'बार के सदस्यों और व्यक्तिगत तौर पर हाजिर होने वाले पक्षों को जानकारी के लिए अधिसूचित किया जाता है कि, अब से, जो मामले पहले से किसी अन्य बेंच (खंडपीठ) में निर्दिष्ट/ सूचीबद्ध (लिस्टिड) नहीं हैं, उनके मौखिक उल्लेख की इजाजत सिर्फ चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अध्यक्षता वाली कोर्ट में सुबह 10.30 बजे ही दी जाएगी.'
संक्षिप्त सूचना वाला यह सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट के लेखागार (रजिस्ट्री) द्वारा 10 नवंबर 2017 को जारी किया गया था. जो आगे चलकर यानी शुक्रवार, 12 जनवरी, 2018 को हुई दुःखद घटनाओं का सबब बना. 12 जनवरी को जस्टिस चेलेमेश्वर ने एक तरह से भारत के चीफ जस्टिस के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया? CJI दीपक मिश्रा के खिलाफ जस्टिस चेलेमेश्वर और उनके तीन सहयोगी जजों ने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी.
जस्टिस चेलेमेश्वर ने अपनी इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को एक असाधारण 'कदम' बताया था. हालांकि वह अपने 'असाधारण कदम' की 'असाधारण स्थिति' को स्पष्ट नहीं कर पाए थे. जस्टिस चेलेमेश्वर और तीन अन्य वरिष्ठ जजों ने कहा था कि, उन्हें प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर किया गया.
प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मीडिया द्वारा बहुत उकसाने औेर कुरेदने के बाद जस्टिस चेलेमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसफ ने बड़ी अनिच्छा के साथ 10 नवंबर से पहले और बाद में हुई घटनाओं का उल्लेख किया. शायद यही वह घटनाएं थीं, जो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों के बीच पनपते असंतोष के ज्वालामुखी में विस्फोट का कारण बनीं.
लेकिन चारों बागी जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में उस असाधारण सर्कुलर के बारे में जरा भी जिक्र नहीं किया, जो संभवत: सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा विवाद की सबसे अहम वजह है. वह असाधारण सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट में कामकाज के वर्तमान तरीके को नाममात्र को रेखांकित करता है. लेकिन अगर उस सर्कुलर की पंक्तियों पर गौर किया जाए, तो ऐसा लगता है कि वह बड़े बदलाव की ओर साफ इशारा कर रहा है.
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जस्टिस गोगोई ने स्पष्ट किया कि, उस दिन उनके तत्काल भड़कने की वजह जस्टिस बी.एच. लोया की संदिग्ध मौत से संबंधित केस को 'जूनियर' बेंच को आवंटित करना बनी. जस्टिस लोया की मौत का केस 12 जनवरी की सुबह ही 'जूनियर' बेंच को आवंटित किया गया था.
प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान चारों वरिष्ठ जजों ने एक पत्र भी जारी किया. यह पत्र 27 अक्टूबर 2017 की उस घटना के संदर्भ में था, जिसमें दो जजों की बेंच ने एक अहम केस में आदेश पारित किया था. यह वही केस था, जिसे अब पी.आर. लूथरा बनाम भारत गणराज्य के तौर पर जाना जाता है. इस मामले में भी चारों जजों ने, कुछ खास केसों की सुनवाई के लिए 'पसंदीदा' बेंच नियुक्त करने को लेकर, सीजेआई के फैसले के खिलाफ अपना ऐतराज जाहिर किया था.
पत्र में सीजेआई को जजों की नियुक्ति से संबंधित मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर का भी हवाला दिया गया था, और कहा गया था कि, अगर कोई संवैधानिक बेंच पहले ही से किसी केस की सुनवाई कर रही है, तब उस केस के लिए नई बेंच गठित नहीं की जा सकती है.
कैसे उलझ गया मामला?
इन दोनों घटनाओं से यह समझना मुश्किल है कि, आठ हफ्तों (27 अक्टूबर-12 जनवरी) के भीतर मामला इतना कैसे उलझ गया कि, देश के चार वरिष्ठतम जज इतने मजबूर हो गए कि, उन्हें सार्वजनिक तौर पर यह कहना पड़ा कि, अब 'देश फैसला करे' कि सर्वोच्च न्यायालय की साख को कैसे बरकरार रखा जाए.
