विपक्षी पार्टियों ने 1 तारीख को पेश किए जाने वाले बजट को लेकर हायतौबा मचा दी है. बजट को पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के पहले चरण के महज तीन दिन पहले पेश किया जाना है.
मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी को लिखी चिट्ठी में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा, ‘बजट सरकार को वोटरों को प्रभावित करने के लिए लोकलुभावन एलान करने का मौका देगा.’
लोकलुभावन फैसले करने से सरकार को रोकना
ऐसे कम से कम दो मौके पहले भी आए हैं. 2007 और 2012 में. उस वक्त आम बजट को राज्यों के चुनावों के बाद पेश किया गया था. इसका मोटे तौर पर मकसद चुनाव से पहले सरकार को लोकप्रिय ऐलान करने के रोकने का होता है. इसी वजह से चुनावों की तारीखों का ऐलान होते ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है.
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अब बजट की टाइमिंग को लेकर शोर मचाने वालों के साथ एक दिक्कत है. न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न ही वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चुनावों की तारीख का ऐलान होने के बाद बजट पेश किए जाने के लिए 1 फरवरी की तारीख तय की है.
सरकार पहले से कर रही है तैयारी
सरकार इस बारे में पिछले साल 21 सितंबर से बात कर रही है. अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि अगर बजट जल्दी पेश किया जाता है तो इससे देश को फायदा होगा.
सवाल यह है कि सितंबर से अब तक विपक्षी नेता कहां थे? क्यों नहीं तब उन्होंने बजट जल्दी पेश करने के आइडिया का विरोध किया?
क्या ये नेता सरकार पर पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक और फिर बाद में कालेधन पर लिए गए फैसलों के खिलाफ सरकार के विरोध करने में इतने व्यस्त थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि राज्यों में इलेक्शन से ठीक पहले जेटली बजट पेश करने वाले हैं?
पूरे देश को फायदों से वंचित करना उचित नहीं
इस मामले में देर से जागने वाले विपक्ष को याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश और चार अन्य राज्य ही भारत नहीं हैं. इन्हें समझना होगा कि केवल पांच राज्यों के लिए नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए है.
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विपक्ष को संतुष्ट करने के लिए चुनाव आयोग (ईसी) ने सरकार से बजट को 9 मार्च या इसके बाद लाने के लिए कहा है. लेकिन, चुनाव आयोग को खुद सोचना चाहिए कि पूरे भारत को जल्दी बजट से होने वाले फायदों से रोक देना कितना उचित होगा.
खासतौर पर ऐसे वक्त पर जबकि सरकार पिछले तीन महीने से बजट जल्दी पेश करने की तैयारियां कर रही है. और ऐसा पहली बार किया जा रहा है. इस पूरी कवायद को महज पांच राज्यों में चुनावों के चलते रोक देना कहां तक दुरुस्त होगा.
चुनाव आयोग को भी पता है कि वह आदर्श आचार संहिता के लिए एक ऐसा अपवाद बना रहा है जिसमें लोगों को होने वाले फायदों को रोका जा रहा है. सरकार ने पिछले साल 21 सितंबर को ही तय कर लिया था कि वह फरवरी के पहले हफ्ते में बजट पेश करेगी.
इसी दिन सरकार ने सैद्धांतिक रूप से फैसला कर लिया था कि वह सदियों पुरानी ब्रिटिश परंपरा को तोड़कर अलग से रेल बजट पेश नहीं करेगी. सरकार ने 21 सितंबर को कहा था कि आम बजट जल्दी पेश करने से न केवल सरकारी विभागों को बल्कि कंपनियों और इंडीविजुअल्स को भी अपने खर्चों और करों की बेहतर योजना बनाने में मदद मिलेगी.
फरवरी के अंत में आने वाले बजट का अब तक मतलब सिर्फ संवैधानिक संसदीय मंजूरी और राष्ट्रपति की अधिसूचना से है. सरकारी विभागों के खर्चों की शुरुआत जून तक जाती है.
