विवेक तिवारी की हत्या की घटना ने पुलिस के दमनकारी और अमानवीय चेहरे को साफ तौर पर उजागर किया है. पुलिस ने घटना के फौरन बाद विवेक तिवारी की सहकर्मी को अपने कब्जे में लिया और 17 घंटे तक उन्हें किसी से मिलने नहीं दिया. इतना ही नहीं पुलिस ने विवेक तिवारी की सहकर्मी से कोरे कागज पर दस्तखत भी करवाए जिसको लेकर उठे कई सवाल के बाद मृतक विवेक की पत्नी से नामजद एफआईआर लिया जा सका. लेकिन उस दरम्यान मृतक की मौत को घिनौना रंग देने की भरपूर कोशिश की गई.
मृतक 20 मिनट तक सड़क पर छटपटाता रहा. वहीं उसके परिवार को इत्तला काफी देर बाद अस्पताल द्वारा किया जाना यूपी पुलिस के क्रिया कलाप पर कई सवाल खड़े करता है.
इतना ही नहीं आरोपी कातिल का मीडिया के सामने आकर कहानी गढ़ना जबकि प्रशासन उसे गिरफ्तार करार दे चुका था.ये भी पुलिसिया हकीकत की कलई खोल देता है.
सरकार की तरफ से बाद में भले ही डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज काफी संजीदगी से की गई लेकिन शुरुआती दौर में सरकार के एक मंत्री का बयान भी पूरी तरह मर्यादा से परे था.
सवाल पुलिस के उस डरावने चेहरे को लेकर है और लोगों में पुलिस को लेकर उपजे अविश्वास का है जिसको लेकर लखनऊ शहर में पोस्टरबाजी का सिलसिला तक शुरू हो चुका है. बच्चे पोस्टर में पुलिस से अपने पिता के ऊपर गोली न चलाए जाने की मिन्नत कर रहे हैं. लेकिन क्या आरोपी प्रशांत चौधरी और उसके सहकर्मी को हवालात के पीछे धकेल देने से ऐसी घटनाओं की पुनरावृति रुकेगी और लोगों का पुलिस के प्रति भय दूर हो सकेगा ? ये अब भी बड़ा सवाल बना हुआ है.
मीडिया में छपी खबर के मुताबिक जिस रात ये घटना घटी उसी शाम को प्रदेश के डीजीपी पुलिस के लोगों को आम लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने की सीख दे रहे थे. डीजीपी की सीख के उलट लखनऊ पुलिस के एक कॉन्स्टेबल ने एक एसयूवी में जा रहे विवेक तिवारी को गोली मार कर मौत की नींद सुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सवाल एक आम आदमी की जिंदगी का था जिसने खाकी वर्दी के आगे सर झुकाने से मना क्या किया उसे सदा के लिए जीवन से हाथ धोना पड़ गया. लेकिन वही अगर आदमी खास हो और आरोप भले ही बलात्कार का लगा हो तब भी सूबे के डीजीपी ने उनके संबोधन में 'माननीय' कहने में कोताही नहीं बरती थी. हैरत की बात यह है कि पीड़ित लड़की चीख-चीख कर उस विधायक को हवश का पुजारी बता रही थी और अपने पिता का हत्यारा भी लेकिन यूपी पुलिस के हाथ आरोपी विधायक के गिरेबां तक पहुंच सकें ऐसा हो नहीं सका.
वो लड़की आरोपी विधायक के पड़ोस की आम लड़की थी. और उसके दुस्साहस का जवाब भी उसके चरित्र पर लांछन लगा कर दिया जा रहा था. ठीक उसी तरह जैसे विवेक तिवारी की सहकर्मी के ऊपर कीचड़ उछाल कर पुलिस अपना दामन साफ करने में जुटी थी.
तब भी यूपी पुलिस की थू-थू पूरे देश में हुई थी और इस बार भी एक आम आदमी की जान इतनी मामूली सी बात पर ले लिया जाना पूरे देश में यूपी पुलिस के दागदार चेहरे को बेनकाब कर गया.
सूबे में एक के बाद एक पुलिस के कई ऐसे वाकये हैं जो यूपी पुलिस को लेकर आम लोगों के मन में भय को जन्म देते हैं. एक वरीय पुलिस अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट से कहा, 'कानून को बहाल करने के लिए गैरकानूनी रास्ते अख्तियार करना कभी सही नहीं हो सकता है. इस प्रक्रिया में पुलिस का रोल खराब होता जाता है. वैसे पुलिस हथियार का इस्तेमाल करने से बचती है लेकिन इस केस में ऐसा किया जाना कई सवालों को जन्म देता है.'
ये कोई पहला वाकया नहीं है. कुछ महीने पहले नोएडा में भी एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने अपनी रंजिश निकालने के लिए एक जिम इंस्ट्रक्टर पर गोली दाग दी थी. जब परिजनों ने सड़क पर उतर कर मीडिया की मदद से लोगों का ध्यान आकर्षित किया. तभी सच्चाई का पर्दाफाश हो सका था.
सवाल पुलिस की वर्दी पहन कर लोगों की जान को महफूज रखने का है और समाज में कानून व्यवस्था बहाल रखने का भी लेकिन यूपी पुलिस के हाल के कई कारनामे उनके मकसद से उलट कहानी बयां करते हैं.