लूथरा केस ऐसा पहला मामला नहीं है, जिसके आवंटन को लेकर असहमति के सुर बुलंद हुए हैं. भारतीय अदालतों में केसों को पसंदीदा बेंचों को आवंटित करने का चलन बहुत पुराना है. ऐसा सुप्रीम कोर्ट के अस्तित्व में आने से पहले होता आ रहा है. लोया केस में बखेड़ा खड़ा होने से यह प्रथा खत्म नहीं होने वाली है. 16 जनवरी से सात अहम केसों की सुनवाई करने वाली संवैधानिक बेंच से चारों बागी जजों को दूर रखा जाना इस बात का पर्याप्त सबूत है.
इसलिए कहा जा सकता है कि, 12 जनवरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कई कमियां रह गईं, जिनके चलते इस मुद्दे को ठीक से समझा नहीं जा सका. सीजेआई ने सुप्रीम कोर्ट की पुरानी परिपाटी के खिलाफ जाकर ऐसा कौन सा काम किया कि, जिससे चारों जज उनके खिलाफ इतनी कड़वी शिकायतें कर रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट देश का एक संस्थान है, जहां पुरानी परंपरा को संविधान के बराबर श्रद्धेय माना जाता है, वहां यह चारों जज खुद क्यों पुरानी परिपाटी को तोड़ रहे हैं? चारों जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके तो ऐसा ही किया है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के मुताबिक जज कभी मीडिया से मुखातिब नहीं होते हैं.
हमने ध्यान नहीं दिया कि, 10 नवंबर का सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा असाधारण स्थिति को समझने में खासी मदद कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा असाधारण स्थिति की वजह से ही चारों जजों ने समान रूप से असाधारण प्रतिक्रिया दी.
चलिए, सुप्रीम कोर्ट के सर्कुलर पर एक नजर डालते हैं:
नियम के मुताबिक, मौखिक उल्लेख चीफ जस्टिस द्वारा सुनाया जाता है, जिसकी प्राय: पुनरावृत्ति नहीं होती है. लेकिन 55 शब्दों का यह अहानिकारक सा दिखने वाला सर्कुलर बेहद साधारण था. मोटे तौर पर कहा जाए तो, सीजीआई मिश्रा अपने वरिष्ठ सहयोगी जस्टिस चेलेमेश्वर के अधिकारों में कटौती कर रहे थे. वह इसलिए क्योंकि, जस्टिस चेलेमेश्वर ही पूरी तरह से मौखिक सुनवाइयों की जिम्मेदारी संभाला करते थे.
लंबे वक्त से चली आ रही परंपरा के खिलाफ यह यह शक्तिशाली कदम था. जबतक सर्कुलर जारी नहीं हुआ था, तबतक सीजीआई के संवैधानिक बेंच के मामलों में व्यस्त रहने पर, कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज ही मौखिक उल्लेख सुना करते थे. वास्तव में, सर्कुलर जारी होने से पहले लगातार दो दिन यानी 8 और 9 नवंबर को जस्टिस चेलेमेश्वर ने मौखिक उल्लेख सुने थे और उस आदेश को पारित किया था जिसने सीजीआई को कठिन परिस्थितियों में डाल दिया था.
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इस सर्कुलर को सीजेआई का पलटवार या वापसी माना गया. सर्कुलर के जरिए सीजीआई ने सुनिश्चित करने की कोशिश की कि, संवैधानिक बेंच में व्यस्त होने के दौरान, सबसे वरिष्ठ सहयोगी उनकी अनदेखी न करने लगें. इसीलिए सर्कुलर में कहा गया कि, मौखिक उल्लेख केवल चीफ जस्टिस के समक्ष सुबह 10.30 बजे तक ही किए जा सकते हैं. सीजेआई ने अपने अदालत में एक प्रक्रियात्मक परिवर्तन को प्रभावी किया, जिसके तहत मौखिक उल्लेख के लिए वह हमेशा उपलब्ध रहेंगे. सीजेआई अब रोजाना सुबह 10.30 बजे मौखिक उल्लेख सुना करेंगे और उसके बाद ही संवैधानिक बेंच को आयोजित करेंगे. यानी जस्टिस चेलेमेश्वर की जगह अब सिर्फ सीजेआई ही मौखिक उल्लेख की सुनवाई किया करेंगे.
