India's Daughters, डर लग रहा है, चिढ़ हो रही है उनमें से एक होने पर. एक 'लड़की' होने का एहसास तो हर दिन कोई ना कोई करा ही देता है लेकिन ये एहसास तब डर में तब्दील हो जाता है जब मेरे देश की सिर्फ 8 साल की बेटी के साथ दिनों तक रेप किया जाता है. तब चिढ़ होती है जब मेरे देश का झंडा लिए लोग उन आरोपियों को बचाने सड़क पर उतर आते है.
निर्भया की मौत के बाद जब हम सड़कों पर उतरे थे तो लगा था अब सब बदल जाएगा. अब इस देश की एक भी बेटी को वो नहीं सहना पड़ेगा जो निर्भया ने सहा. लेकिन कुछ नहीं बदला और अब लगता है कभी कुछ नहीं बदलेगा.
हां बदला है, हमने सड़कों पर उतरना बंद कर दिया
जो बदला, वो ये कि हमने सड़कों पर उतरना बंद कर दिया. हमने निर्भया के लिए जितना लड़ा उतना ना हम अासिफा के लिए लड़े, ना उन्नाव की बेटी के लिए. लड़े भी क्यों और किससे लड़े? पुलिस से, सिस्टम से, कानून से? उन्नाव रेप केस और कठुआ रेप केस दोनों ही मामलों में जिन लोगों पर आरोप है वो कोई आम इंसान नहीं नेता,पुलिस और अधिकारी हैं. फिर कौन सी उम्मीद और किस से उम्मीद? मेरी एक साथी ने ठीक कहा कि शायद अब बेटियों को पैदा ही नहीं होना चाहिए.
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कठुआ रेप केस में जिस तरह की बातें सामने आई है उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. समझ नहीं आता, जो सुनकर और पढ़कर दिल बैठ जाता है वो किसी इंसान ने कैसे किया होगा. एक आठ साल की मासूम को इसलिए हैवानियत का शिकार बनाया गया ताकि वो जिस समुदाय से आती है उसके लोगों को सबक सिखाया जाए, वो लोग जगह छोड़ कर चले जाएं?
क्या आठ साल की उस नादान उम्र को पता भी था कि समुदाय, धर्म, जाति होता क्या है? शर्म की बात ये है कि इस हैवानियत का मास्टरमाइंड एक रिटायर्ड अधिकारी है और उससे भी ज्यादा ये कि ये दुष्कर्म एक मंदिर में किया गया. घिन आने लगी है इस समाज से अब. शर्म आने लगी है खुद को इस समाज का कहते हुए. ये है हमारे समाज का असली चेहरा... घिनौना, गंदा.
कैसे बचाएं बेटी?
दूसरी तरफ उन्नाव की वो लड़की. इंसाफ मांगे भी तो किससे. शिकायत दर्ज कराने की कोशिश में तो उसने अपने पिता को खो दिया. इंसाफ के लिए पता नहीं और क्या-क्या खोना पड़ेगा? क्या बीत रही होगी उस बेटी पर? कितनी असहाय होगी वो? बेटी बचाओ... पर कहां जाए वो बेटी बचने के लिए? पुलिस के पास? और वो पुलिस ले ले उसके पिता की जान?
रेप की खबरों से अखबार हर रोज भरा रहता है और भरा हो भी क्यों ना. हर 20 मिनट में हमारे देश में एक महिला रेप का शिकार होती है. पर हमें अब आदत हो चुकी है. हमारे लिए ये आम हो चुका है उतना ही आम जितना एक चोरी की खबर होती है और इसलिए अब ये कभी नहीं बदलेगा. हमारा गुस्सा भी तब फूटता है जब उन्नाव, कठुआ जैसा कुछ होता है. बाकी तो हम खबर पढ़ते हैं, शुक्र मनाते हैं कि हमारा कोई अपना नहीं था और आगे बढ़ जाते हैं.
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अब क्यों नहीं हो रहा विरोध?
कहां है वो लोग जो कुछ वक्त पहले पद्मावती की इज्जत बचाने के लिए सड़कों पर उतरे थे? क्या इन बेटियों की इज्जत से उनका कोई लेना देना नहीं?
निर्भया के गुनहगारों को सजा मिली और हमने सोचा कि एक देश, एक समाज के तौर पर हम जीत गए. पर क्या सच में ये जीत थी? ये जीत तब होती जब इस देश में फिर कोई बेटी किसी की हैवानियत का शिकार नहीं होती. ये जीत तब होती जब हम सच में रेप और रेप पीड़ितों को लेकर संवेदनशील होते.
आज एक समाज के तौर पर और एक देश के तौर पर हार गए हम.
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