देश में काफी वक्त से रेप कानूनों को जेंडर न्यूट्रल किए जाने की बहस चल रही है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने यही मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया. इस याचिका में मांग की गई थी कि भारतीय आचार संहिता की धारा 375 को खत्म किया जाए, क्योंकि ये जेंडर न्यूट्रल नहीं है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि उसका फोरम इस मामले पर कार्रवाई करने के लिए उचित नहीं है. जज की बेंच ने कहा कि कानून में बदलाव करना है या नहीं, इस पर विचार करना संसद का काम है. कोर्ट ने इस मुद्दे पर केंद्र का जवाब भी मांगा है.
क्रिमिनल जस्टिस सोसाइटी ऑफ इंडिया की ओर से दाखिल की गई इस याचिका पर सुनवाई कर रहे चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट अभी इस मामले में इस चरण पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता. ये मुद्दा संसद में उठना चाहिए.
बता दें कि दिल्ली हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस सी हरि शंकर ने इस साल जुलाई में किसी विशेष लिंग के प्रति ज्यादा संवेदनशीलता रखने वाले कानूनों की प्रवृत्ति पर सुनवाई करते हुए सवाल पूछा था क्या भारत में कभी भी रेप कानूनों को लागू करने का सही वक्त आएगा? उस सुनवाई में बेंच की ओर से नियुक्त किए गए एमिकस क्यूरी ने कहा था कि भारत में अभी इन कानूनों को जेंडर न्यूट्रल करने का सही वक्त नहीं है. हालांकि उन्होंने बताया था कि दुनिया भर में ऐसी धारणा है कि ये कानून जेंडर न्यूट्रल होने चाहिए.
क्यों है कानूनों को जेंडर न्यूट्रल करने की मांग और क्या भारत में ऐसा संभव है?
इस साल फरवरी में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही एक याचिका को खारिज किया था. इस याचिका में यौन शोषण, स्टॉकिंग, दूसरों की अनभिज्ञता में उनसे यौनिक आनंद लेना, इज्जत से खिलवाड़ करने आदि अपराधों के कानूनों को जेंडर न्यूट्रल करने की मांग की गई थी.
तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए ये सकारात्मक प्रावधान हैं. ये काफी हवा-हवाई याचिका है, जिसपर हम सुनवाई नहीं कर सकते. ये संसद में बहस का मुद्दा है.
सुप्रीम कोर्ट के ही वकील ऋषि मल्होत्रा ने ये याचिका दाखिल की थी. उन्होंने तर्क दिया था कि कानून को अपराधियों के बीच में भेदभाव नहीं करना चाहिए.
उन्होंने कहा था, 'अपराध का कोई लिंग नहीं होता इसलिए हमारे कानूनों का भी कोई लिंग नहीं होना चाहिए. महिलाएं भी उन्हीं कारणों से अपराध करती हैं, जिनकी वजह से पुरुष. कानून अपराधियों में कोई भेदभाव नहीं करता, न ही करना चाहिए, जिसने भी अपराध किया है वो कानून के तहत सजा का हकदार है.'
आमतौर पर कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग इसी तर्क पर होती है कि अपराध की कोई उम्र, लिंग, जाति, रंग या राष्ट्र नहीं होता. इसीलिए समानता के लिए कानून का झुकाव किसी खास लिंग की ओर नहीं होना चाहिए.
क्या कहना है एक्सपर्ट्स का?
द न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चेन्नई की एक सीनियर वकील सुधा रामलिंगम का कहना था कि भारत अभी भी इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि यहां जेंडर न्यूट्रल लॉ लागू किए जाएं. उन्होंने कहा था, 'वर्तमान में जो कानून हैं, उन्हें महिलाओं की स्थिति को ध्यान में रखकर बनाया गया था क्योंकि अभी वो काफी कमजोर स्थिति में हैं. अगर जेंडर न्यूट्रल कानून होंगे तो उन्हें महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा.' उनका ये भी कहना था कि ऐसा नहीं है कि पुरुषों की मदद के लिए कानून नहीं है, अगर उन्हें कानूनी मदद चाहिए तो वो भी कानून का सहारा ले सकते हैं.
इसी रिपोर्ट में बेंगलुरु की महिला अधिकार कार्यकर्ता बृंदा अडिगे ने भी कहा था कि मौजूदा कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाने की बजाय विशेष मामलों के लिए विशेष कानून बनाए जाने चाहिए.
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