क्यों पैदा हुआ यह संकट?
पहला सवाल जो मन में उभरता है कि, सीजेआई मिश्रा ने अपने सबसे वरिष्ठ सहयोगी को मौखिक उल्लेख की सुनवाई से परे क्यों किया? इस सवाल का जवाब जितना आसान है उतना ही दुखद भी है. दरअसल यह भारत के दो वरिष्ठतम जजों के बीच विश्वास का संकट है. एमसीआई रिश्वतकांड केस की लगातार तीन दिन (8, 9 और 10 नवंबर) को हुई न्यायिक कार्यवाही के दौरान विश्वास का यह संकट स्पष्ट रूप से सामने आया. जोकि सुप्रीम कोर्ट में उठे पूरे विवाद का केंद्रबिंदु प्रतीत होता है.
आइए, अब जरा मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट केस के बारे में जान लेत हैं. सीजेआई मिश्रा की अगुवाई वाली तीन जजो की एक बेंच इस केस की सुनवाई कर रही थी. दरअसल एमसीआई ने ट्रस्ट को एक मेडिकल कॉलेज खोलने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. एमसीआई ट्रस्ट के 2 करोड़ की बैंक गारंटी को भी इनकैश करना चाहती थी. जिसके खिलाफ ट्रस्ट ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एमसीआई को बैंक गारंटी इनकैश करने से रोक दिया था. 18 सितंबर को बेंच ने फिर से बैंक गारंटी एनकैश कराने के एमसीआई के फैसले पर स्टे लगा दिया था. साथ ही बेंच ने एमसीआई को निर्देश दिया था कि, वह नए सिरे से निरीक्षण करके पता लगाए कि, क्या ट्रस्ट साल 2018-2019 के शैक्षिक सत्र में छात्रों को दाखिला दे सकता है या नहीं. तब से लेकर अबतक यह केस अब भी उसी जगह पर बरकरार है.
लेकिन, अगले दिन यानी 19 सितंबर को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने छह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जिनमें उड़ीसा हाईकोर्ट के एक पूर्व जज आई.एम. कुद्दूसी और ट्रस्ट के दो मैनेजर शामिल थे. आरोप था कि, सभी छह लोग सुप्रीम कोर्ट में केस के फैसले को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं.
8 नवंबर को, जूडीशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) नाम की एनजीओ की तरफ से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और एमसीआई केस की तत्काल सुनवाई की मांग की. अपनी याचिका में प्रशांत भूषण ने कहा कि, एमसीआई केस की जांच सीबीआई के बजाए सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) से कराई जानी चाहिए.
प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि, एमसीआई केस की सुनवाई कर रही सीजेआई की अध्यक्षता वाली बेंच पर सवाल उठ रहे हैं, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को सीधे तौर पर जांच की निगरानी करना चाहिए. प्रशांत भूषण यह भी दलील दी कि, सीबीआई चूंकि एक सरकारी संगठन है, इसलिए केस में हेरफेर और गड़बड़ी की जा सकती है.
चूंकि, सीजेआई मिश्रा उस दिन संवैधानिक बेंच में सुनवाई कर रहे थे, इसलिए भूषण की याचिका मौखिक उल्लेख के लिए जस्टिस चेलेमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत की गई. जस्टिस चेलेमेश्वर ने भूषण की याचिका को स्वीकार कर लिया और दो दिन बाद यानी 10 नवंबर को अपनी बेंच में सुनवाई की तारीख दे दी.
