भारत में अखबारों को 200 बरस से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन उनकी खबरों की शक्लें अब भी नहीं बदलीं. हम अगर साल 1780 का कोई अखबार खोल लें, तो तब की खबरें और आज की खबरें आपको मिलती-जुलती लगेंगी. उस समय भी एक पिता को जब पता चलता था कि उसकी बेटी का किसी के साथ प्रेम संबंध है, तो वह अपना और अपने परिवार का सम्मान बचाने के लिए अपनी बेटी की जान ले लेता था. आप इसे आज ‘ऑनर किलिंग’ के नाम से जानते हैं. आज अगर अखबारों के पन्ने पलटें, तो हू-ब-हू वही घटनाएं साल 2018 में हमारे समाज में अब भी घटती दिखती हैं. यानी हम हिंदुस्तानी नहीं बदले.
एक और बात में हम खुद को नही बदल पाए. और वह है ‘लिंचिंग ’ यानी पीट-पीट कर मार डालने की प्रथा. आज भी ये जारी है. शब्दकोश में ‘ लिंचिंग ’ के मायने हैं, किसी कथित अपराध के ज़ुर्म में किसी व्यक्ति को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के मार डालने की सजा देना. मेरे लिए ये समझ पाना सचमुच बहुत कठिन है कि कैसे एक भीड़, जिसमें कई लोग एकदूसरे को भी नहीं जानते , इकट्ठी होती है और किसी ऐसे शख्स को मार डालती है, जिसके बारे में वे सब भी नहीं जानते.
इस हफ्ते ऐसी ही एक खबर ने मन व्यथित कर दिया. खबर ये थी कि त्रिपुरा में एक गांव में भीड़ ने उसी शख्स को मार डाला, जिसे राज्य सरकार की ओर से ‘ लिंचिंग ’ को रोकने के लिए भेजा गया था. सुकांता चक्रवर्ती अपनी ड्यूटी निभा रहे थे. एक गांव से दूसरे गांव सिर्फ इसलिए घूम रहे थे कि लोगों को बता सकें कि सोशल मीडिया पर बच्चो को अगवा किए जाने वाली खबरें सिर्फ अफवाह हैं और वे इससे दूर रहें. वे एक लाउडस्पीकर के जरिये गांव के लोगों को समझा रहे थे कि वे अफवाहों से कैसे दूर रहें.
भीड़ ने उन्हें ही घेर कर मार डाला. उनके साथ गए दो और लोगों को भी बुरी तरह पीट कर अधमरा छोड़ दिया गया. महाराष्ट्र के धुले में भी अभी रविवार को ही ऐसी ही एक घटना सामने आई है. पांच लोगों को ‘बच्चा उठाने वाला गैंग’ समझ कर भीड़ ने मार डाला. विडंबना देखिए कि इन खबरों के बारे में मुझे एक विदेशी अखबार से पता चला. ऐसा इसलिए कि शायद हमारे मीडिया, खासतौर पर न्यूज चैनल्स के लिए ‘लिंचिंग’ इतनी आम बात हो गई है कि वह खबर नहीं रही.
न्यूजरूम में आने वाली खबरें एक खास सलीके के जरिये गुजरती हैं और उनमें एक ही जैसी घटनाओं को लेकर आने वाली खबरों को न्यूज लिस्ट से बाहर कर दिया जाता है, क्योंकि न्यूजरूम को लगता है कि अब वे खबरों की परिधि से बाहर निकल कर आम बात हो गईं हैं. इसलिए खबर नहीं रहीं. ‘लिंचिंग’ के साथ यही हुआ है. अखबारों के फ्रंट पेज और न्यूज चैनल्स के प्राइम टाइम डिबेट से इस खबर को हटाया जा चुका है. लेकिन इसका मतलब ये तो हुआ नहीं कि हिंसा की ये घटनाएं रुक गई हैं. बल्कि ऐसी वारदातें बढ़ी ही हैं.
पिछले एक महीने में भारत में 14 लोगों को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला. असम, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, बंगाल, तेलंगाना में ऐसी दो-दो घटनाएं और गुजरात और कर्नाटक में एक-एक घटना सामने आई है. ये वो घटनाएं हैं, जिनका रिकॉर्ड हैं. मैं आपको यकीन दिला सकता हूं कि ऐसी कई और घटनाएं होंगी, जिन पर पुलिस ने अपने चिर-परिचित अंदाज में पर्दा डाल दिया होगा. अकेले ओडिशा में पिछले 30 दिन में हमले की ऐसी 15 घटनाएं हुई हैं, जिनमें कुल 28 लोगों के साथ मारपीट की गई.
हमारे देश के बारे में ऐसी खबरें पढ़-पढ़ कर विदेशी हैरान-परेशान हैं. उनके लिए ये समझना बहुत कठिन है कि आज 2018 में इस तरह की घटनाएं क्यों हो रही हैं. जाने क्यों, हम भी ऐसी घटनाओं को मामूली समझ कर ध्यान नहीं दे रहे. इन मामलों को लेकर कोई ‘मन की बात’ भी नहीं हो रही. अखबारों के फ्रंट पेज पर ‘लिंचिंग’ रोकने के लिए कोई सरकारी विज्ञापन भी नहीं दिखता, जो बताए कि ऐसी वारदातों से देश और समाज का कितना बड़ा नुकसान हो रहा है. सरकार है कि बस इस बात को लेकर चिंतित दिख रही है कि ऐसी घटनाएं बाहर न आ पाएं.
