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अस्पतालों में बच्चों की मौत के सिलसिले से धुंधला जाएगा 'न्यू इंडिया' का सपना

विरोधाभास से भरे इस देश में बुनियादी जरूरतें जब आज भी दम तोड़ती हों तो फिर किस जश्न की बदगुमानी में हम डूबे रहते हैं

Updated On: Aug 31, 2017 08:38 AM IST

Kinshuk Praval Kinshuk Praval

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अस्पतालों में बच्चों की मौत के सिलसिले से धुंधला जाएगा 'न्यू इंडिया' का सपना

आजादी के 70 साल बाद भी देश में हर एक मिनट में दो बच्चे दम तोड़ें तो न्यू इंडिया की कल्पना आसमान से तारे तोड़ने जैसी ही लगती है. झारखंड के जमशेदपुर अस्पताल, गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल और फर्रुखाबाद के लोहिया अस्पताल में बच्चों की मौत के आंकड़े देखने के बाद विकास की हर बात बेमानी हो जाती है.

जिस देश में एक साल में सही और समय पर इलाज न मिलने से 10 लाख बच्चों की मौत हो जाए तो फिर अस्पताल और सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय तक बीमार से दिखाई देते हैं.

डॉक्टरों और अस्पतालों के गैरजिम्मेदाराना रवैये को देखते हुए राज्य सरकारों के सिर्फ हेल्थ केयर के लिए फंड अलॉट कर देने भर की रस्म अदायगी से इस मुल्क में नवजात बच्चों की तकदीर नहीं बदली जा सकती.

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अस्पतालों में नवजात बच्चों की मौत का सिलसिला बदस्तूर जारी है. गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से हुई 63 बच्चों की मौत के बाद अब पिछले 3 दिनों में 61 बच्चों की मौत हो गई है. बीआरडी के ऑक्सीजन कांड के बीस दिन बाद ही अस्पताल में 61 बच्चों की मौत सरकार और स्वास्थ्य सेवाओं का दावा करने वाली सरकार के लिए शर्मनाक है जिस पर कोई भी सफाई नामंजूर है.

इंसेफेलाइटिस को सालाना मेहमान मानना बंद करें अस्पताल

मरने वाले 11 बच्चे जापानी इंसेफेलाइटिस के शिकार थे जबकि बाकी बच्चे दूसरी बीमारियों से पीड़ित थे. इंसेफेलाइटिस कोई लाइलाज बीमारी नहीं है लेकिन जिस तरह से जापानी बुखार को रहस्यमय बताकर बच्चों की मौत पर पर्दा डाला जाता रहा है वो जरूर डॉक्टरी पेशे की मरती हुई संवेदनाओं के प्रति सवाल खड़े करता है.

अस्पताल प्रशासन इंसेफेलाइटिस को सालाना मेहमान मानता है और जुलाई, अगस्त, सितंबर के मौसम में इसे सामान्य मानता है.  इसके इलाज को लेकर बरती गई कोताही और कमियों पर हर मौसम की सरकारें चुप रहने का काम करती आई हैं.

गोरखपुर में बच्चों की मौत आंकड़ों का कफन ओढ़ चुकी हैं तो जमशेदपुर के महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में पिछले 3 दिनों में 53 नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है. यहां भी अस्पताल प्रशासन के पास पेशेवर दलील है. दलील ये कि कुपोषण की शिकार माओं की वजह से बच्चों की मौतें हुई हैं. यानी अस्पताल प्रशासन कम वजन के नवजात बच्चों की मौत का जिम्मेदार नहीं है?

अगर ये दलील मान भी ली जाए कि बच्चों की ये मौतें कुपोषण की वजह से हुईं तो इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकार की बनती है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के 2015-16 की एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में 5 साल तक के 47.8 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.

झारखंड के एमजीएम अस्पताल में 2 महीनों में सौ से ज्यादा बच्चों की मौत ने मानवाधिकार आयोग तक को चौंका दिया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कुपोषण के कारण बच्चों की मौत पर झारखंड सरकार को नोटिस जारी कर छह हफ्तों के अंदर रिपोर्ट की मांग की है.

Female ward inmates at Ranchi Institute of Neuro-Psychiatry & Allied Sciences (RINPAS) getting training in tailoring, embroidery, paper bag making, cane basket making and knitting at the rehabilitation Centre, inside the hospital premises.Photo By-Mahadeo Sen

जुलाई में भर्ती हुए 546 बच्चों में से अब तक 60 बच्चों की मौत हो चुकी है. अगस्त महीने में अब तक 41 शिशुओं की मौत हुई है जिसमें से 33 नवजात हैं. सबसे ज्यादा मौत जन्म के समय दम घुटने की वजह से हुई हैं.

नवजात बच्चों की सिसकियों की कद्र नहीं

एमजीएम अस्पताल में इनक्यूबेटर और वेंटीलेटर की कमी है जिस वजह से एक ही इनक्यूबेटर में तीन-तीन बच्चों को रखा जाता है जिससे संक्रमण फैलने का खतरा होता है. लेकिन तकरीबन कई राज्यों के सरकारी अस्पतालों की यही दशा है जो इलाज को लेकर दिशाहीन है.

अस्पताल प्रशासन के पास हर मौत की दलील होती है तो सरकार के पास स्वास्थ्य सुरक्षा देने के दावे. उन दोनों के बीच मासूमों की मौत की खबर हर साल ‘सालाना मातम’ की तरह सिसकियां भरती है.

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के अलावा फर्रुखाबाद के लोहिया अस्पताल में भी बच्चों की मौत का सिलसिला चल पड़ा है. पिछले 30 दिनों में 49 नवजातों की मौत हो चुकी है. 49 नवजातों में 30 की मौत  सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) में हुई है. डॉक्टरों के मुताबिक मौतों की वजह अभी साफ नहीं है. लेकिन वो भी ये मानते हैं कि नवजातों की मृत्यु रेट में इजाफा हुआ है.