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हालांकि जस्टिस चेलेमेश्वर यह बात बखूबी जानते थे कि, एमसीआई केस की सुनवाई पहले ही से सीसेआई की अध्यक्षता वाली बेंच कर रही है. विशेष रूप से, यह घटना लूथरा मामले के 12 दिन बाद हुई थी, जिसके चलते चार सबसे वरिष्ठ जज खिन्न थे. चारों जजों की नाराजगी की वजह यह थी कि, लूथरा केस को संवैधानिक बेंच ने सीज (जब्त) कर दिया था, उसके बावजूद यह केस एक नई बेंच को आवंटित कर दिया गया था.
सीजेआई मिश्रा उस दिन कोर्ट से जल्दी निकल गए थे. बाद में, 8 नवंबर को ही उन्होंने इस केस को दोबारा एक और बेंच को सौंप दिया. इस बेंच में जस्टिस ए.के. सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे, जिन्होंने 10 नवंबर तक इस केस की सुनवाई की. प्रभावी रूप से कहा जाए तो, सीजेआई ने इस केस को जस्टिस चेलेमेश्वर के कोर्ट से बाहर निकाला लिया था.
अगले दिन यानी 9 नवंबर को एक और वकील कामिनी जायसवाल ने एमसीआई मामले में एक नई याचिका दायर की. उन्होंने भी यह दलील दी कि, सीबीआई जांच से पता चला है कि, एमसीआई केस की सुप्रीम कोर्ट की बेंच को प्रभावित करने के प्रयास किए जा रहे हैं. कामिनी जायसवाल ने भी केस को एसआईटी को सौंपने की वकालत की. इसके अलावा उन्होंने मांग की कि, सीजेआई मिश्रा को इस केस की सुनवाई कर रही बेंच का हिस्सा नहीं होना चाहिए.
कामिनी जायसवाल के वकील दुष्यंत दवे ने तत्काल सुनवाई के लिए सुबह 10.30 बजे मौखिक उल्लेख किया. चीफ जस्टिस उस वक्त भी संवैधानिक बेंच के मामलों में व्यस्त थे. इसलिए मौखिक उल्लेख जस्टिस चेलेमेश्वर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर के सामने हुआ था. दोनों जज याचिका की सुनवाई उसी दिन 12:45 बजे करने पर सहमत हुए थे.
इस बीच, चीफ जस्टिस की संवैधानिक बेंच, जो आमतौर पर लंच के लिए 1 बजे खत्म होती है, उस दिन उसने अचानक दोपहर से पहले ही अपना कामकाज खत्म कर लिया. और जब जस्टिस चेलेमेश्वर की बेंच ने दोपहर 12.45 बजे कामिनी जायसवाल की याचिका पर सुनवाई शुरू की, तो सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार के एक अधिकारी ने बेंच को सीजेआई का एक नोट सौंपते हुए कहा कि, चूंकि सीजेआई ने पहले ही ऐसा मामला एक अन्य बेंच को सौंप रखा है, लिहाजा जस्टिस चेलेमेश्वर को इस मामले पर आदेश पारित करने से दूर रहना चाहिए.
लेकिन, जस्टिस चेलेमेश्वर और जस्टिस नजीर ने सीजेआई की सलाह को दरकिनार करते हुए कामिनी जायसवाल की याचिका स्वीकार कर ली. बीते दिन के विपरीत, जब उन्होंने इस केस को दो सदस्यीय बेंच को सौंपा था, इस बार उन्होंने न केवल संवैधानिक बेंच में इसका उल्लेख किया बल्कि अपनी आज्ञा पत्र को लिखित रूप में भी दर्ज करवाया. जिसके तहत केस की सुनवाई वरिष्ठता क्रम में पहले पांच जजों की बेंच को सौंपी गई थी. जबकि परंपरा यह रही है कि, संवैधानिक बेंच के गठन का फैसला सीजेआई करते आए हैं, लेकिन जस्टिस चेलेमेश्वर ने इस परंपरा को तोड़ दिया था.
