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RAW के 'डबल एजेंट' की कहानी, जिसने अमेरिका के लिए की थी देश के साथ गद्दारी

सीआईए ने रबींद्र को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया था. यही नहीं सीआईए ने रबींद्र के अमेरिका में शरण लेने की कोशिशों में भी जमकर बाधाएं डालीं

Updated On: Jul 09, 2018 01:00 PM IST

Yatish Yadav

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RAW के 'डबल एजेंट' की कहानी, जिसने अमेरिका के लिए की थी देश के साथ गद्दारी

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के पूर्व जासूस रबींद्र सिंह के बारे में नया खुलासा हुआ है. रबींद्र सिंह अब इस दुनिया में नहीं है. सरकारी सूत्रों के मुताबिक साल 2016 में अमेरिका के मैरीलैंड में एक सड़क हादसे में रबींद्र सिंह की मौत हो चुकी है. रबींद्र सिंह वही जासूस है, जो देश से गद्दारी करके अमेरिका भाग गया था. दरअसल रबींद्र डबल एजेंट था. वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए को भारत की गुप्त सूचनाएं दिया करता था. लेकिन पोल खुलने के बाद वह साल 2004 में वॉशिंगटन निकल भागा था.

सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने मई 2004 में बड़े ही नाटकीय तरीके से रबींद्र सिंह का काठमांडू से अमेरिका प्रत्यर्पण कराया था. लेकिन अमेरिका ले जाने के कुछ महीनों बाद ही सीआईए ने रबींद्र सिंह की सुध लेना बंद कर दी. सीआईए से पैसे मिलना बंद होने के बाद अमेरिका में रबींद्र को तमाम आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा. यहां तक कि उसे अमेरिका में एक शरणार्थी की तरह जिंदगी बितानी पड़ी. रोजी-रोटी के वास्ते एक अमेरिकी थिंक टैंक में नौकरी पाने के लिए रबींद्र ने दर-दर की ठोकरें खाईं. लेकिन उसे यह नौकरी नहीं मिल सकी क्योंकि सीआईए ने यहां भी रोड़े अटकाए.

खास बात यह है कि रबींद्र ने जिस अमेरिकी थिंक टैंक में नौकरी पाने की कोशिशें की थीं, उसका कर्ताधर्ता सीआईए का एक पूर्व डिप्टी डायरेक्टर था. बेरोजगारी, बेइज्जती और आर्थिक संकट की वजह से रबींद्र गहरे अवसाद (डिप्रेशन) में चला गया था. एक अफसर ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर बताया कि, अपने आखिरी दिनों में रबींद्र सिंह पश्चाताप से भरा हुआ था. देश से गद्दारी करने के पाप का बोझ सहना उसके लिए भारी हो गया था. उसने न्यूयॉर्क, मैरीलैंड और वर्जीनिया में बैरागी और एकांतवासी बनकर 12 साल बिताए. प्रत्यर्पण के बाद रबींद्र के परिवार ने ज्यादातर समय अमेरिका के इन्हीं इलाकों में गुजारा.

सीआईए के  वादे से मुकरने के बाद रबींद्र को लगा बड़ा झटका

अंदरूनी सूत्र ने कहा, 'हम नहीं जानते कि रबींद्र सिंह स्वर्ग में है या नर्क में. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि, वह देश से गद्दारी करने के अपराध बोध से मुक्त नहीं हो सकता था. इस पाप का बोझ सहना उसके लिए तब और मुश्किल हो गया होगा जब सीआईए ने उसकी उपेक्षा करना शुरू की होगी. सीआईए ने रबींद्र को सपने  दिखाए थे कि उसे अमेरिका में गेस्ट ऑफ स्टेट (राजकीय अतिथि) का दर्जा दिया जाएगा. लेकिन साल 2004 खत्म होते-होते सीआईए अपने सभी वादों से मुकर चुकी थी और रबींद्र के सारे ख्वाब चकनाचूर हो चुके थे.

