बात जब शौचालय की उपलब्धता आती है, तो ओडिशा लगातार भारत में सबसे खराब जगहों में शुमार होता रहा है. लेकिन अब इस पिछड़े राज्य के कुछ गांवों से कामयाबी की कुछ दास्तानें सामने आ रही हैं.
शौचालय के इस्तेमाल के लिए लोगों को राजी करने और प्रोत्साहन देने से इसके देवगढ़ और झारसुगुड़ा के कुछ गांवों में एक खामोश और अनोखी क्रांति धीरे-धीरे विस्तार ले रही है. इन गांवों को स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के तहत ओडीएफ (खुले में शौचमुक्त) गांव घोषित किया जा चुका है. यहां के ग्रामीणों ने जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ मिलकर ना सिर्फ शौचालय तैयार कर इनकी संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया, बल्कि लोगों के व्यवहार में भी बदलाव लाने के उपाय किए.
लोगों को बनाया शौचालय का मालिक
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ओडिशा में सेनिटेशन (स्वच्छता) कवरेज मात्र 54.89% है जो कि बेहद कम है. यहां सरकारी अधिकारियों और वालंटियर के सामने हमेशा एक भारी चुनौती रही है कि लोगों को विकास के लिए अपने अंदर बदलाव लाने को किस तरह राजी किया जाए, शौचालय के लिए घर से बाहर जाने की युगों पुरानी आदत को तोड़ देने को कैसे समझाया जाए. इस समस्या से पार पाने के लिए एक तरीका था कि उनको शौचालय का मालिक बना दिया जाए, ना कि इसे सरकारी स्कीम का ‘एक उत्पाद’ बने रहने दिया जाए.
साल 2017, में देवगढ़ जिले की लुलांग पंचायत के सदस्य ने ‘मेरा शौचालय’ अभियान के साथ एक अनोखी लड़ाई शुरू की. कई गांवों के लोगों को अपने शौचालय की बाहरी दीवारों को सुंदर चित्रों से सजाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. वास्तव में इसका मकसद यह था कि लोगों में शौचालय को लेकर अपनेपन का अहसास पैदा होगा और लोग वास्तव में इनका इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित होंगे.
देवगढ़ में स्वच्छ भारत मिशन के कंसलटेंट कुमुद सतपथी, जो खुद भी इस अभियान की शुरुआत से जुड़े रहे हैं, बताते हैं कि, 'स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए शौचालयों का पहले इनके लाभार्थियों द्वारा दुरुपयोग किया जाता था और इन्हें भी किसी सरकारी स्कीम के दूसरे उत्पादों की तरह ही समझा जाता था, जो कि उनके इस्तेमाल के लिए नहीं है. गांव वाले इन शौचालयों का इस्तेमाल गाय-भैंस का गोबर, जलावन की लकड़ी और चारा जमा करने के लिए किया जाता था. उनके लिए अपनेपन का कोई अहसास नहीं होता था.'
सब्सिडी के तौर पर 12,000 और 15,000 रुपए (अनुसूचित जाति और जनजाति के अनुसार) सरकार द्वारा अपना शौचालय बनाने के लिए दिए जाते हैं. 12,000 रुपए की सब्सिडी राशि में केंद्र सरकार का हिस्सा 9,000 रुपए (75 फीसदी) और राज्य सरकार का 3,000 रुपए (25 फीसदी) होता है.
सतपथी बताते हैं कि देवगढ़ को पहले ओडीएफ जिले का दर्जा मिलने का कारण मुख्यतः जमीनी स्तर पर किए नए उपायों, वालंटियर द्वारा कड़ी निगरानी और जमीनी कार्यकर्ताओं द्वारा लोगों को अपनी आदत बदलने में मदद के लिए प्रोत्साहित करना रहा है. वह कहते हैं कि, 'पहले पहल हमारी योजना शुरू होने से पहले ही नाकामयाब हो गई. वह देवगढ़ के रायमल ब्लॉक का सिमिलिथा गांव था, जहां हमें अचानक कामयाबी मिली. इसके बाद आसपास के 200 दूसरे गांवों के लिए सिमिलिथा आदर्श बन गया.'
सिमिलिथा गांव की आंगनबाड़ी वर्कर पद्ममिनी प्रधान पहली शख्स थीं, जिन्होंने अपनी दीवार पर फूल और पत्ती की चित्रकारी की. जल्द ही उन्होंने देखा कि इस साधारण से कदम से शौचालय का इस्तेमाल बढ़ गया है, खासकर बच्चों में.
