसको पास करने वाले ही एलोपैथी प्रैक्टिस करने के योग्य होंगे. दरअसल पहले एग्जिट टेस्ट का प्रावधान था, लेकिन बिल में संशोधन के बाद फाइनल एग्जाम एक साथ कंडक्ट कराने की बात कही गई है.

बिल में प्राइवेट और डीम्ड यूनिवर्सिटीज में दाखिला ले रहे 50 फीसदी सीट्स पर सरकार फीस तय करेगी वही बाकी के 50 फीसदी सीट्स पर प्राइवेट कॉलेज को अधिकार दिया गया है की वो खुद अपना फीस तय कर सकेंगे.

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बिल लाने की वजह

दरअसल सरकार को इस बिल को लाने की जरुरत इसलिए पड़ी क्योंकि मार्च 2016 में संसदीय समिति स्वास्थ्य ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपा था जिसमें भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के ऊपर साफ-तौर पर ऊंगली उठाते हुए इसे पूरी तरह से परिवर्तित करने को कहा था. जाहिर है कि सरकार ने मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए एक समिति का गठन किया और बिल को ड्राफ्ट करने की प्रक्रिया शुरू की गई. इस बिल को तैयार करने के लिए डॉक्टर रणजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में तमाम एक्सपर्ट्स की मदद ली गई साथ ही साथ अन्य स्टेक होल्डर्स की भी राय को खासा तवज्जो दिया गया. इस ड्राफ्ट को नीति आयोग के वेबसाइट पर लोगों की राय के लिए डाला गया.

लेकिन, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) पूरे बिल और आयोग के गठन को लेकर ही विरोध जता रहा है. मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके डॉक्टर अजय कुमार फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं, ‘इस बिल को लाने के पीछे पर्सनालिटी क्लैश मुख्य वजह है. वहीं एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करके पूरे डॉक्टर्स को ब्यूरोक्रेसी के नीचे लाया जा रहा है, जो कि पूरी तरह गलत और भारतीय चिकित्सा को बर्बाद करने की कवायद है.’

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डॉक्टर अजय कुमार भारतीय चिकित्सा परिषद् के महत्वपूर्ण सदस्य भी हैं, जो कि भारतीय चिकित्सा और मेडिकल एजुकेशन के लिए रेगुलेटरी बोर्ड का काम करती रही है.

विरोध की मुख्य वजहें

1- डॉक्टर्स की स्वायत्त संस्था एमसीआई को भंग कर नेशनल मेडिकल कमीशन का गठन करने का प्रावधान

2- एनएमसी का अध्यक्ष कैबिनेट सेक्रेटरी की अध्यक्षता में चुने जाने का प्रावधान

3- 25 में से 21 सदस्य भले ही डॉक्टर्स होंगे, लेकिन इनमें से ज्यादातर डॉक्टर्स मनोनित होंगे. केवल 5 डॉक्टर्स ही चयनित किए जा सकेंगे.

4- 29 राज्यों का प्रतिनिधित्व केवल 5 चयनित डॉक्टर्स द्वारा किए जाने का प्रावधान

5- नॉन एलोपैथी डॉक्टर्स के लिए छह महीने के ब्रिज कोर्स का प्रावधान इस बिल में है, जिसे डॉक्टर्स एसोसिएशन घातक मानता है. वैसे बिल में संशोधन के बाद राज्यों पर छोड़ दिया गया है कि प्राइमरी हेल्थकेयर में सुधार के लिए नॉन एलोपैथिक डॉक्टर्स लिमिटेड एलोपैथिक प्रैक्टिस कर सकते हैं, अगर राज्य सरकार जरूरी समझे तो...

6- प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और डीम्ड यूनिवर्सिटीज के 50 फीसदी छात्रों का फीस प्राइवेट कॉलेज के द्वारा तय किए जाने का प्रावधान. वहीं बाकी के 50 फीसदी सीटों का फीस सरकार तय करेगी. एसोसिएशन इसे जनविरोधी बता रही है.

7- एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा (एक्जीट टेस्ट) का एक साथ कराए जाने का प्रावधान. डॉक्टर्स एसोसिएशन का कहना है कि अपनी ही यूनिवर्सिटीज को नीचे दिखाने की ये कवायद है.

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एमसीआई के सदस्य डॉ अजय कुमार फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं, ‘एक तरफ सरकार यूजीसी को भंग करने की बात करती है. जिसके ज्यादातर सदस्य मनोनीत हैं. वहीं दूसरी तरफ चयनित डॉक्टर्स की बॉडी को भंग कर मनोनीत बॉडी लाने की बात कह रही है. ये अपने आप में विरोधाभास है.’