सीआईए ने रबींद्र को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया था. यही नहीं सीआईए ने रबींद्र के अमेरिका में शरण लेने की कोशिशों में भी जमकर बाधाएं डालीं. उसे अमेरिका की कड़कड़ाती ठंड में तन्हा छोड़ दिया गया था. अमेरिका में शरण पाने के लिए रबींद्र ने एक झूठ गढ़ा था. उसने अमेरिका में रहने वाले अपने रिश्तेदारों से कहा था कि भारत में उसकी जान को खतरा है. लिहाजा वे उसे अमेरिका में शरण दिलाने में मदद करें.

अमेरिका में रहने वाले रिश्तेदार रबींद्र के झांसे में आ गए. रबींद्र के विश्वासघात के बारे में तमाम बातें सार्वजनिक होने के बावजूद उन्होंने उसका समर्थन किया और अमेरिका में शरण लेने में पूरी मदद की. इन रिश्तेदारों की नजर में रबींद्र एक प्यारा और दयालु इंसान था. रबींद्र को भारत वापस लाने के लिए रॉ ने जी-जान लगा दी थी. रॉ की ये कोशिशें साल 2007 तक जारी रहीं. उसके बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया. अब रबींद्र की मौत के खुलासे के बाद यह केस लगभग बंद मान लिया जाएगा. जाहिर है रबींद्र सिंह ने देश के साथ जो विश्वासघात किया और जिस तरह से भारत की खुफिया एजेंसियों को गच्चा दिया उसे रॉ अब भूलना चाहेगा.

सीआईए के चंगुल में कैसे फंसा रबींद्र सिंह

रबींद्र सिंह भारतीय सेना में मेजर हुआ करता था. 1980 के दशक के मध्य में उसे डेप्यूटेशन पर रॉ में शामिल किया गया था. रॉ में शामिल होने के बाद रबींद्र सिंह लगातार तरक्की करता रहा और कई महत्वपूर्ण पदों पर तैनात रहा. रबींद्र की पदोन्नति का सिलसिला सीआईए से जुड़ने तक जारी रहा. हालांकि यह बात अभी तक साफ नहीं हो पाई है कि रबींद्र कब सीआईए के चंगुल में फंसा और कब डबल एजेंट बना. सूत्रों का दावा है कि, 1990 के दशक की शुरुआत में जब रबींद्र रॉ के दमिश्क या हेग स्टेशन पर तैनात था शायद तभी सीआईए ने उस पर डोरे डाले. रबींद्र को देश से गद्दारी करने के लिए राजी करने में सीआईए की एक महिला केस अफसर की भूमिका अहम मानी जाती है.

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सूत्र का कहना है कि, 'हमारा शुरू से यह मानना है कि रबींद्र सिंह आसानी से सीआईए के चंगुल में नहीं फंसा होगा. रॉ में उसके दखल और रुतबे को देखते हुए यह भी कहना मुश्किल है कि उसे पैसों का लालच देकर फंसाया गया होगा. हमें लगता है कि सीआईए ने रबींद्र सिंह को शायद हनी ट्रैप के जरिए अपने चंगुल में लिया. रबींद्र सिंह को डबल एजेंट बनाने और उसे सीआईए में भर्ती करने की प्रक्रिया काफी लंबी थी.

सीआईए ने रबींद्र को बहुत होशियारी के साथ ट्रेनिंग दी थी. रबींद्र को खासकर इस बात का प्रशिक्षण दिया गया था कि वह हैंडलरों को संपर्क किए बिना ही सुरक्षित तरीके से खुफिया दस्तावेजों को सीआईए तक भेज सके. विदेश में तैनाती खत्म होने और भारत लौटने के बाद भी रबींद्र का यह सिलसिला जारी रहा. वह बिना हैंडलरों को संपर्क किए खुफिया डॉक्यूमेंट्स सीआईए को ट्रांसमिट करता रहा.