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26 जून को भी मोदी ने इस बारे में बात की थी. उन्होंने कहा था कि बजट करीब एक महीने पहले आएगा. तब भी किसी ने विरोध नहीं किया. 15 नवंबर को सरकार ने फाइनल एलान किया था कि बजट 1 फरवरी को पेश किया जाएगा. लेकिन, इस एलान का भी विरोध करने की किसी को सुध नहीं रही.
असलियत यह है कि अर्थशास्त्री और अन्य जानकार लगातार सरकार के इस कदम की तारीफ कर रहे हैं.
जल्दी बजट से क्या फायदे होंगे?
सबसे पहले तो जल्दी बजट लाने से फाइनेंस बिल को मार्च में पास कराने के लिए काफी समय मिलेगा. इससे अगले फिस्कल यानी 2017-18 की 1 अप्रैल से शुरुआत होते ही सरकारी विभाग अपने खर्च शुरू कर सकेंगे.
नए टैक्स प्रस्ताव पहले के मुकाबले कहीं जल्दी प्रभावी हो पाएंगे. साथ ही इससे राज्यों को अपने बजट की बेहतर तरीके से योजना बनाने में मदद मिलेगी. राज्यों को पता होगा कि उन्हें क्या मिल रहा है और क्या नहीं मिल रहा है.
अपने मकसद को सही तरीके से बताए सरकार
यहां तक कि अगर विपक्ष अपनी जिम्मेदारी निभाने के मूड में नहीं था, तब भी सरकार जल्दी बजट लाने के लिए पहले से कह रही थी.
21 सितंबर को सरकार के फैसले का एलान करते हुए जेटली ने कहा था कि बजट के लिए अंतिम तारीख का फैसला चुनाव के दिनों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा.
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यहां तक कि 26 अक्टूबर को भी जब मोदी ने इस बारे में बात की, तब मीडिया में अधिकारियों के हवाले से कहा गया कि चुनाव के शेड्यूल पर विचार चल रहा है.
एक ईमानदार संवाद की गैरमौजूदगी में कई बार अच्छे मकसद भी गलत व्याख्या का शिकार हो जाते हैं.
नोटबंदी के फैसले में सूचनाओं की जिस तरह की गलतफहमी रही उसे दोहराने से बचना चाहिए.
मुद्दों पर सोता रहता है विपक्ष
विपक्षी नेताओं के लिए चुनावों के ऐन पहले बजट आना एक खतरे जैसा है. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विपक्ष को पहले से इस मुद्दे का पता था और उन्होंने इस पर कोई गौर नहीं किया.
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2014 में मोदी के सरकार बनाने के बाद पहली बार नोटबंदी ने मोदी-विरोधी ब्रिगेड के सामने एक बेहतरीन मौका दिया था कि वे आम लोगों को हुई दिक्कतों को उठाते और सरकार को चुनौती देते. लेकिन, विपक्ष इस मुद्दे को भी भुना नहीं पाया.
अब चूंकि वह मौका हाथ से निकल गया है, ऐसे में अचानक विपक्ष ने बजट की टाइमिंग के बारे में खोज की है.
सीपीआई (एम) के नेता सीताराम येचुरी का बयान देखिए. येचुरी ने कहा कि 1 फरवरी को बजट में गुमराह करने वाले जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े आएंगे. इसमें फिस्कल ईयर 2016-17 की केवल दो तिमाहियों को देखा जाएगा.
येचुरी की बात सही है, लेकिन यह बात उन्हें पहले कहनी चाहिए थी. लेकिन, क्या येचुरी वास्तव में यह सोचते हैं कि वोटर वोट डालने जाते वक्त जीडीपी के आंकड़ों को ध्यान में रखेंगे?
चूंकि, येचुरी बार-बार यह कहते हैं कि मोदी ने नोटबंदी का फैसला करके भारत की अर्थव्यवस्था की ऐसी-तैसी कर दी है, तब फिर वह क्यों डर रहे हैं?
येचुरी को तो चैन की नींद सोना चाहिए कि मोदी विधानसभा चुनाव हारने जा रहे हैं. या येचुरी को लगता है कि चीजें इसके उलट हैं?
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आप इस बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि अगर सरकार ने 1 फरवरी को बजट पेश किया तो विपक्षी एक बार फिर से संसद में कामकाज चलने नहीं देंगे.
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