वहीं दिल्ली के कई अस्पतालों के डॉक्टर्स बिल के मौजूदा मसौदे को लेकर अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे  हैं. इन डॉक्टरों का मानना है कि बिल में कई बातें ऐसी हैं जो आगे चल कर मेडिकल एजुकेशन के लिए घातक साबित होंगी.

दिल्ली के एक मशहूर सरकारी अस्पताल के डॉक्टर नरेश के मुताबिक ‘ब्रिज कोर्स को बिल में पूरी तरह खत्म नहीं किया जाना क्वेकरी को पिछले दरवाजे से कानूनी वैधता देने जैसा है. लिमिटेड एलोपैथी का कंसेप्ट समस्या को सुलझाने की बजाए और उलझाएगा.’

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वैसे बता दें देश में डॉक्टर्स की संख्या का अनुपात बेहद कम है और ये अनुपात 1:1000 की जगह 0.6:1000 है. ऐसे में प्राइमरी हेल्थकेयर की गुणवत्ता के लिए डॉक्टर्स की संख्या बढ़ाया जाना एक बड़ी चुनौती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 61 फीसदी पीएचसी में केवल एक ही डॉक्टर उपलब्ध हैं. वहीं 7 फीसदी बिना डॉक्टर के चल रहे हैं. देश में कुल 5 लाख डॉक्टर्स की किल्लत है. ऐसे में इस चुनौती से निपटना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है. बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश की स्थिती और भी भयावह है. वहां इलाज के लिए दो तिहाई रोगी को झोला छाप डॉक्टर्स का सामना करना पड़ता है.

क्या कहते हैं बिल के समर्थक

ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार ‘आयुष्मान भारत स्कीम’ की मदद से गरीबों का समुचित इलाज का दावा कर रही है. ऐसे में प्राइमरी हेल्थ सेंटर पर समुचित स्टाफ मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती है.

नीति आयोग में एनएमसी बिल से जुड़े एक अधिकारी के मुताबिक ‘आयुष ग्रेजुएट्स को मौका देना सरकार के इसी मंशा की एक कड़ी है जिसके जरिए गरीबों तक basic health care पहुंचाया जा सके. ऐसे में अगर ब्रिज कोर्सेज के जरिए उन्हें लिमिटेड एलोपैथी प्रैक्टिस करने का लाइसेंस दिया जाए तो इसमें कैसी परेशानी है.’

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उन्होंने जोर देकर कहा लिमिटेड एलोपैथी का प्रैक्टिस करने का अधिकार उन्हीं को होगा जिनके पास प्रैक्टिस करने का लाइसेंस होगा. ऐसे में बिल में सख्त प्रावधान है कि क्वैकरी करने वाले को एक साल की सजा और पांच लाख तक का जुर्माना भरना पड़ेगा.

ज़ाहिर सी बात है देश में मौजूदा 7 लाख से ज्यादा झोला छाप डॉक्टर्स से निपटने के लिए बिल में मौजूद प्रारूप बेहद सख्त है. वहीं नीति आयोग के दूसरे अधिकारी कहते हैं कि ब्रिज कोर्स के अवधि को लेकर हंगामा के पीछे वजह बेतुका है.

आयुर्वेद, नर्सिंग, फार्मेसी, फिजियोथेरैपी की पढ़ाई में बहुत सारी चीजें वही पढ़ाई जाती हैं जो एमबीबीएस के सिलेबस में शामिल हैं. ऐसे में फार्मेकॉलॉजी,और बेसिक मेडिसिन में 6 महीने की फॉर्मल ट्रेनिंग देकर लिमिटेड एलोपैथी की प्रैक्टिस कैसे गैरजिम्मेदाराना हो सकती है.

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वैसे इस तरह का प्रैक्टिस विकसित देशों में भी है. फिजिशियन असिस्टेंट (PA) का कंसेप्ट अमेरिका में है. जो कि दो साल के कोर्स और एक परीक्षा पास करने पर डॉक्टर्स के सहायक बन जाते हैं. बांग्लादेश में भी 3 साल की फॉर्मल ट्रेनिंग के बाद 'सब असिस्टेंट कम्यूनिटी मेडिकल ऑफिसर' का तमगा मिल जाता है और प्रैक्टिस करने का लाइसेंस भी. इस तरह का कंसेप्ट चीन और मलेशिया में भी है. जाहिर है विरोध के पीछे की मंशा को बिल से जुड़े लोग उचित नहीं मानते हैं.

स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी के मुताबिक ‘कुछ लोग अपने एकाधिकार को खत्म होने देना नहीं चाहते हैं. वरना क्या वजह है कि मौजूदा रेगुलेटरी बॉडी से देश के जाने-माने डॉक्टर्स दूर रहते है.’

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