इस दौरान रबींद्र अक्सर नेपाल की यात्रा पर जाया करता था. रबींद्र की लगातार नेपाल यात्राओं का मकसद सीआईए एजेंटों से उसकी गुप्त मुलाकात और उनसे पैसे प्राप्त करना माना जाता है. दूसरे अन्य मामलों के विपरीत रबींद्र को कभी अपने हैंडलर से मिलने या खुफिया कागजात की डिलीवरी करने के दौरान पकड़ा नहीं जा सका. रबींद्र के फरार होने के बाद जांच में पता चला कि सीआईए के अफसरों ने अमेरिका में उसके बच्चों को भी पैसे पहुंचाए थे. जांच में यह भी सामने आया था कि रबींद्र के पास आय से कहीं ज्यादा संपत्ति थी. अब यह बात तो हर कोई जानता है कि रॉ के लिए काम करते हुए रबींद्र ने अकूत दौलत जमा की थी.' 

रबींद्र सिंह रॉ के अपने साथी जासूसों से खुफिया जानकारियां इकट्ठा करता था और फिर उन्हें हैंडलर के जरिए वर्जीनिया के लैंगली स्थित सीआईए के हेड ऑफिस को भेज देता था. अमेरिकी खुफिया एजेंसी को भारत की खुफिया जानकारियां और दस्तावेज भेजने का यह सिलसिला रबींद्र के भारत लौटने पर भी जारी रहा. जिस तरह वह विदेश में तैनाती के दौरान भारत की खुफिया जानकारी सीआईए को पहुंचाया करता था, उसी तरह वह भारत में तैनाती के दौरान भी करता रहा.

रॉ के सामने कैसे खुला था रबींद्र का राज?

दिसंबर 2003 में रॉ को रबींद्र पर शक हुआ. रॉ को जानकारी मिली कि रबींद्र अमेरिका का भेदिया बन चुका है. जिसके बाद रॉ के काउंटर इंटेलिजेंस एंड सिक्योरिटी डिवीजन (सीआईएस) ने रबींद्र की गतिविधियों की निगरानी शुरू की. जनवरी 2004 में सीआईए ने रबींद्र के ऑफिस और डिफेंस कॉलोनी स्थित घर पर जासूसी उपकरण लगाकर पड़ताल आगे बढ़ाई. जांच में पता चला कि रबींद्र सिंह रॉ के विभिन्न सूत्रों से खुफिया जानकारियां इकट्ठा कर रहा था.

इन खुफिया जानकारियों को वह सीआईए को भेज रहा था. 4 महीने की लंबी निगरानी के बाद रबींद्र की कलई खुल गई. वह भारतीय सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के आगे घुटने टेकने ही वाला था कि सीआईए ने उसे भारत से भगाने की योजना बना डाली. इसके बाद ही रबींद्र के अमेरिका में प्रत्यर्पण का ड्रामा रचा गया.

सूत्रों के मुताबिक, रबींद्र सिंह 1 मई 2004 की रात को अपने दोस्त की कार से भारत से भागकर नेपाल चला गया था. उस समय नेपाल में सीआईए के तत्कालीन ऑपरेटर डेविड वैकला ने रबींद्र को सभी सुविधाएं मुहैया कराईं थीं. डेविड वैकला अब फ्लोरिडा स्थित एक इंटेलिजेंस एंड डिफेंस सर्विसेज ट्रेनिंग कंपनी के लिए काम करता है.

रबींद्र सिंह को भारत से भागने में मदद करने के दौरान वैकला एक बड़ी गलती कर बैठा था. उसने रबींद्र के ठहरने के लिए नेपालगंज में होटल का जो कमरा किराए पर लिया था उसकी बुकिंग उसने अपने नाम पर की थी. यही नहीं रबींद्र सिंह और उसकी पत्नी के लिए खरीदे गए हवाई टिकटों का बिल भी काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में वैकुला के पते पर भेजा गया था. रबींद्र और उसकी पत्नी को सीआईए ने नेपाल में अपने सेफ हाउस में रखा था. इस बीच 7 मई 2004 को सीआईए ने रबींद्र और उसकी पत्नी के लिए राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमार शर्मा के नाम से दो फर्जी पासपोर्ट तैयार कराए.

