छत्तीसगढ़ के सुकमा में हाल में सीआरपीएफ के जवानों पर हुए हमले के बाद एक बार फिर नक्सली समस्या के स्वरूप और समाधान पर चर्चा शुरू हो गई है. पिछले कई बार की तरह इस बार सीआरपीएफ के जिन जवानों पर हमला हुआ, वे न तो किसी सर्च ऑपरेशन पर जा रहे थे और न ही किसी एंटी नक्सल ऑपरेशन पर.
वे जवान दरअसल एक नई बन रही सड़क की सुरक्षा में तैनात थे और एक नियमित प्रक्रिया के तहत उस सड़क को सैनिटाइज करने जा रहे थे, ताकि वहां मजदूर काम कर सकें.
सुकमा के बाद नक्सली समस्या के बारे में एक बार फिर बहस शुरू हो गई है कि यह लॉ एंड ऑर्डर का मसला है या फिर सोशल और इकनॉमिक पचड़ा है. आतंकवाद या नक्सलवाद पर होने वाली ये चर्चा हमेशा से पहले मुर्गी या पहले अंडे वाली शक्ल में आती है. इसलिए जरूरी है कि इन दोनों पक्षों को समझा जाए और इसके लिहाज से समस्या का उचित समाधान ढूंढा जाए. इस पर कई तरह के आइडिया पर काम हो सकता है.
कैसे खत्म हो सकते हैं नक्सल?
आइडिया नंबर एक: नक्सली विकास होने नहीं दे रहे, इसलिए नक्सलवाद बढ़ रहा है. इसलिए पहले नक्सलियों को खत्म किया जाए.
आइडिया नंबर दो: पहले विकास कीजिए. क्योंकि जब विकास होगा, स्थानीय वनवासियों को रोजगार मिलेगा, उनके बच्चों को शिक्षा मिलेगी, उनकी आमदनी का स्तर बढ़ेगा, उनके घरों में भी टीवी आएगा, फ्रिज आएगा, मोटरसाइकिल और गाड़ियां आएंगी, तो समाज में आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी. नक्सलवाद स्वयं ही खत्म हो जाएगा.
अब जरा समझिए कि इस लिहाज से दिक्कत क्या आ सकती है.
पहले आइडिया की दिक्कतः इलाके में विकास न होने के कारण नक्सलियों के लिए नए रंगरूट खोजना एक आसान काम होता है और नक्सलियों के खिलाफ होने वाली किसी भी कार्रवाई में कोलैटरल डैमेज यानी निर्दोष वनवासी समाज के जानमाल का नुकसान इतना ज्यादा हो जाता है कि वही कार्रवाई फिर अगली नक्सली खेप तैयार करने में ईंधन का काम करती है. तो कुल मिलाकर यह पहला आइडिया एक दुश्चक्र तैयार करता है, जिससे नक्सलवाद खत्म होना मुश्किल है.
क्यों फेल हुआ ऑपरेशन ग्रीन हंट
इस संदर्भ में ऑपरेशन ग्रीन हंट की चर्चा जरूरी है जो भारत सरकार की ओर से अक्टूबर 2009 में शुरू की गई थी. स्पेशल कोबरा कमांडो और छत्तीसगढ़ पुलिस की ओर से संयुक्त तौर पर गढ़चिरौली में शुरू किया गया यह अभियान अगले 4-5 वर्षों में 10 राज्यों में फैला, जिसके तहत एक अनुमान के मुताबिक एक समय पौन 3 लाख से ज्यादा सुरक्षा बल लगे. लेकिन यह अभियान असफल हुआ.
