'वो अंधविश्वासी प्रक्रियाएं जो हिंदू धर्म के स्वरूप को बिगाड़ती हैं, उनका उस पवित्र संदेश से कोई लेना-देना नहीं है जो ये धर्म वाकई में देता है.' राजा राममोहन रॉय ने ये बातें करीब 200 साल पहले तक कही थीं जब राजनीतिक और सामाजिक स्थिति आज के हालात से कहीं अलग थीं. लेकिन क्या उनकी बातों को आज के संदर्भ में 'चुका' हुआ मान लेना चाहिए? या राजा राममोहन रॉय अब और ज्यादा प्रासंगिक जान पड़ते हैं?
आखिर ऐसा कैसे संभव है कि जिस समाज में राजा राममोहन रॉय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे धर्म सुधारक हों वहां आसाराम जैसे बाबाओं की बाढ़ आ गई है. हर कुछ समय बाद किसी न किसी बाबा का उदाहरण सामने आ जाता है. कभी रेप-मर्डर तो कभी धोखाधड़ी की घटना को लेकर. संत रामपाल, गुरमीत राम रहीम, वीरेंद्र देव दीक्षित से लेकर आसाराम जैसे ढोंगी बाबा क्या बढ़ती धार्मिक विसंगतियों की ओर इशारा नहीं करते?
'संत शब्द को यूं ही किसी चीज से जोड़ देना उचित नहीं'
खुद के बारे में संत शब्द के इस्तेमाल पर पर महात्मा गांधी ने लिखा था, 'मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से 'संत' शब्द निकाल दिया जाना चाहिए. यह इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है.' लेकिन गांधी के इस देश में उनकी सुनने वाला कौन है? एक बार नजर घुमाइए और आपको हर तरफ स्वघोषित संत और बाबाओं की फौज मिल जाएगी.
सबसे बड़ी समस्या मनोवृत्ति की है. तुरत-फुरत नए देवता गढ़ने की. ईश्वर क्या है, कहां है जैसे आध्यात्मिक सवालों के जवाब तलाशने की बजाए हम हर जगह मानवरूपी 'ईश्वरों' की श्रृंखला बनाते चल रहे हैं. नित नए ईश्वर, नित नए देवता.
राजा राममोहन रॉय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर के देश में आसाराम और राम रहीम
18वीं और 19वीं सदी में जब भारत गुलाम था और इसके पैरों में ब्रिटिश हुकूमत की बेड़ियां पड़ी हुई थीं तो हमने एक से बढ़कर एक सुधारवादी आंदोलन देखे. समाज सुधारकों की एक बड़ी फौज हमारे पास है जिनसे हमने अभी तक अपने आदर्श गढ़ने की शिक्षा पाई है. शिक्षा से लेकर सामाजिक कुरीतियों तक पर प्रहार करने वाले राजा राम मोहन रॉय ने तो हिंदू धर्म की आलोचना बरतानिया हुकूमत के जाल से निकलने तक के लिए भी की. उनका कहा है, ' हिंदू धर्म का हालिया स्वरूप इस काबिल नहीं है कि वो अपने राजनीतिक फायदों को ठीक ढंग से रख सके. ये बेहद जरूरी है कि हिंदू धर्म में कुछ बदलाव किए जाएं. कम से कम राजनीतिक तौर पर खुद को ठीक से प्रस्तुत कर पाने और एक बेहतर समाज बनाने के लिए.'
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राजनीति और समाज! क्या राजा राममोहन रॉय की बातों के निहितार्थ को हमारा समाज समझ पाने की स्थिति में है? राममोहन रॉय का सीधा मानना था कि अगर धार्मिक विसंगतियां हमें जकड़े रहेंगी तो हम अपनी राजनीतिक परेशानियों का सामना भी ठीक ढंग से नहीं कर पाएंगे और ना ही एक समता मूलक समाज की स्थापना कर पाएंगे.
कई शैक्षणिक संस्थान खोलने वाले एक अन्य समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी अपने पूरे जीवन प्रगतिशील धार्मिक समाज बनाने के लिए काम करते रहे. उन्हें मालूम था भारत गुलाम है और प्रतिगामी कदम उसकी दासता को और लंबे समय तक खींचेंगे. तो क्या माना जाए कि एक के बाद आसाराम जैसे बाबाओं की फसल हमें औपनिवेशिक गुलामी नहीं तो कम से कम मानसिक दासता की ओर ढकेल रही है?