इन अमेरिकी पासपोर्ट के जरिए ही रबींद्र और उसकी पत्नी नेपाल से अमेरिका भागने में कामयाब रहे. काठमांडू से हवाई जहाज पकड़कर दोनों वाशिंगटन हवाई अड्डे पर उतरे. जहां सीआईए के एक ऑपरेटिव ने दोनों को इमीग्रेशन काउंटर से निकलने में मदद की. इसके लिए दोनों को अस्थाई आईडी प्रदान की गईं थीं. इन अस्थाई आईडी में रबींद्र सिंह और उसकी पत्नी की मूल पहचान पूरी तरह से मिटा दी गई थी.

रबींद्र के अमेरिका भागने की खबर मिलते ही रॉ हरकत में आई. रॉ के तत्कालीन चीफ ने सीआईए पर दबाव बढ़ाया. इसके साथ ही भारत में सीआईए के स्टेशन चीफ को भी समन किया गया. हालांकि भारत में सीआईए के स्टेशन चीफ ने रबींद्र सिंह के बारे में किसी भी तरह की जानकारी होने से साफ इनकार कर दिया था. रॉ ने तब नकली पासपोर्ट की फोटोकॉपी, वैकला के नाम पर यात्रा बिल और सेक्योर फाइल ट्रांसफर प्रोटोकॉल का इस्तेमाल करके रबींद्र द्वारा सीआईए को भेजे गए कुछ खुफिया दस्तावेजों की कॉपी समेत कई सबूत उसके साथ साझा किए. लेकिन तब भी सीआईए का स्टेशन चीफ रबींद्र से अनजान बनने का नाटक करता रहा.

रॉ ने जब रबींद्र के दो लैपटॉप की फोरेंसिक जांच कराई तो पता चला कि उसने 20,000 से ज्यादा खुफिया फाइलें सीआईए को भेजीं थीं. लेकिन अमेरिकी खुफिया अधिकारियों ने भारत के आरोपों से साफ इनकार कर दिया.

रबींद्र के भारत से भागने के कुछ महीने बाद, सुरेंद्र जीत सिंह नाम के एक शख्स ने खुद को रॉ का एजेंट बताते हुए अमेरिका में शरण के लिए आवेदन किया था. रॉ के अफसरों को पूरा यकीन है कि सुरेंद्र जीत सिंह कोई और नहीं बल्कि रबींद्र ही था. उसने ही नाम और पहचान बदलकर अमेरिका में शरण लेने के लिए आवेदन किया था. लेकिन इमीग्रेशन जज ने उस आवेदन को खारिज कर दिया था.

यही नहीं बोर्ड ऑफ इमिग्रेशन अपील बोर्ड ने जिरह करते हुए कहा था कि शरण की मांग करने वाले आवेदक ने जो तथ्य प्रस्तुत किए वे विश्वसनीय नहीं हैं. बाद में सुरेंद्र जीत सिंह नाम के उस शख्स ने इमीग्रेशन जज के फैसले के खिलाफ अमेरिकन कोर्ट ऑफ अपील नाइंथ सर्किट कैलीफोर्निया का दरवाजा खटखटाया था. जहां सर्किट जज ने पहले वाले फैसलों को पलट दिया था. सर्किट जज ने बोर्ड को उस मामले की दोबारा जांच करने के निर्देश भी दिए थे. हालांकि बाद में सीआईए के उदासीन रवैए के चलते इस मामले की कानूनी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ सकी.

