लोकसभा ने हाल ही में मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2017 पर अपनी मुहर लगा दी. इस विधेयक या बिल का मकसद है, ‘विवाहित मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण करना और उनके पतियों के तलाक के ऐलान से टूटने वाली शादियों को रोकना.’
ये लेख इस बिल को लाने के पीछे बनी पॉलिसी पर कोई कमेंट नहीं करता. एंटी ट्रिपल तलाक बिल के नाम से मशहूर हुए इस विधेयक को एक सरसरी निगाह से पढ़ने से ऐसा लगता है कि राज्यसभा को, जहां अब इस बिल को भेजा जाएगा, वहां इस पर और अधिक काम करना होगा ताकि ये बिल बेहतर कानून की शक्ल ले सके.
हमारी संसद में दो सदन हैं- लोकसभा और राज्यसभा. राज्यसभा में कई सारी कमेटियां हैं जिनकी मदद से ये उम्मीद की जाती है कि पूरे बहस-मुसाहिबे के बाद ही सदन कानून बनाने के काम पर आगे बढ़ेगा. माना जाता है कि बिल में जो कहा गया है उसकी पूरी तरह ढंग से पड़ताल होगी और ये पक्का किया जाएगा कि उसका सही मतलब सामने आए.
बिल में हैं विरोधाभासी बातें
मिसाल के लिए, इस बिल में ऐसा बहुत कुछ है जिसका कुछ मतलब नहीं निकलता, यानी अब राज्यसभा को इस पर बहुत काम करना होगा, जैसे बिल की धारा 2(ख) में दी गई तलाक की परिभाषा, जिसमें कहा गया है: ‘तलाक यानी ‘तलाक-ए-बिद्दत’ या तलाक का इसी तरह का दूसरा स्वरूप जिसमें मुस्लिम शौहर के द्वारा शादी तोड़ने का फौरी और गैर-वापसी का असर रखने वाला ऐलान किया जाता है, जिसे अधिकतर लोग तीन तलाक समझते हैं.’
हालांकि इस परिभाषा के आधार पर विधेयक की धारा 3 में कुछ विरोधाभास नजर आता है. इसमें कहा गया है: ‘किसी व्यक्ति का अपनी पत्नी को तलाक देने का ऐलान करना, चाहे वे शब्द, बोले या लिखें हों या किसी इलेक्ट्रॅानिक फार्म में या किसी अन्य तरीके से जो भी हो, वह अवैध और शून्य होगा.’
अब ‘तलाक’ को यह कह कर परिभाषित किया है, ‘फौरी और गैर-वापसी का असर वाला विवाह विच्छेद’, तो फिर इसी बिल में इसे शून्य कैसे घोषित किया जा सकता है. यह परिभाषा पुनरावृत्ति-मात्र है और इसलिए ये विधेयक और उसकी धारा 3 बेमतलब साबित हो सकती है.
जो परिभाषा है वह अपनी प्रकृति में वर्णनात्मक न होकर क्रियात्मक होनी चाहिए. इस बिल में ‘तलाक’ की परिभाषा इस तरह होनी चाहिए: ‘तलाक का अर्थ तलाक-ए-बिद्दत’ या तलाक के किसी अन्य समान स्वरूप (जो, यदि इस अधिनियम के प्रावधानों में नहीं है) जिसका ऐलान एक मुस्लिम शौहर द्वारा किया जाता है और जो ‘फौरी और गैर-वापसी के असर वाला’ है.’
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ये परिभाषा कानूनी नजरिए से भी दिक्कत वाली हो सकती है. जैसे, इसके मुताबिक, एक बार ऐलान होने के बाद तलाक असर में आ जाता है. हालांकि बिल घोषणा करता है कि इस परिभाषा में तहत आने वाला तलाक शून्य होगा, ये इस तथ्य को ध्यान में नहीं रखता कि आप कुछ तब ही शून्य कर सकते हैं जब वह लागू होता है, आप तब तक इसे शून्य घोषित नहीं कर सकते जब तक आप इसके शुरुआत से ही शून्य होने का ऐलान नहीं करते.
या तो तलाक की दी गई परिभाषा बदली जाए या फिर धारा तीन को बदला जाए. इसका व्यावहारिक परिणाम ये होगा कि एक महिला जिसके लिए तीन तलाक का ऐलान किया गया है, उसे अदालत आना होगा ताकि वो इसे पहली नजर में शून्य घोषित करवा सके.
गुजारेभत्ते और संरक्षा वाले खंड भी हैं कमजोर
इसके अलावा दूसरी मुश्किलें भी हैं. धारा 5 और 6 पॉलिसी बनाने के लिहाज से प्रगतिशील खंड हैं लेकिन खराब तरह से लिखे गए हैं. धारा 5 कहती है कि जिस महिला को तलाक दिया जाता है वो गुजाराभत्ता पाने की हकदार है, और धारा 6 कहती है कि वह अपने नाबालिग बच्चों को अपनी संरक्षा में ले सकती है. लेकिन अगर तलाक खुद में शून्य है तो ऐसे मे गुजाराभत्ता या संरक्षा का सवाल बमुश्किल ही सामने आता है. ऐसा तब होगा जब तलाक हो ही जाए. अगर पहली वाली बात होती ही नहीं है तो दूसरी के होने का सवाल ही नहीं उठता.
इसके अलावा, गुजाराभत्ता और संरक्षा के प्रावधानों में, कुछ और भी बातें जोड़ी जानी चाहिए. जैसे अगर महिला को गुजाराभत्ता नहीं मिलता या बच्चों की अभिरक्षा नहीं दी जाती तो ऐसे में क्या करना जरूरी होगा. ऐसा नहीं होता तो ये ऐसा कानून बन कर रह जाएगा जिसका कोई अर्थ नहीं निकलेगा और इसे बुनियादी तौर पर लागू नहीं किया जा सकेगा.
एक बेहतर मसौदे को बनाने में वक्त लगता है खासकर जब विधेयक पारिवारिक कानूनों को लेकर हो. वजह ये है कि भारत में पारिवारिक कानून बहुत पेचीदा हैं. इसमें कई तरह के अदालती फैसले आ चुके हैं और दूसरी तरह के कानूनों की तादाद बहुत ज्यादा है. इस जैसे सामान्य बिल में, जिसमें सात ही धाराएं हैं, उसमें किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए.
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अगर राज्यसभा इसे इसके मौजूदा स्वरूप में पारित करती है तो इससे किसी को फायदा नहीं होगा. ये कोई सियासी जीत नहीं होगी. ये खराब तरह से लिखा गया बिल है और जरूरत ये है कि पारित करने से पहले इसे दुरुस्त किया जाए, अगर उम्मीद रखी जा रही है कि इससे कुछ हासिल किया जा सकता है.
संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा के कंधों पर ये जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाने को लेकर पूरी संजीदगी बरते. सदन को चाहिए वह इससे जुड़ी पॉलिसी पर तो विचार करे ही साथ ही मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2017 के प्रावधानों को दुरुस्त करे और इसे लोकसभा को दोबारा भेजे ताकि एक अर्थपूर्ण कानून अस्तित्व में आ सके.
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