सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सभा चुनावों के मत-पत्रों में नोटा के विकल्प की इजाजत देने वाली चुनाव आयोग की अधिसूचना को रद्द करके प्रतिगामी फैसला दिया है. फैसले के अनुसार, नोटा की व्यवस्था आम चुनावों के लिए है, बनाई गई है और इसे राज्य सभा के अप्रत्यक्ष चुनावों में लागू नहीं किया जा सकता.
याचिका में यह कहा गया था कि नोटा के प्रावधान से राज्य सभा चुनावों में खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. दिलचस्प बात यह है कि सरकार की तरफ से पेश अटार्नी जनरल ने कांग्रेसी नेता अहमद पटेल के मामले में दायर इस याचिका का समर्थन किया. कांग्रेस के सचेतक शैलेश परमार की याचिका में नोटा के खिलाफ सरकार और विपक्ष एकजुट हो गए और सुप्रीम कोर्ट भी कानून की प्रगतिशील व्याख्या करने में विफल रही. सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों के बेंच ने इसके बाद के एक मामले में राजनीति में अपराधीकरण रोकने के लिए संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग द्वारा नियम बनाने की बात कही, तो फिर नोटा के लिए आयोग के अधिकारों पर सवालिया निशान लगाना कैसे क़ानून सम्मत है?
एक व्यक्ति और एक वोट के नियम में नोटा की वैल्यू क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक व्यक्ति, एक वोट और एक वैल्यू के सिद्धांत की बात कही है. वर्तमान चुनावी व्यवस्था में प्रत्याशी के पक्ष या विपक्ष में डाले जाने वाले वोट की वैल्यू तो होती है, परन्तु नोटा के वोट की वैल्यू क्यों नहीं होती? अगर नोटा के इस्तेमाल से चुनावी परिणाम में कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो फिर जनता बेवजह पोलिंग बूथ के चक्कर क्यों लगाए?
चुनाव आयोग के अधिकारों पर कैंची क्यों?
नोटा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में फैसला दिया था, जिसके अनुसार चुनाव आयोग ने इसे सभी चुनावों में लागू कर दिया. राज्य सभा चुनावों में नोटा की व्यवस्था को लागू करने के लिए चुनाव आयोग ने जनवरी 2014 और नवंबर 2015 में आदेश जारी किए. संविधान के अनुच्छेद-80(4) और जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग द्वारा जारी अधिसूचना को अपने फैसले से रद्द कर दिया. चुनाव आयोजित करने के लिए 1961 में बनाए गए नियमों के तहत चुनाव आयोग को नोटा जैसे मामलों में आदेश जारी करने का अधिकार है, जिन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सवालिया निशान लग गए हैं.
राज्यसभा में नोटा के लिए संविधान संशोधन या नए कानून की जरूरत नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने लिली थॉमस मामले में 1993 में यह व्यवस्था दी थी कि जनता को ‘वोट नहीं देने’ का भी अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने 2006 के कुलदीप नैयर में दिए गए फैसले के आधार पर यह कहा कि नोटा का कानून सिर्फ प्रत्यक्ष चुनावों में लागू होता है. इसके जवाब में चुनाव आयोग ने कहा कि नोटा को सभी चुनावों में लागू करने की व्यवस्था है क्योंकि पीयूसीएल के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष चुनावों की कोई सीमा नहीं बनाई थी. नोटा की व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लागू हुई थी, और इसके लिए संविधान में संशोधन नहीं किया गया. तो फिर राज्यसभा चुनावों में नोटा लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की बात क्यों की जा रही है?
राजनीतिक दलों द्वारा लागू व्हिप की बाध्यता की चक्की में निर्दलीय क्यों पिसें?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 1985 के 52वें संविधान संशोधन और 10वीं अनुसूची के प्रावधानों का जिक्र करते हुए व्हिप की व्यवस्था को नए सिरे से मान्यता दी है. व्हिप की व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट की इस मान्यता के बाद राज्यसभा चुनावों में अब राजनीतिक दलों की संख्या के अनुसार जीत पक्की होना तय है. दलों के बंधुआ विधायकों के इस दौर में निर्दलीय विधायकों के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कोई व्यवस्था क्यों नहीं दी?
नोटा को सार्थकता क्यों नहीं?
राजनीति और नेताओं से मोहभंग होने की वजह से 40 फीसदी से ज्यादा मतदाता चुनावों में वोट नहीं डालते. राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और जनता के आक्रोश को व्यक्त करने के लिए नोटा की व्यवस्था का प्रावधान किया गया था. दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनावों में 9000 से ज्यादा लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया, पर अंतिम नतीजों में उसका कोई परिणाम नहीं हुआ. नोटा में डाले गए वोट यदि हार-जीत के अंतर से ज्यादा हों तो चुनाव रद्द क्यों नहीं होना चाहिए?
जब तक नोटा की भी गिनती न हो, तब तक उसके व्यवस्था सदुपदेश जैसा ही है जिसके उल्लंघन पर पाप भी नहीं लगता. नोटा के अगले कदम के तौर पर राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल के अधिकारों की मान्यता के लिए नया क़ानून क्यों नहीं बनना चाहिए? नोटा को वैल्यू नहीं देने से आगामी चुनावों में जनता का रुझान कम हो सकता है, जो लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)
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