जासूसी का अंदरूनी खेल

जांच के दौरान पता चला की शीर्ष रैंक के कई अफसरों समेत रॉ के 57 अफसर रबींद्र के साथ नियमित रूप से खुफिया जानकारियां साझा किया करते थे. मामले की गहन छानबीन या यूं कहें कि केस के पोस्टमॉर्टम से खुलासा हुआ कि, रॉ के लगभग दो दर्जन अफसर रबींद्र के साथ मिलकर सीआईए के हेडऑफिस लैंगली को खुफिया जानकारियां भेजने में शामिल थे. लेकिन इस मामले में रॉ के किसी भी अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई थी.

उन सभी अफसरों का गुपचुप तरीके से कमजोर और महत्वहीन स्टेशनों पर तबादला कर दिया गया था. कहा जाता है कि उन अफसरों के साथ ऐसा इसलिए किया गया था ताकि वे देश की खुफिया सूचनाएं एक गद्दार के साथ साझा करने के अपराधबोध के साथ जिएं.

सर्विलांस (निगरानी) के ऑडियो-वीडियो टेपों से रबींद्र सिंह का विरोधाभासी व्यक्तित्व भी सामने आया था. रबींद्र जब अमेरिका में पढ़ रहे अपने बच्चों के साथ फोन पर बातचीत करता था, तब वह उन्हें नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया करता था. रबींद्र और उसके बच्चों के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के सैकड़ों टेप रॉ के पास मौजूद हैं.

हालांकि उस वक्त रॉ चीफ सीडी सहाय ने रबींद्र की निगरानी और बाद में उसकी जांच का बचाव किया था. जबकि उस समय ऐसी कानाफूसियां जोरों पर थीं कि रॉ मुख्यालय का एक अफसर अक्सर रबींद्र से मिला करता था. ऐसा शक है कि शायद उसी अफसर ने जानबूझकर रबींद्र को रॉ की क्लासिफाइड जानकारी मुहैया कराईं हों.

रबींद्र के फरार होने के बाद मीडिया में खासा हल्ला मचा था. वहीं खुफिया समुदाय के बीच रबींद्र के विश्वासघात और उससे देश को होने वाली क्षति के बारे में जमकर बहस छिड़ी थी. यही नहीं तब विदेश में तैनात रॉ के कई जासूसों का तबादला भी कर दिया गया था. रॉ को डर था कि रबींद्र ने कहीं अमेरिकी खुफिया एजेंसी को विदेश में तैनात भारत के अंडरकवर एजेंटों के नाम जाहिर न कर दिए हों.

इसके अलावा रॉ ने विदेश में अपने कुछ महत्वपूर्ण सूत्रों को काम से हटा दिया था. भारत सरकार ने रबींद्र की गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण की कोशिशों को साल 2007 में खत्म कर दिया था. अमेरिकी सरकार ने कभी भी रबींद्र सिंह की सीआईए में भर्ती और उसके अमेरिका में होने की बात स्वीकार नहीं की.

खुफिया समुदाय के एक वर्ग का मानना है कि, तत्कालीन रॉ चीफ सहाय ने तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा को बताया था कि रबींद्र सीआईए का भेदिया था. इसके बाद ही ब्रजेश मिश्रा ने रबींद्र की गिरफ्तारी से अपने कदम वापस खींच लिए थे. यानी उन्होंने रबींद्र की गिरफ्तारी में रुचि लेना बंद कर दिया था.

सूत्रों के मुताबिक, ब्रजेश मिश्रा ने रबींद्र के मामले में कुछ भी नहीं किया. यही वजह है कि तब भारत में सीआईए का नेटवर्क उजागर होने से बच गया. हालांकि रबींद्र सिंह की गद्दारी को भुलाया नहीं गया था और न ही उसपर कोई रियायत बरती गई थी. रबींद्र सिंह के नियंत्रकों के लिए वह किसी सामरिक महत्व का नहीं रह गया था. वैसे यह विडंबना ही है कि, एक कुख्यात जासूस जो बातचीत में अक्सर धर्म ग्रंथों का हवाला दिया करता था, वह अपनी मातृभूमि को धोखा देने के गहरे सदमे और पापों का बोझ लेकर मरा.

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