तो इस देश में सीआरपीएफ के लोगों के खिलाफ दर्जनों एफआईआर लिखा देने भर से जबावदेही तय हो जाती है?
लालबत्ती और चिंघाड़ते साइनबोर्ड वाली गाड़ियों में बैठने वाले वीआईपी लोगों को जमीनी हालात बिल्कुल नहीं दिखाई देता. क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे देश को इस सवाल का जवाब दें कि आखिर पिछले पांच महीनों से किसी नींद में सोए हुए हैं?
जिन लोगों को जमीनी हालात की जानकारी है वे कम से कम पिछले एक साल से एक बात अच्छी तरह समझ गए हैं. वह यह कि हम बड़े ही निर्दयी तरीके से कश्मीर में खतरनाक हालात की तरफ बढ़ रहे हैं.
ये हालात कई साल से बिगड़ते ही चले जा रहे हैं और इसकी शुरुआत साल 2008 में हुई. किसी को नहीं पता है कि कश्मीर में इस साल क्या होने जा रहा है. न खुफिया अधिकारियों को और न ही उन नेताओं को जिन्हें जनता की नब्ज का पता होना चाहिए.
नामी गिरामी रक्षा और 'सुरक्षा' विश्लेषक भी पूरी तरह बेखबर हैं और 'थिंकटैंक' भी कुछ नहीं सोच पा रहे हैं. ना ही किसी ने इस बारे में पता लगाने की कोशिश की है- ऐसे में कोई रणनीतिक कदम उठाना तो बहुत दूर की बात है.
किसकी गलती
पुलिस और खुफिया जानकारियों से लैस राज्य और केंद्र की सरकारों ने चुनाव आयोग को यह बताना जरूरी नहीं समझा कि उपचुनाव कराने के लिए माहौल सही नहीं है.
हालांकि...यह स्पष्ट था कि उपचुनाव अप्रैल की शुरुआत में कराया जाना है. लेकिन जैसे ही आयोग ने चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की तो खुफिया अधिकारियों के भी कान खड़े हो गए.
उन्होंने तुरंत चुनाव आयोग को बताया कि चुनाव के लिए समय सही नहीं है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि अगर फिर भी चुनाव कराने हैं तो सीआरपीएफ की 60 कंपनियां और कई दूसरी चीजों की जरूरत होगी.
आयोग ने फैसला किया कि चुनाव के लिए 40 कंपनियां पर्याप्त होंगी और चुनाव की प्रक्रिया शुरू कर दी गई. लेकिन, हाइवे पर भारी बर्फबारी...बारिश और भूस्खलन के कारण इन 40 कंपनियों में से बहुत सी कंपनियां चुनाव वाले दिन तक फंसी रहीं.
(कुछ कंपनियों की तैनाती तो चुनाव वाली सुबह को ही हुई और उन्हें आराम करने या हालात को जानने समझने का मौका भी नहीं मिला). इतना सब होने के बावजूद चुनाव को स्थगित करने की जरूरत नहीं समझी गई.
ऐसे में एक मतदान केंद्र पर तैनात आधा दर्जन पुलिस और सीआरपीएफ कर्मियों से भला उम्मीद भी क्या की जा सकती है. खासकर, तब जबकि उन पर जोशीली और पथराव करने वाली भीड़ ने हमला किया हो? निश्चित तौर पर दोष इन लोगों को यहां तैनात करने वालों की है.
अब...जबकि इतनी सारी जानें चली गई हैं तो या तो उन लोगों को इस्तीफा देना चाहिए जिन्होंने ऑर्डर दिया और ये हालात बने या फिर अगर उन्हें पता था कि हालात इतने ही खराब थे तो फिर वे यह बताएं कि आखिर उन्होंने यहां चुनाव कराए ही क्यों?
इसी देश में कभी लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग भी होते थे जिन्होंने एक दुर्घटना के बाद रेलमंत्री का पद छोड़ दिया था जबकि वह सिर्फ एक हादसा था. यहां तो हम पूरे संकट का सामना कर रहे हैं.
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हद से पार
हमें यह बात खुल कर कहनी चाहिए कि हमारे मौजूदा शासकों ने किस हद तक अक्षमता का परिचय दिया है.
पठानकोट हमला, उग्रवादी कमांडर बुरहान वानी की मौत, फिर उसके बाद के हालात और फिर इस साल वहां के घटनाक्रम पर यहां के शासक वर्ग का जो रवैया है उससे सिर्फ अक्षमता ही झलकती है.
ये मुमकिन है कि इस साल कश्मीर में और ज्यादा मौतें और तबाही देखने को मिल सकती है.
हमें अपने शासकों और उन सांसदों से देश से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर सवाल पूछने होंगे जो एयरलाइन के कर्मचारियों को चप्पल से पीटते हैं.
वे नेता जो एंबुलेंस में लोगों की जान को सिर्फ इसलिए जोखिम में डालने से नहीं हिचकते क्योंकि उस वक्त उनकी गाड़ियों का काफिला सड़कों से गुजर रहा होता है.
अपने शासकों के नकारेपन से आंखें फेर लेने से काम नहीं चलेगा. चुनाव वाले दिन ड्यूटी पर तैनात सीआरपीएफ कर्मियों को दोष देना भी ठीक नहीं है. यह बात सिर्फ उस एक बुरे इतवार की नहीं है. आगे बहुत कुछ इससे भी बुरा हो सकता है.
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