सुनवाई के दौरान हुई हुई थी प्रशांत भूषण और सीजेआई के बीच बहस
जस्टिस सीकरी और जस्टिस भूषण की बेंच ने 10 नवंबर की सुबह केस पर सुनवाई की, और मामले को संवैधानिक बेंच में भेज दिया. कुछ घंटों के भीतर चीफ जस्टिस ने खुद की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय बेंच का गठन किया, जिसमें जस्टिस चेलेमेश्वर को शामिल नहीं किया गया था. लेकिन दो जजों ने इस केस से अपना नाम वापस ले लिया. जिसके बाद दोपहर 3 बजे पांच सदस्यीय बेंच ने इस केस की सुनवाई की. सुनवाई के दौरान बहुत बदसूरत नजारा देखने को मिला. दरअसल प्रशांत भूषण बार-बार यह मांग कर रहे थे कि, केस की सुनवाई कर रही बेंच से सीजेआई को अलग हो जाना चाहिए. प्रशांत भूषण बोल रहे थे कि, 'एफआईआर सीधे आपके खिलाफ है.' जिसके जवाब में सीजेआई ने कहा कि, 'एफआईआर में मेरे खिलाफ एक भी शब्द नहीं है.'
सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण अदालत में फट पड़े थे. प्रशांत भूषण की शिकायत थी कि, उन्हें अदालत में अपना पक्ष रखने की अनुमति ही नहीं दी जा रही है. थोड़ी देर बाद, सीजेआई मिश्रा ने बेंच का फैसले सुनाया. अदालत में दोहराया गया कि, सीजेआई ही मास्टर ऑफ द रोस्टर है. साथ ही बीते दिन के जस्टिस चेलेमेश्वर के संवैधानिक बेंच के गठन के आदेश को रद्द कर दिया गया था. इसके अलावा प्रशांत भूषण और कामिनी जयसवाल की याचिकाओं को एक नई बेंच को सुपुर्द करने की बात कही गई, जिसका गठन दो हफ्तों के भीतर सीजेआई को करना था.
इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चलते सुप्रीम कोर्ट की बेंचें दरबदर होती नजर आईं. वहीं इन्हीं घटनाओं की वजह से सुप्रीम कोर्ट के अभूतपूर्व सर्कुलर की पृष्ठभूमि पर सवाल खड़े हुए. अपने सबसे वरिष्ठ सहयोगियों से मिली दो चुनौतियों के बाद, सीजेआई मिश्रा ने दिखा दिया कि वह अपने अधिकारों का हनन नहीं होने देंगे. दिन समाप्त होने तक उन्होंने सुनिश्चित कर दिया कि, वह अपने वरिष्ठ सहयोगियों की मनमानी बर्दाश्त नहीं करेंगे. मौखिक उल्लेख की सुनवाई से बाकी जजों को दूर करके उन्होंने अपनी अथॉरिटी का एहसास करा दिया था.
यही कारण है कि, चारों जजों ने सीजेआई को जो पत्र लिखा था, उसका मूल विषय सीजेआई को मास्टर ऑफ रोस्टर के रूप में मान्यता देना था. लेकिन यह भी जाहिर करना था कि, मास्टर ऑफ रोस्टर का मतलब यह नहीं है कि, सीजेआई अपने सहयोगियों के ऊपर या वरिष्ठ अधिकारी है. यानी सीजेआई कानूनी या तथ्यात्मक रूप से अपने सहयोगियों से सर्वोपरि नहीं हैं. देश के न्याय शास्त्र में मशहूर है कि, चीफ जस्टिस सभी जजों के बराबर हैं, लेकिन वह पक्ति में सबसे पहले नंबर पर आते हैं. वह न तो किसी जज से ज्यादा अहमियत रखते हैं, और न ही किसी जज से कम अहमियत रखते हैं.
सीजेआई मिश्रा और चारों बागी जजों के बीच मंगलवार को पहली बैठक हुई, लेकिन उनके बीच जमी बर्फ पिघल नहीं सकी. सुलह के लिए उन्होंने बुधवार दोपहर को दूसरा प्रयास किया. लेकिन जब तक उनके बीच भरोसा कायम नहीं होगा, तबतक कोई स्थायी समाधान संभव नहीं है. इसके अलावा जब सर्कुलर प्रभावी है, तबतक सुप्रीम कोर्ट में बीते कुछ महीनों में जारी उतार-चढ़ावों को भूलना मुश्किल है.
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