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही था कि नक्सल कोई अलग प्रजाति नहीं है, जिनकी दूर से पहचान की जा सकती है. कुछ सौ नक्सलियों को छोड़कर बाकी रंगरूट अमूमन गांवों में आम वनवासियों के बीच रहते हैं और उनकी पहचान बहुत कठिन है. उन्हें पकड़ने के चक्कर में बहुत बार सुरक्षा बल आराम से नक्सलियों के बिछाए जाल में फंस जाते हैं और आम वनवासी पुलिसिया प्रताड़ना का शिकार हो जाता है. इससे स्थानीय लोगों का पुलिस और सुरक्षा बलों से विश्वास उठता है, जिसका फिर नक्सली फायदा उठा जाते हैं.
इनके उलट आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के सफाए के लिए बनाए गए विशेष ग्रे हाउंड्स फोर्स की सफलता साबित करती है कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की सफलता वास्तव में हासिल की जा सकती है.
ग्रे हाउंड्स का गठन 1989 में किया गया था, जिसमें आंध्र प्रदेश पुलिस के विभिन्न विभागों से चुने हुए अधिकारियों को शामिल किया गया, उन्हें बुलेट प्रूफ जैकेट से लेकर नाइट विजन दूरबीन तक जैसे आधुनिक उपकरण और गुरिल्ला पद्धति की लड़ाई का खास प्रशिक्षण दिया गया. क्योंकि ये सारे अधिकारी राज्य पुलिस से थे, तो स्थानीय इलाके की पूरी जानकारी उन्हें थी, स्थानीय भाषा वे जानते थे और नक्सल प्रभावित इलाकों से इनफॉर्मर का नेटवर्क तैयार करने में उन्होंने सफलता पाई. नतीजा ये हुआ कि ग्रे हाउंड्स ने सफल अभियानों के जरिए आंध्र से नक्सलियों का सफाया कर दिया।
दूसरे आइडिया की दिक्कतः नक्सली भी समझते हैं कि विकास का परिणाम उनका साम्राज्य खत्म कर सकता है. इसलिए वे विकास की राह में जितना संभव होगा, मुश्किलें खड़ी करते रहेंगे. सड़क मजदूरों को मारते रहेंगे, स्कूलों को जलाते रहेंगे.
तो इससे निजात का रास्ता है ही नहीं ?
है, लेकिन उसके लिए सबसे पहले वनवासी क्षेत्रों के लिए विकास के अलग मॉडल को विकसित करना होगा, जिसमें उनकी जंगल और जमीन सुरक्षित रहे. विकास की मौजूदा सोच की दिक्कत यह है इसकी शुरुआत ही वनवासियों के घर, जंगल, पड़ोस और परिवेश की बलि से होती है. इस कीमत पर कोई भी वनवासी किसी विकास का स्वागत नहीं कर सकता.
उड़ीसा के पारादीप में कोरियाई कंपनी पॉस्को के अरबों की परियोजना के सबक यही हैं कि वनवासी क्षेत्रों को एफडीआई वाली परियोजनाओं की जरूरत नहीं है. ऐसी परियोजनाएं नक्सलवाद को खत्म नहीं करेंगे, उन्हें और बढ़ावा देंगे. इसलिए वनवासी क्षेत्रों के लिए विकास का मॉडल वो होना चाहिए जिसका जोर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नए मौके तैयार करने पर हो.
इस मॉडल को विकसित करने में स्थानीय वनवासी समाज की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि विकास को लेकर दशकों से उनके दिलों में घर जमाए शक और आशंका को खत्म किया जा सके.
आजादी के बाद एक के बाद एक कई सरकारों ने वनवासी समाज के साथ जिस तरह का असंवेदनशील व्यवहार किया है (और कई बार तो अमानवीय), उसने पहले ही इस ज़ख़्म को नासूर का रूप दे दिया है. इसलिए ज़ाहिर है कि इस नासूर को भर कर, ज़ख्म ठीक करना और फिर उन अंगों को पुष्ट बनाना जहां ये ज़ख़्म लगे हैं, केवल आधा समाधान है.
बाकी आधा वनवासी समाज का मन ठीक करने, उनमें सरकार और व्यवस्था के प्रति भरोसा पैदा करने और उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा बनाने के लिए उसके बाद शुरू होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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