कश्मीर के पत्थरबाजों के खिलाफ सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का सैन्य प्रशासन से जुड़े लोग खुलकर समर्थन कर रहे हैं. जनरल रावत ने कहा था कि सेना के ऑपरेशन में बाधा डालने वाले पत्थरबाज, आतंकियों के साथी माने जाएंगे और उनसे सख्ती से निपटा जाएगा.
लेकिन इस बयान का विरोध कर रहे लोगों का मानना है कि सेनाध्यक्ष के बयान से कश्मीरी लोग, देश की मुख्य धारा से और भी दूर होंगे. इन लोगों का मानना है कि आर्मी चीफ को सरकार से कहना चाहिए कि वो कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की कोशिश करे.
पूर्व ब्यूरोक्रेट वजाहत हबीबुल्लाह का कश्मीर से पुराना ताल्लुक रहा है. हाल ही में वो पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिंहा की अगुवाई वाली टीम के साथ कश्मीर घाटी गए थे और लोगों से बात की थी.
इस टीम ने गृह मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. वजाहत हबीबुल्लाह ने सेनाध्यक्ष के बयान पर निराशा जताई है. उनसे बात की फ़र्स्टपोस्ट की रश्मि सहगल ने.
जनरल रावत के बयान पर आप क्या कहना चाहेंगे?
जनरल रावत ने जो भी कहा वो उनकी अपनी समझ है. वो कोई नई बात नहीं कह रहे हैं. क्या पिछले कुछ सालों में कश्मीर के हालात से अलग तरीके से निपटा गया है? मसला जनरल रावत का नहीं. दिक्कत राजनीतिक नेतृत्त्व के साथ है.
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मौजूदा सरकार एक राजनीतिक समस्या का सैन्य समाधान तलाशने की कोशिश कर रही है. ये पत्थर फेंकने वाले लड़के शहादत की बात करते हैं. सेनाध्यक्ष के बयान से उनका हौसला बढ़ेगा. अब अगर जनरल रावत के बयान का यही मकसद था, तो उन्होंने वही किया है जो उन्हें करने को कहा गया था.
ऐसे बयान से कश्मीर घाटी के लोगों के लिए क्या संदेश दिया गया है?
अब तक कश्मीरी नेता इन युवकों को कह रहे थे कि वो पत्थरबाजी न करें, क्योंकि इससे उनको नुकसान होगा. वो मारे जा सकते हैं. मगर अब सेनाध्यक्ष के बयान से ऐसा संदेश गया है कि पत्थरबाजी से उनके ऑपरेशन में दिक्कतें आ रही हैं.
इससे तो यही संदेश गया है ना कि पत्थरबाज अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं. अब जब सेना प्रमुख खुद ये बात मान रहे हैं, तो पत्थरबाजों का हौसला तो बढ़ेगा ही.
मेरा कहना है कि हालात से निपटना सेना का काम नहीं. जनरल रावत ये बता रहे हैं कि वो इससे कैसे निपटेंगे. वो एक जनरल हैं. ये उनकी अपनी समझ है. लेकिन वो कोई नई बात नहीं कह रहे हैं.
क्या हालात से इससे पहले किसी और तरीके से निपटा गया है? आपके पास कुछ लोगों के खिलाफ इतनी बड़ी सेना है. बच्चे मारे गए हैं. लोगों ने अपनी आंखों की रौशनी गंवाई है.
आपको क्या लगता है, इसका क्या हल है?
मैं ये नहीं बता सकता. केंद्र सरकार को लोगों से बातचीत करनी होगी. सरकार को कश्मीरियों को और स्वायत्तता देनी होगी. जैसी कि देश के दूसरे हिस्से के लोगों को हासिल है.
यूपीए सरकार नतीजे देने में कामयाब रही थी. हिंसा कम हो रही थी. कश्मीर में स्थिरता आ रही थी. लेकिन पिछले साल जुलाई से हिंसक वारदातों में बहुत तेजी आ गई है. साफ है हालात से निपटने का तरीका गड़बड़ था.
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को लोगों से सहानुभूति है. मगर मौजूदा हालात से नाउम्मीदी सी दिखती है. ये निराशा की बात है. मुझे इसमें अपनी भी नाकामी लगती है.
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आप वार्ताकारों के एक ग्रुप के साथ पिछले साल अक्टूबर में कश्मीर गए थे. इसके अगुवा पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा थे. आप दिसंबर में दोबारा गए थे. आपने गृह मंत्रालय को एक रिपोर्ट भी सौंपी है?
हां, जब हम जम्मू-कश्मीर पहुचे तो स्कूल के इम्तिहान होने वाले थे और हिंसा के चलते इनके टलने का डर था. इससे बीस लाख छात्रों के भविष्य पर असर पड़ता. ये 14 नवंबर की बात है, जब इम्तिहान शुरू होने वाले थे. वहीं हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने सुरक्षा बलों के जुल्म के खिलाफ प्रदर्शन और बंद की अपील की थी.
लेकिन घाटी के सिख नेता गिलानी से मिले और उनसे अपनी अपील वापस लेने की गुजारिश की. सिख नेताओं ने गिलानी से गुरु नानक का हवाला दिया क्योंकि उस दिन पूरे देश में गुरू नानक जयंती मनायी जा रही थी. सिख नेताओं की गुजारिश पर गिलानी ने बंद को टाल दिया था.