एक प्रकाशक लिंचिंग की घटनाओं को इकट्ठा कर छापने की तैयारी में भी था, लेकिन उसे सरकार की ओर से साफ निर्देश आ गया कि वे इससे बाज़ आएं तो बेहतर. उस प्रकाशक ने किया भी वही, पीछे हट गया. सरकार का बचाव करने वालों की दलील है कि ये कानून-व्यवस्था का मामला है, जो कि राज्य सरकार की जिम्मेदारी है. बात तो सही है, लेकिन ‘लिंचिंग’ के बारे में दरअसल हमारी भी एक भूमिका है. हमें सोचना होगा कि लिंचिंग दरअसल है क्या और ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं.
भारत में सार्वजनिक तौर पर हत्या की ऐसी घटनाओं की तीन वजहें खास हैं. पहली वजह, हमारे सामाजिक और धार्मिक ढांचे की वजह से हमारी पहचान का व्यक्तिगत न होकर ‘सामूहिक’ होना. हमारे यहां समुदायों को उनके पुराने घिसे-पिटे रूप में ही जानते-पहचानते हैं. ब्राह्मण बुद्धिमान ही होगा, कसाई खूंखार ही होगा और नाई का मूर्ख होना तो तय ही समझिए.
हम लोगों को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानते, उनकी सामूहिकता, उनके समुदाय, जाति या धर्म के आधार पर उन्हें जानते हैं. हम ये सोचते ही नहीं कि हममें से हर कोई, एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है. इससे भीड़ के लिए सब आसान हो जाता है क्योंकि जिस पर हमला हो रहा है, उसके जाति-धर्म को छोड़कर और कोई सूचना चाहिए ही नहीं. हिंसा के लिए बस इतनी जानकारी ही काफी है.
दूसरी वजह ये कि भारत में ऐसी घटनाएं रोक पाना बहुत कठिन है, क्योंकि सरकारें बहुत कमज़ोर होती हैं. इन सरकारों में हमारे समाज की सारी बुराइयां होती हैं. प्रचुर स्रोतों का न होना भी उऩको कमज़ोर बनाता है. भीड़ की ओर से हुई हिंसा के मामलों में शायद ही कभी अदालतों में आरोपियों को सज़ा मिलती हो. कई बार तो घटना के वक्त, सत्ता के पहरेदारों की मौजूदगी के बावजूद भीड़ को चुनौती देने की भावना दिखती ही नहीं. मिसाल के तौर पर ज़हीर खान का मामला लें, जिसे अर्देधसैनिक बलों के एक कैंप में शरण लेने के बावजूद मार डाला गया.
तीसरी वजह ये कि इन हिंसक घटनाओं में भाग लेने वाले अक्सर वे लोग होते हैं , जो सरकार के हिस्से होते हैं. ‘ बीफ बैन’ जैसे कानून ये बात जानते हुए भी लाए जा रहे हैं कि कानून बहुत लचीला और कमजोर है और ऐसे कानूनों से हत्या की घटनाओं में और बढ़ोतरी ही होगी.
जिस विदेशी अखबार ‘द गार्जियन’ में मैंने लिंचिंग की खबर पढ़ी, उससे ये समझने मे मुश्किल हो रही थी कि देश में हो क्या रहा है. इस खबर में आगे कहा गया है कि कुछ वीडियो समाज में अफरा-तफरी मचा देते हैं. जैसे एक पाकिस्तानी वीडियो जिसमें दो लोगों को एक बच्चे को अगवा कर मोटरसाइकिल पर ले जाते हुए दिखाया गया. ये वीडियो असली बताते हुए अपील की गई कि लोग अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर अलर्ट रहें. खबर में आगे लिखा गया कि एक ‘मास हिस्टीरिया’ के तहत लोगों को चेतावनी दी जाती है और चूंकि इसके आगे लोगों को जागरुक करने के लिए अभियानों का कोई खास असर नहीं पड़ता दिखाई देता, कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी निभाने वाले भी भीड़ को नियंत्रित कर पाने में असफल रहते हैं.
लिंचिंग रोकने के लिए त्रिपुरा में इंटरनेट बैन कर दिया गया. मेरी निगाह में ये फैसला हैरान कर देने वाला है, क्योंकि इसके मुताबिक हत्या रोकने का सबसे सरल इलाज व्हाट्सअप पर रोक लगाना है.
जितनी तेजी से ये घटनाएं हो रही हैं, वह खबरनवीसों के लिए अपने आप में एक स्टोरी है. लेकिन एक नागरिक के तौर पर हमारे लिए अगर ये चिंता का विषय नहीं है, तो ये बेरुखी बहुत कुछ कहती है. असल में हम जिस ‘भीड़’ की बात कर रहे हैं, वह भारतीय समाज की मानसिकता का ही एक हिस्सा है.
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