क्या हम इन फर्जी बाबाओं को सबकुछ बरबाद करने देंगे?
क्या 'उठो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य तक न पहुंच जाओ' का विवेकानंद का संदेश हमारे लिए कम पड़ रहा है जो हमें आसाराम और रामरहीमों की जरूरत आ पड़ी है. क्या 11 सितंबर 1893 को सनातन धर्म के बारे में दिया गया विवेकानंद का भाषण निर्मूल साबित हो जाएगा और हम अपने बीच ऐसे बाबाओं को पनपते रहने देंगे. अमेरिका की उस धर्म संसद में जो जीत हमने विवेकानंद के जरिए हासिल की थी और जो सीख रामकृष्ण आश्रम हमें एक सदी से दे रहा है उसके बीज कहां हैं? ऐसा लगता है कि इन कारोबारी बाबाओं के तले कहीं दब के रह गए हैं.
स्वामी नित्यानंद याद हैं? आसाराम श्रेणी के ही बाबा वो भी हैं. उनका वीडियो वायरल हुआ और उसके बाद उनकी संत की छवि खत्म हो गई. ऐसे ही एक इच्छाधारी बाबा भी हैं. इच्छाधारी बाबा यानी स्वामी भीमानंद उर्फ राजीव रंजन उर्फ शिवा द्विवेदी सेक्स रैकेट चलाता था. उसके सेक्स रैकेट में 600 लड़कियां थीं. ऐसा व्यक्ति धार्मिक बाबा हो सकता है?
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'सर्वे संतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया' की सीख वाले धर्म से क्या ऐसे भी बाबा निकलेंगे जो बच्चियों के साथ बलात्कार करेंगे और हम देखते रहेंगे? ऐसे भी बाबा पकड़े जा चुके हैं जो एक ही बिल्डिंग में आगे के हिस्से में प्रवचन करते थे और पिछले हिस्से में सेक्स रैकेट चलाते थे.
हाल ही में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने फर्जी बाबाओं की लिस्ट जारी की थी. इस लिस्ट में आसाराम से लेकर राधे मां जैसों को फर्जी घोषित किया गया था. लेकिन उसके बाद क्या हुआ? क्या ये धार्मिक अखाड़ों, सच्चे संतों और आम हिंदुओं की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो समाज से ऐसे फर्जी बाबाओं को निकाल फेंकें जो कारोबार फैलाकर भक्त बनाते हैं और वोटबैंक की पॉलिटिक्स में नेताओं के साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं. इन सब के बीच उनके कुकृत्य इतने बाद में सामने आते हैं कि तब तक लाखों अंधभक्त पीछे आ चुके होते हैं.
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उदारवाद के पिता कहे जाने वाले अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक ने इसीलिए ब्रिटेन में धार्मिक उदारवाद की वकालत की थी. इसके तहत उन्होंने चर्च और सत्ता के अलग-अलग होने, धार्मिक सहनशीलता बढ़ाने और धार्मिक ग्रंथों को तार्किक आधार पर व्याख्यायित किए जाने का समर्थन किया था. जॉन लॉक उनमें थे जिन्होंने ब्रिटेन में पुनर्जागरण लाने में महती भूमिका निभाई थी.
सत्ता और फर्जी बाबाओं के इस गठजोड़ को तोड़ने की जिम्मेदारी आम नागरिक समाज के लोगों की है. हमारे पास पूर्व की सीखों का अंबार है. देश के न जाने कितने समाज सुधारकों के उदाहरण हमारे पास हैं. याद रखना होगा धर्म की परिभाषा वक्त के साथ न बदली जाए तो धीरे-धीरे इसमें संक्रमण लगता है और आसाराम जैसे बलात्कारी ऐसे चूहे बन जाते हैं जो धीरे-धीरे पूरी फसल कुतर देते हैं. हमें तय करना है कि हम वो किसान बनेंगे जो चूहों के फसल खत्म कर देने पर रोता है या राजाराममोहन रॉय की तरह कीटनाशक का इस्तेमाल कर अपनी संस्कृति को लहलहाने देंगे.
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