बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार और एलजी के अधिकारों के बीच एक लकीर खींच दी थी या फिर यूं कह सकते हैं कि इसकी व्याख्या कर दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि एलजी दिल्ली के मुखिया जरूर हैं, लेकिन उनके अधिकार का एक दायरा है. सुप्रीम कोर्ट ने एलजी की तुलना में चुनी हुई सरकार को ज्यादा अहमियत दी थी.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी दिल्ली सरकार और एलजी के बीच विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. इस फैसले के कानूनी पहलुओं पर लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. देश के वित्त मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील अरुण जेटली ने भी इस फैसले पर अपनी राय रखी है. अरुण जेटली ने साफ कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली सरकार के हक में नहीं गया है. दिल्ली सरकार के पास पुलिस का अधिकार नहीं है ऐसे में वह पूर्व में हुए अपराध के लिए जांच एजेंसी गठित नहीं कर सकती.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मंत्रिमंडल को अपने हर फैसले की सूचना एलजी को देनी होगी. सुप्रीम कोर्ट ने साथ में ये भी कहा था कि दिल्ली की जनता के हित में दोनों को मिलजुल कर काम करना चाहिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अगले दिन से ही एलजी और दिल्ली सरकार में ठन गई है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले बाद से ही आप सरकार ने कुछ ऐसे निर्णय लेने की शुरुआत कर दी, जिससे विवाद थमने के बजाए और बढ़ने लगा. कानून के जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने एलजी और सीएम को नसीहत देते हुए यह फैसला सुनाया था, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल दिल्ली की संवैधानिक स्थिति पर व्याख्या दी है. पिछले साल अगस्त में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दिल्ली सरकार की अपीलों पर अब भी फैसला नहीं सुनाया है. दिल्ली हाईकोर्ट में अब भी दिल्ली सरकार की तरफ से लंबित 6 अपीलों पर सुनवाई होने वाली है. ऐसे में दिल्ली सरकार और एलजी के अधिकार की व्याख्या अभी आनी बाकी है.
बता दें कि 5 अगस्त 2016 को दिल्ली हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी और न्यायमूर्ति जयंत नाथ की खंडपीठ ने उपराज्यपाल को दिल्ली का असली बॉस बताया था. मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने आप सरकार की दलील खारिज कर दी थी कि उपराज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना चाहिए. इस फैसले में कहा गया था कि दिल्ली के एलजी के पास अन्य राज्यों के राज्यपाल के मुकाबले व्यापक विवेकाधीन शक्तियां हैं. हर हालत में कैबिनेट के फैसले की जानकारी और सहमति के लिए फाइल एलजी के पास भेजनी ही होगी. हाईकोर्ट ने दिल्ली में उपराज्यपाल को सीएम से ज्यादा पावरफुल करार दिया था.
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से लग रहा था कि कैबिनेट के कुछ फैसलों को छोड़ कर दिल्ली में एलजी की मनमर्जी अब नहीं चलेगी. सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से साफ लग भी रहा था, लेकिन जब लड़ाई दिल्ली का असली बॉस बनने को लेकर हो तो कोई भी पक्ष जल्दी झुकने को तैयार नहीं नजर आ रहा है.
पिछले साल नवंबर में जब इस मामले पर सुनवाई हुई तो दिल्ली सरकार के समर्थन में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि जनता ने जिस सरकार को चुना है, उस सरकार के फैसलों को एलजी की ओर से रोकना सही नहीं मान सकते. उस समय जस्टिस चंद्रचूड़ ने दिल्ली सरकार को भी नसीहत दी थी कि उसे अपनी हदों में रहकर ही काम करना चाहिए.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा था कि राजकाज, पुलिस और जमीन का मसला दिल्ली सरकार के पास नहीं हैं. इन पर केंद्र का अधिकार है. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी इस केस में अपनी राय दे चुके हैं. सीजेआई मिश्रा ने कहा है कि दिल्ली में कामकाज के कायदे-कानून पहले ही बने हुए हैं. सरकार तो बस उन्हें लागू करती है. जहां नियम नहीं है, वहां दिल्ली सरकार नियम बना सकती है लेकिन केंद्र यानी राष्ट्रपति की मंजूरी लेने के बाद.
बता दें कि संविधान के अनुच्छेद-239 एए का मसला केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच फंसा हुआ है. दिल्ली सरकार का कहना है कि इस अनुच्छेद को हल्के में परिभाषित नहीं कर सकते जिससे कि उसका मुख्य मकसद ही बेकार हो जाए. अनुच्छेद-239 एए के तहत ही दिल्ली को विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त है.
दरअसल, अनुच्छेद- 239 एए की व्याख्या से ही तय होगा कि दिल्ली में किसका राजकाज चलेगा. इसकी व्याख्या यह तय करेगी कि दिल्ली में प्रशासनिक अधिकार किसके पास रहेंगे. एलजी के पास या मुख्यमंत्री के पास. 239 एए के मुताबिक दिल्ली में चुनी हुई सरकार होगी जो जनता के लिए जवाबदेह होगी.
जबकि, आप सरकार की शिकायत थी कि इस अनुच्छेद के मुताबिक उसे अधिकार नहीं मिलते. इस अनुच्छेद के मुताबिक, कैबिनेट के फैसले से अगर एलजी सहमत नहीं हों तो मामला राष्ट्रपति के पास चला जाता है. फिर फैसले लेने में एलजी ही प्रमुख जिम्मेदारी निभाते हैं.
23 सितंबर 2015 को सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग को चुनौती देने वाली याचिका, दानिक्स अधिकारियों को आदेश नहीं मानने, केंद्र की अधिसूचना और डिस्कॉम में निदेशकों की नियुक्ति और एसीबी के अधिकारों को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई शुरू हुई थी. 24 जुलाई 2016 को हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था.
बृहस्पतिवार को अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर सभी पक्षकारों से आग्रह किया है कि वे एलजी और दिल्ली सरकार के बीच शक्तियों के बंटवारे पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश लागू करें और मिल कर सभी के साथ काम करें. सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के बाद अधिकारों की इस जंग में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार ज्यादा उत्साहित नजर आ रही है.
इसी उत्साह के बूते अरविंद केजरीवाल ने बृहस्पतिवार को एलजी अनिल बैजल से मिलने का एक बार फिर से वक्त मांगा है. अरविंद केजरीवाल ने उपराज्यपाल को पत्र के जरिए कहा है कि अब किसी भी मामले में आपकी (एलजी) की सहमति की जरूरत नहीं होगी. वहीं दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल की मुश्किलें को दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने बढ़ा दिया है. दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने सीएम, डिप्टी सीएम और सरकार के मंत्रियों को उनके ट्रांसफर पोस्टिंग की शक्ति दिए जाने के संबंध में किसी भी निर्देशों का पालन करने से इनकार कर दिया है. यह शक्ति अभी एलजी के पास है.
कुलमिलाकर दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारों की लड़ाई खत्म होती नहीं दिख रही है. एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि अफसर सुप्रीम कोर्ट का कहना नहीं मान रहे हैं. ऐसे में लोकतंत्र कैसे चलेगा. अब सवाल यह उठता है कि दिल्ली सरकार को इतने विकास के काम करने से पहले ट्रांसफर पोस्टिंग का मुद्दा ही क्यों सूझ रहा है. अभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 24 घंटे भी नहीं हुए कि दिल्ली सरकार जल्दबाजी में दिखाई देने लगी है.
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