पद्ममिनी बताती हैं कि, 'चित्रकारी वाले शौचालय जल्द ही बच्चों में लोकप्रिय हो गए. वो इन शौचालयों का इस्तेमाल करना पसंद करते थे. ना सिर्फ सिमिलिथा में बल्कि आसपास के कई गांवों में भी बड़े पैमाने पर इस आइडिया की नकल की गई.'
वह बताती हैं कि किरतनपली, देवझरन, हरिहरपुर, गनूरिबनी, हरुदापली, लक्ष्मीपुर और गुदेईमारा जैसे कुछ दूसरे गांवों में शौचालय के प्रति अपनेपन की भावना से काफी बदलाव आया. स्थानीय लोगों ने अपने त्याग दिए गए कमोड का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. ग्राम पंचायत मॉनीटर दमारुद्र कुमुरा बताते हैं कि यह चलन देवगढ़ के 200 दूसरे गांवों में भी अपनाया गया.
किरतनपली गांव की मालती बेहरा बताती हैं कि, 'यह आइडिया इतना लोकप्रिय हुआ कि हमारे गांव के लोगों ने तकरीबन सभी शौचालयों की दीवारों पर चित्रकारी कर दी.'
शौचालय को बीमारी भगाने वाली जगह के तौर पर किया पेश
चित्रकारी के साथ ही स्वच्छताग्रहियों (वालंटियर) द्वारा लोगों को प्रेरित करने वाला एक और कदम यह उठाया गया कि शौचालय को एक गंदी जगह के बजाय बीमारी और संक्रमण भगाने वाली जगह के तौर पर पेश किया गया. इस्तेमाल नहीं किए जा रहे शौचालय जो कि आमतौर पर झाड़-झंखाड़ से घिरे होते थे, अब बाहर रखे गमलों से सजे हुए हैं. ‘निगरानी कमेटी’ का काम यह पक्का करना था कि शौचालय के आसपास सफाई और सजावट हो.
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किरतनपली गांव की निगरानी कमेटी के सदस्य जादुमनी साहू ने बताया कि 'हमारी ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव पास किया है कि जो कोई भी खुले में शौच करता पाया जाएगा, उसे 500 रुपए जुर्माना देना होगा, दूसरी तरफ व्हिसिल ब्लोअर को प्रति केस 250 रुपया मिलेगा. नियम तोड़ने वाले को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाएगा. सतर्कता के लिए निगरानी पैनल भी बनाए गए. अब हमारे गांव में खुले में शौच का एक भी मामला नहीं है.'
सिमिलिथा का दौरा इस पर भी रौशनी डालता है कि किस तरह बच्चों को व्यक्तिगत साफ-सफाई के बारे में जागरूक किया गया. यहां के ज्यादातर बच्चे शौचालय जाने के बाद और खाना खाने से पहले हाथ धोते हैं. सिर्फ यही नहीं, वो चॉकलेट रैपर और दूसरी बेकार चीजें गांव में लगे पांच बड़े कूड़ेदानों में ही फेंकते हैं.
स्वच्छताग्रही सुनीता गोप बताती हैं कि जागरूकता के उपाय गांव वालों और ग्राम सभा के सामूहिक प्रयास का नतीजा हैं. वह कहती हैं, 'आप देख सकते हैं कि सफाई से हमारे गांव में मक्खियां और मच्छर कितने कम हो गए हैं.'
किरतनपली गांव के पूर्व सरपंच संतोष कुमार राउत बताते हैं कि डायरिया, टायफाइड और अन्य संचारी रोग एक साल में बहुत कम हो गए हैं. राउत कहते हैं कि, 'जमीनी स्तर पर बदलाव साफ देखे जा सकते हैं. अब चंद ही बच्चे गंभीर बीमारियों का शिकार होते हैं.'
लुलांग पंचायत में काम करने वाले जिला प्रशासन के अधिकारी बताते हैं कि देवगढ़ और झारसुगुड़ा के 700 गावों में से हर गांव में साफ-सफाई का काम देखने के लिए कम से कम एक स्वच्छताग्रही है.
(मनीष कुमार भुवनेश्वर में रहने वाले फ्रीलांस लेखक हैं और भारत भर में फैले ग्रासरूट रिपोर्टरों के नेटवर्क 101Reporters.com के सदस्य हैं.)
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