सबसे पहले तो मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले का स्वागत करना चाहूंगी. इस संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि शरिया कानून क्या है? यह आम धारणा है कि तीन तलाक शरिया कानून का हिस्सा है. इस वजह से इससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित है.
शरिया कानून कुरान और हदीस का दिया कानून है, जो किसी शख्स पर असर डालने वाले सामाजिक, आर्थिक या निजी मसलों को अपनी जद में लेता है. हालांकि इस कानून के तहत आने वाले और न आने वाले व्यवहार को अलग किया जाना जरूरी है, क्योंकि अक्सर इन्हें सही ठहराने के लिए संविधान का ही हवाला दिया जाता है.
कुरान आपको कारोबार से लेकर निजी मसलों तक, हर बात में निर्देश देता है. लेकिन यह समझ में नहीं आता कि तलाक जैसे मुद्दे क्यों इसमें अमान्य हैं. यदि आप संविधान को स्वीकार करने को तैयार हैं, तब उसमें दिए अधिकारों को मानने में आपको क्या दिक्कत है? एक औरत को कुरान में तलाक का अधिकार नहीं दिया गया है. इस वजह से यह दलील कि शरिया कानून में इस मसले पर बात की गई है, अपने आप में निराधार है. यहीं पर यह सवाल उठता है कि संविधान आखिर किस चीज को संरक्षण दे रहा है?
निष्पक्ष और समान कानून की जरूरत
हमें समझने की जरूरत है कि यह महज एक फैसले या मुकदमे का मामला नहीं है. बल्कि पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज में अपने अधिकारों के लिए लड़ती औरतों से जुड़ी बात है. समस्या इसलिए भी पैदा हो जाती है कि आपके तमाम इस्लामिक विद्वान अधपढ़े हैं. वे इस्लाम के एकाध पहलुओं का सबक लेकर उससे चिपक जाते हैं. तुलनात्मक पढ़ाई यहां की ही नहीं जाती.
आप किसी मुफ्ती से बात कर लें, किसी मौलवी से या आलिम से, आपको लगेगा कि सब अपने-अपने हिसाब से दलीलें पेश कर रहे हैं. इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो सब पर लागू हो सके. मुझे लगता है कि वे ऐसा इस डर से करते हैं कि उनकी दुकानें कहीं बंद ना हो जाएं.
समान आचार संहिता के संदर्भ में हमें यह याद रखने की जरूरत है कि खुद इस्लाम सभी के लिए एक सार्वभौमिक कानून की बात करता है जो जाति और धर्म से परे हो. अगर सबके लिए अपराध से जुड़ा कानून समान है, तो नागरिक कानून ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
इसकी एक वजह मुझे यह समझ में आती है कि फौजदारी कानून अंग्रेज़ों का बनाया हुआ है. आजादी के बाद भारत सेकुलर हो गया और शरिया जैसे कानूनों ने आधुनिक होती दुनिया में भी खुद को बचाए रखने का एक कामयाब सौदा कर लिया. मेरे खयाल से हमारे देश के सेकुलरवाद का बुनियादी चरित्र ही ऐसा है कि शरिया कानून के समर्थक उसका दोहन करते रहते हैं. मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में बदलाव लाने के लिए काफी संजीदा है.
चूंकि वे अपनी अलग अदालत चलाते हैं. यह तथ्य ही अपने आप में इस बात की जरूरत को पैदा करता है कि समान आचार संहिता की मांग की जाए. जो न केवल लिंग के आधार पर इंसाफ को तय करती हो बल्कि सभी धर्मों व संस्कृतियों के प्रति निष्पक्ष भी हो. ऐसे संगठन सरकार पर दबाव बनाकर उसका दोहन करने के अलावा और कुछ नहीं करते.
सोशल मीडिया की अहम भूमिका
मैं यहां मीडिया की भूमिका का भी जिक्र करना चाहूंगी. इंसाफ की हमारी लड़ाई में सोशल मीडिया ने तमाम चीजों को बदलने का काम किया है.
पहले अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाना कितना मुश्किल होता था. आज भी तमाम लोग ऐसे हैं जो न तो अखबार पढ़ते हैं और न ही टीवी पर समाचार देखते हैं.
सोशल मीडिया एक ऐसी जगह है जहां हर चीज की खबर मौजूद है. इसने काफी हद तक हमारे सरोकारों को भी आवाज दी है. इसने न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमें समर्थन दिलवाने में मदद की है. मैं शुक्रगुजार हूं कि आज ऐसे माध्यम वजूद में हैं.
यह इस धीमी प्रक्रिया में तेजी लाएगा. मुझे भरोसा है कि ऐसा होकर रहेगा. यह फैसला केवल एक संकेत है. जब सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला देगा, तो मुझे भरोसा है कि वह तीन तलाक, बहुविवाह और ऐसे तमाम मसलों को प्रतिबंधित करने के हक में होगा जिनके खिलाफ हम लड़ रहे हैं.
लेखिका राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ की अध्यक्ष हैं (मानिक शर्मा से बातचीत के आधार पर)
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