पर्यटन विभाग अब एक नई पहल शुरू करने जा रहा है. इस पहल के तहत वह उन ब्रिटिश अधिकारियों की कब्र को उनके वंशजों तक पहुंचाएगा, जिन्होंने ब्रिटिशकाल के दौरान मसूरी, नैनीताल, रानीखेत और लैंसडॉन जैसे इलाकों में अपना आखिरी समय गुजारा था.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पर्यटन विभाग सबसे पहले ब्रिटिश अधिकारियों की कब्र पहचानेगा फिर उनके वंशजों की तलाश की जाएगी. पर्यटन विभाग की इस पहल के पीछे एक खास मकसद है. उसका मानना है कि ऐसा करने से ब्रिटिश अधिकारियों के वंशज उत्तराखंड आएंगे और इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा.
गौरतलब है कि देश की आजादी से पहले जब अंग्रेजों की हुकूमत थी, तब उत्तराखंड में सैकड़ों विदेशियों के घर थे. जिनमें से कई विदेशियों ने आखिरी सांस भी यहीं लीं. ऐसे में इन विदेशियों की कब्रें यहां मौजूद हैं. जिन कब्रिस्तानों में इन विदेशियों को दफनाया गया था, वह 18वीं सदी के थे.
दिलचस्प बात यह है कि इन कब्रों में कई प्रसिद्ध विदेशियों की भी कब्र है. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ जिस ऑस्ट्रेलियाई जॉन लैंग ने मुकदमा लड़ा था, उनकी कब्र भी यहां मौजूद है. हालांकि यह ढूंढना बहुत मुश्किल होगा कि जिन विदेशियों की कब्रें यहां हैं, उनके परिजन कहां रहते हैं.
पर्यटन विभाग का कहना है कि वह पुराने डॉक्यूमेंट्स के जरिए इस बात की खोज करेंगे कि इन कब्रों के अंदर बंद लोगों के वंशज कहां रहते हैं. हालांकि इस योजना पर उस समय से विचार किया जा रहा था, जब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था. पर्यटन विभाग का कहना है कि उसने 'नो योर रुट्स' नीति के तहत इस प्रक्रिया को शामिल किया है.
हर साल एक मोमबत्ती के लिए तरसती है कब्र लेकिन नहीं है कोई सुनने वाला
मसूरी और नैनीताल में ब्रिटिश जमाने के 2 और 5 कब्रिस्तान हैं लेकिन इस कब्रिस्तानों की हालत बहुत खराब है. इनमें कई कब्रें टूट चुकी हैं. वहीं नैनीताल में 5 में से 2 कब्रिस्तान खत्म हो चुके हैं.
लैंसडौन में भी विदेशियों का कब्रिस्तान हैं क्योंकि यहां काफी समय तक अंग्रेजी सेनाएं रहीं थीं. अक्सर यहां ब्रिटिश अधिकारियों के परिजन आते हैं और श्रद्धांजलि देते हैं.
वहीं अगर रानीखेत की बात करें तो यहां भी ब्रिटिश सेना द्वारा स्थापित एक रेजीमेंट है. यहां ब्रिटिशकालीन कब्रिस्तान भी है जिसमें 20-25 बड़े अधिकारियों की कब्रें हैं.
हालही में यूपी के मेरठ में इंग्लैंड से 16 सदस्यीय दल आया था. यह दल अपने पूर्वजों की कब्र देखने के लिए आया था. हालांकि इन्हें भी अपने पूर्वजों की कब्रें ढूंढने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थीं.
इसी तरह यूपी के कानपुर में भी कई ऐसी कब्रें हैं जो ब्रिटिशकालीन हैं और उनके वंशज दूसरे देशों में रहते हैं. हर साल उनकी कब्र सूनी रह जाती है, इस पर कोई मोमबत्ती जलाने वाला भी नहीं होता.
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