ऐसे में सवालों के घेरे में सरकार की वो तमाम योजनाएं हैं जो कि शिशु-मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए शुरू की गई हैं लेकिन राज्य सरकारों की लापरवाही के चलते कार्यान्वित नहीं हो पा रही हैं. सरकार दावा करती है कि जननी सुरक्षा व जननी शिशु सुरक्षा योजना के तहत टीकाकरण और आन कॉल एंबुलेंस की तैनाती की गई है. लेकिन दुखद ये है कि केंद्र के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को उसी की राज्यों में मौजूद सरकारें मुंह चिढ़ाने का काम कर रही हैं.

modi on independence day

करोड़ों रुपए खर्च कर शुरू की गई योजनाओं के बावजूद देश के बड़े सरकारी अस्पतालों में इतने बड़े पैमाने पर बच्चों की मौत की घटनाएं सरकार के स्वास्थ्य मिशन पर बड़ा सवाल खड़ा करती हैं.

डॉक्टर की संवेदनशीलता और सरकारी योजना आएं साथ

केंद्र सरकार ने इसी साल नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 को मंजूरी दी है. इस योजना के जरिए मरीजों पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को कम करने की कोशिश की गई है. साथ ही ये भी कोशिश है कि सभी को सस्ता, आसान और सुरक्षित इलाज मिल सके.

इसके अलावा केंद्र सरकार ने बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिये 488 अरब रुपए आवंटित किए. वहीं राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का बजट भी 226 अरब से बढ़ाकर 271 रुपए कर दिया गया है.

लेकिन इसके बावजूद सुरक्षित और समुचित इलाज की दिशा में सरकारी अस्पताल बेपरवाह और डॉक्टर लापरवाह हैं. भगवान का दर्जा हासिल करने वाला नोबल प्रोफेशन मुट्ठी भर डॉक्टरों की संवेदनहीनता और घोर पेशेवर रवैये की वजह से मरीजों की जान से सौदा कर रहा है.

सिर्फ एम्स खुलवा देने से या फिर नए अस्पताल बनवा देने से और अस्पतालों में हाईटेक उपकरण लगा कर गरीबों और जरूरतमंदों का इलाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि जब तक डॉक्टरों, नर्सों और स्टाफ में मानवीय सेवा का भाव पैदा नहीं होगा तब तक हर साल बच्चों की मौत की घटनाओं को कभी रहस्यमय बीमारी तो कभी जापानी बुखार तो कभी कुपोषण बता कर दफनाया जाता रहेगा.  राज्य सरकारों की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो अपने अस्पतालों में डॉक्टरों, नर्सों और स्टॉफ की कमी को दूर करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाए.

सरकारी अस्पतालों में होने वाली यही लापरवाही निजी क्षेत्रों को अपनी दावेदारी बढ़ाने का मौका देती है. अगर निजी अस्पतालों में इलाज की गारंटी हो सकती है तो फिर करोड़ों रुपयों के बजट को डकारने वाले सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर मौत का खेल क्यों नहीं रुक सकता?

देश के 'भविष्य' की हिफाजत बिना 'नया भारत' कैसे

हमारे पास खुश होने की कई वजह हो सकती है. देश आजादी की 70वीं सालगिरह मना रहा है. हम चांद और मंगल पर तकनीकी रूप से पहुंच चुके हैं. बॉलीवुड, क्रिकेट, सेंसेक्स और देश में हर पल बदलती राजनीति हमारे 24 घंटे बिताने में किसी मनोरंजन से कम नहीं होता है.

Anguri, a 26-year-old pregnant woman who just gave birth, rests on a bed along with her newborn baby in the post delivery ward at a community health centre in the remote village of Chharchh, in the central Indian state of Madhya Pradesh, February 24, 2012. In rural Madhya Pradesh, an innovative free maternity ambulance service called "Janani Express", run in partnership between the state government and the United Nations Children's Fund (UNICEF), is trying to increase the number of babies born in clinics where proper care can be provided to the mothers and newborn children, and infant mortality can be decreased. Before this initiative, women like Anguri would have been left to give birth in the fields or on mud floors. Now, the free ambulance brings pregnant women across dusty roads to health clinics where they can give birth safely under basic medical supervision, be nursed afterwards and educated on the importance of breastfeeding and hygiene before returning to their villages and communities. The United Nations' International Women's Day will be celebrated on March 8. Picture taken February 24, 2012. REUTERS/Vivek Prakash (INDIA - Tags: HEALTH SOCIETY ANNIVERSARY) - RTR2YWAI

हम न्यू इंडिया की तस्वीर आंखों में संजो रहे हैं क्योंकि विकास की दौड़ में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है. लेकिन विडंबनाओं और विरोधाभास से भरे इसी देश में बुनियादी जरूरतें और सुविधाएं जब आज भी दम तोड़ती हों तो फिर किस जश्न की बदगुमानी में हम डूबे रहते हैं. उस शोर में हमें अस्पतालों में मरते बच्चों की सिसकियां नहीं सुनाई देती.

उस शोर में हमें बच्चों की इलाज की कमी से होने वाली मौत आंकड़ों में ही दिखाई देती है. लापरवाही की एक त्रासदी को किसी शव की तरह आखिर कब तक हम अपने कंधों पर इसी तरह ढोते रहेंगे. ये शर्मनाक है कि न्यू इंडिया बनने की चाह रखने वाले भारत में हर एक मिनट में 5 साल से कम उम्र के दो बच्चों की मौत होती है.

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