हाल ही में केंद्र सरकार ने ऐलान किया कि देश के सभी गांवों तक बिजली पहुंचा दी गई है. ये बात बेहद गर्व की है. लेकिन इस घोषणा के कुछ दिन बाद अब एक और रिपोर्ट सामने आई है, जो दर्शाती है कि बिजली तो पहुंच गई. लेकिन देश के ज्यादातर छोटे शहर ही सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं.
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 शहर भारत के हैं. रिपोर्ट एक चीज और दिखलाती है और वो ये है कि बिजली पैदा करने वाले उद्योग ही प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट सामने आने के बाद पर्यावरण कार्यकर्ता चीखेंगे-चिल्लाएंगे और कुछ लोगों में इसे लेकर निराशा और चिंता देखने को मिलेगी. लेकिन अब सिर्फ इतने से ही काम नहीं चलेगा, जरूरत है सख्त कार्रवाई की.
भारत में पहले 1991 तक समाजवादी नीतियों का पालन किया गया, जिसे नेहरूवियन (नेहरूवादी) कहा जाता है. लेकिन इसके बाद बाजार तेजी से उदारवाद की तरफ बढ़ा. इंडस्ट्री लगी. ग्लोबलाइजेशन को बढ़ावा मिला. दोनों नीतियों में इससे होने वाले नुकसान की बजाए विकास और ब्लू कॉलर जॉब्स पर ज्यादा फोकस किया गया.
आज नतीजे हमारे सामने हैं. नदियां दिन-ब-दिन दूषित होती जा रही हैं और शहरों में सांस लेना मुश्किल हो चुका है. बड़े शहरों के साथ छोटे शहरों की हवा जहरीली हो गई है.
जिस चीज को भारत के लिए नीतियां बनाने वालों ने लंबे समय तक नजरंदाज किया है. अब उस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. बिजनेस को मजबूत करने वाली माइक्रोइकनॉमिक्स और विकास को बढ़ावा देने वाली माइक्रोइकनॉमिक्स के बीच एक चीज सामान्य है कि इन दोनों का ही सामाज और पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है. और इसे भारतीय अर्थशास्त्रियों ने नजरंदाज किया है.
एक निबंध में भारत में वायु प्रदूषण को संक्षेप में समझाया गया है. यहां बताया गया है कि ओद्यौगिक विकास का समाज और पर्यावरण पर कितना बुरा असर पड़ा है.
एक लेखक ने दिल्ली सरकार के ऑड-ईवन फॉर्मूले पर चर्चा करते हुए कहा कि हमें इस मामले में गंभीरता से सोचने की जरूरत है. चीजों के दाम उसकी डिमांड और सप्लाई पर निर्भर करते हैं. उसको बनाने में निर्माता को क्या लागत आई और लोग उस चीज के लिए कितनी रकम चुकाने को तैयार हैं. लेकिन इन चीजों से अक्सर तीसरी पार्टी (पर्यावरण) को नुकसान होता है, जिसका निर्माता और उपभोक्ता से लेना देना नहीं होता है.
हमें डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट को चेतावनी के रूप में लेना चाहिए. ये हमें अर्थशास्त्री जॉन मेयनार्ड की बात याद दिलाती है कि आने वाले समय में हम सब मर जाएंगे.
आज इकनॉमिस्ट दिल्ली और मुंबई की हवा से भी गंदे हो गए हैं, क्योंकि उन पर एक बेहतर नीति बनाने का दबाव है. गरीबों को नौकरियां चाहिए और नेताओं को उसके लिए श्रेय चाहिए. निवेशकों और उद्यमियों को अपने लिए पैसा बनाना है. पर किसी को भी आने वाली पीढ़ी के भविष्य की चिंता नहीं है.
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