मैंने गिलानी को याद दिलाया था कि 2010 में भी हिंसा भड़की थी, पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही थीं, तब भी स्कूल बंद नहीं कराए गए थे. क्योंकि स्कूल बंद होने का छात्रों के भविष्य पर गहरा असर पड़ता है.
गिलानी मान गए थे. लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हुर्रियत नेताओं पर भी कश्मीर के अवाम का भारी दबाव है. ये भारत के लोगों की जिम्मेदारी है कि हम कश्मीरियों से बातचीत करें.
हुर्रियत के नेता भारत के आम लोगों और राजनेताओं से बात करना चाहते हैं. इस मुद्दे पर उनके बीच आम राय दिखती है. जब हम बातचीत के लिए हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फारुक और शब्बीर शाह से मिले थे, तो हमें यही संदेश मिला. हालांकि एक और हुर्रियत नेता यासीन मलिक ने हमसे मिलने से इनकार कर दिया था.
मैं कश्मीरियों के बीच भारत के प्रति नफरत देखकर हैरान था. आज वहां के हालात 1990 से भी खराब हैं. नब्बे के दशक में लोग नाराज मालूम होते थे. लेकिन जिस तरह से जुलाई के बाद से हालात से निपटने की कोशिश हो रही है, उस पर आज गुस्सा बहुत ज्यादा है. ये नाराजगी अब नफरत में तब्दील हो गई है.
तमाम परिवारों को नुकसान उठाना पड़ा है. लोग मारे गए हैं. जख्मी हुए हैं. कई लोगों की आंखों की रौशनी चली गई है.
लोगों ने मुझसे पूछा कि आप पिछले तीन महीने से क्या कर रहे थे? आप जुलाई में ही क्यों नहीं आए? मैंने उन्हें बताया कि मेरा पैर टूट गया था. मैंने अभी ही चलना शुरू किया है. फिर सब लोगों को इकट्ठा करने में भी वक्त लगा.
भारत, कश्मीरियों का दिल जीतने में नाकाम रहा है. हम गलतियां पर गलतियां कर रहे हैं. 2010 में जब हिंसा का दौर शुरू हुआ था, तब स्कूली बच्चे भी पत्थरबाजी कर रहे थे.
मैंने आईजी और जम्मू-कश्मीर सरकार को सलाह दी थी कि वो बच्चों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत न गिरफ्तार करें. इन बच्चों को जुवेनाइल होम में रखें. इसके लिए वो पुलिस थानों या सेना की बैरकों का इस्तेमाल कर सकते थे.
लेकिन उन्होंने बच्चों को उठाकर जेल में डाल दिया. जहां वो कत्ल और दूसरे संगीन जुर्म करने वालों के साथ रहे. जब वो बच्चे जेल से छूटे तो उनकी नफरत कई गुना बढ़ गई थी.
मैंने श्रीनगर की कमिश्नर ने कहा कि वे जाकर उन लड़कों से मिलें जिन्हें बंद कर के रखा गया था. अगर वो बुरा-भला भी कहें तो भी कम से कम उन्हें ये तो लगेगा कि किसी को उनकी फिक्र है. मगर कमिश्नर ने मेरी बात नहीं सुनी. नतीजा आपके सामने है. ये लड़के जेल से बाहर आए हैं तो उनके दिलों में नफरत और बढ़ गई है.
जब श्रीनगर में कुछ लड़के मुझसे मिलने आए तो मैंने उन्हें सबसे पहले ये समझाया कि हम उनके दुश्मन नहीं. इनमें से बहुत से युवा फेसबुक पर मुझे गालियां देते हैं. लेकिन जब वो मुझसे रूबरू हुए तो उतने बुरे नहीं थे.
इनमें से कई युवाओं ने पढ़ाई करके नौकरी शुरू कर दी है. क्योंकि वो अपने लोगों की भलाई के लिए काम करना चाहते हैं. लेकिन ये लड़के भी डरे हुए हैं. क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें कभी भी उठाकर मारा-पीटा जा सकता है. जनता भी उन्हें धोखेबाज समझती है.
मुझे ये बेवकूफी लगती है कि हम जनता की नब्ज नहीं समझ पा रहे हैं. अफसोस की बात है कि हमारे नेता अपने ही लोगों से डरते हैं. उनका अवाम से ही राब्ता नहीं है. हर राजनेता इतनी सुरक्षा के साथ चलता है. इससे क्या संदेश जाता है? यही न कि नेताओं को जनता की जरा भी फिक्र नहीं?
घाटी में स्कूल जलाने के पीछे आपको किसका हाथ लगता है?
मैं ये नहीं मानता कि स्कूल जलाने में पाकिस्तान के घुसपैठियों का हाथ है. सत्तर के दशक में जब मैं सोपोर का एसडीएम था, तब जनता आरोप लगाती थी कि बीएसएफ ने स्कूल और दूसरे सार्वजनिक संपत्तियों को आग लगाई.
बीएसएफ उस वक्त भी पाकिस्तानी घुसपैठियों पर इसका इल्जाम लगाती थी. आज भी वही हो रहा है. कुछ तत्त्व हैं जो हालात बिगाड़ने के लिए ऐसी हरकतें कर रहे हैं. हमें उनका पता लगाना होगा.
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