हाल में मेरठ में एक घटना घटी. नर्सिंग कॉलेज के दो छात्र अलग-अलग समुदाय के थे. लड़की हिंदू थी और लड़के मुसलमान. दोनों में कहीं कोई बात नहीं जिसकी तस्दीक लड़की की मां करती हैं लेकिन पुलिस लड़की को पीटती रही और उसके साथी लड़के के खिलाफ फर्जी मुकदमे लिखने का दबाव भी बनाती रही.
आम लोगों के साथ पुलिस का ये रवैया हैरान करने वाला है. मीडिया में खबर आने के बाद पुलिस के आलाअधिकारी ने कार्रवाई की लेकिन इस तरह की घटनाएं सरेराह चलने वाले लोगों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा करती है.
हैरतअंगेज घटनाएं बस इतनी नहीं हैं...
अलीगढ़ में प्रेस को लाइव एनकाउंटर दिखाए जाने के लिए आमंत्रण भेजा जाना क्या एनकाउंटर को महिमांडित कर पेश करना नहीं है ? एक सीनियर पुलिस अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, 'लखनऊ में जो हुआ वो पुलिस के नेतृत्व पर कई सवाल खड़े करता है. साथ ही ये दर्शाता है कि एनकाउंटर को शासन किसी न किसी रूप में समर्थन देता है.'
दरअसल एनकाउंटर कल्चर को लेकर सूबे के कई पुलिस अधिकारियों में रिजर्वेशन है लेकिन ऐसी घटनाएं जब आम आदमी के साथ घटित होने लगती हैं तो एनकाउंटर का भयावह रूप चौक-चौराहे पर चर्चा का विषय बन जाता है.
दरअसल कुछ दिनों पहले लखनऊ के हजरतगंज में चोरी की घटना हुई थी. जिसके बाद पुलिस के बड़े अधिकारी ने थाने के तमाम पुलिसकर्मियों की मीटिंग बुलाकर उन्हें बुरी तरह लताड़ लगाई थी. सूत्रों की मानें तो उस मीटिंग में अपराध को रोकने के लिए हरसंभव उपाय पर जोर डाला गया था. कहा जा रहा है कि गश्ती कर रही पुलिस पर उसका दबाव था इसलिए असलहे का इस्तेमाल किया गया.
वहीं शहर के स्थानीय लोग कहते हैं कि रात में किसी महिला के साथ जा रहे आदमी को रोककर पुलिस पैसे की उगाही करती है और लोग बेफिजूल के चक्कर से बचने के लिए लोग पैसे देकर पिंड छुड़ाना ही उचित मानते हैं. लेकिन इस तरह गाड़ी में सवार लोगों पर गोली चालाया जाना और फिर उसे एनकाउंटर का शक्ल देने की कोशिश करना निहत्थों को मार एनकाउंटर की आड़ में छुपने जैसा है.
आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में तकरीबन 1500 एनकाउंटर्स हो चुके हैं जिनमें 400 लोग घायल हुए हैं. वहीं 60 लोगो की मौत हुई है. इंडिया टुडे के मुताबिक लोग अपने विरोधियों को हटाने के लिए पैसे के दम पर पुलिस की मदद से एनकाउंटर करा रहे हैं. इंडिया टुडे ने अगस्त महीने के प्रकाशन में आगरा के एक वाकये का पूरा विश्लेशन सामने रखा है.
जाहिर है कानून व्यवस्था बहाल करने के नाम पर गैरकानूनी तरीके का साइड इफेक्ट्स अब सिर चढ़कर बोलने लगा है. हाल में मुन्ना बजरंगी की जेल में हत्या इस बात की ओर साफ इशारा करती है कि बेहद सुरक्षित समझे जाने वाले जेल में एक अपराधी की हत्या जेल में कर दी गई और प्रशासन मौन बैठा रहा. मुन्ना की पत्नी ने इस षड्यंत्र में जेल प्रशासन को भी आड़े हाथों लिया था.
पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह फर्स्ट पोस्ट से बात करते हुए कहते हैं, 'ये न तो एनकाउंटर कल्चर का रिजल्ट है न ही पुलिस की बिगड़ी मानसिकता की परिचायक, साधारण पुलिस तो बल प्रयोग करने से भी डरने लगा है. क्योंकि उसको कहीं से कोई सपोर्ट मिलता नहीं है और अंत में उसे सस्पेंड होना पड़ता है. ये एक एबर्रेंट बिहेवियर है, जो कि क्रिमिनल है और इसकी प्रॉपर जांच होनी चाहिए.'
दरअसल प्रकाश सिंह के अनुसार पुरानी सरकार में अपराधियों को संरक्षण प्राप्त था. परंतु अब उन पर सख्ती की जा रही है. कुल एनकाउंटर की संख्या देखा जाए और मारे गए लोगों की संख्या पर गौर फरमाया जाए तो उससे साफ हो जाता है कि 20 से 25 इनकाउंटर में एक लोग मारे गए हैं. इसलिए इसे प्रदेश में एनकाउंटर कल्चर को बढ़ावा दिया जा रहा है ये कहना उचित नहीं होगा.
लेकिन लखनऊ की घटना एक केस स्टडी है और आरोपी कातिल कॉन्स्टेबल प्रशांत चौधरी की बहाली से लेकर उसकी ट्रेनिंग तक की पूरी गहन जांच होनी चाहिए, जिससे पुलिस को सच्चाई की तह तक जाने में मदद मिलेगी.
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