आप कभी कश्मीर घूमने चले जाइए. वहां के किसी मुस्लिम से भारत और पाकिस्तान दोनों के बारे में बात कीजिए. वो आपको बड़े गर्व से ये बात जरूर बताएगा कि कैसे उसके पुरखों ने जिन्ना की वो अपील खारिज कर दी थी जिसमें उन्होंने राज्य (तब रियासत) के मुसलमानों से पाकिस्तान चलने को कहा था. लेकिन ये गर्व सिर्फ वहीं नहीं देश के कोने-कोने में बिखरा मिल जाएगा.
मशहूर लेखक राही मासूम रज़ा ने बाकायदा इस पर लिखा है. लेकिन क्या कोई समझता है कि उस कौम का आज वास्तविक दर्द क्या है? दरअसल इनका वास्तविक दर्द इनकी 'पहचान' है. इसी मुस्लिम पहचान की वजह से न जाने कितने युवाओं को आतंकी होने के शक में जेलों में ठूंस दिया गया. सालों प्रताड़ना दी गई.
ऐसे ही एक युवा थे दिल्ली के मोहम्मद आमिर. जिन्हें 14 साल जेल में तिल-तिल मरने के लिए सिर्फ इसलिए मजबूर कर दिया गया कि उन पर आतंक से जुड़े होने का शक था. आमिर ने अपने किशोरवय के दिन से लेकर जवानी के कई साल जेल में ही गुजारे.
18 साल की उम्र किसी भी इंसान की जिंदगी का वो अहम वक्त जहां वो ये तय करता है कि उसकी आने वाली जिंदगी कैसी और क्या होगी. लेकिन उस उम्र में आमिर को मिली सलाखें, साथ में मिला देशद्रोही,आतंकवादी होने का दाग.
पायलट बनने का आमिर का सपना 20 फरवरी 1998 की रात तब खत्म हो गया जब कुछ लोगों ने आमिर को जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया. आमिर घर से बाहर अपनी अम्मी की दवा लेने निकले थे. जिसे आमिर अपहरण समझ रहे थे दरअसल वो अरेस्ट था, और जिन्हें आमिर क्रीमिनल समझ रहे थे वो थे पुलिसवाले.
आंखों पर बंधी पट्टी जब हटी तो वो एक कोठरी में थे. शरीर पर कपड़े नहीं थेऔर दोनों हाथ बंधे हुए थे. कई दिनों तक चली मार पिटाई, टॉर्चर के बाद आमिर से जबरदस्ती खाली कागजों पर दस्तख्त करवाए गए. आमिर को नहीं पता था कि इन खाली पन्नों पर जो कहानी लिखी जाएगी वो उन्हें एक आतंकवादी बना देगी .ये खाली पन्ने दरअसल आमिर का कबूलनामा थे. कबूलनामा 1996-97 दिल्ली सीरियल ब्लास्ट में उनके शामिल होने का. ये कहानी आमिर ने लिखी तो नहीं थी पर अब वो इसके मुख्य किरदार थे.
इस कहानी को झूठा साबित करने में आमिर को 14 साल का वक्त लगा. ये सजा अकेले आमिर की नहीं थी, जो सजा आमिर तिहाड़ के अंदर काट रहे थे वो सजा उनके अम्मी-अब्बू बाहर काट रहे थे. इंसाफ की इस लड़ाई को लड़ते-लड़ते उनके अब्बू की मृत्यु हो गई. आमिर कहते है दुख इस बात का है कि मैं उन्हें मिट्टी तक नहीं दे पाया. जिस उम्र में उन्हें मेरी जरूरत थी वो मैंने अपनी बेगुनाही साबित करने में बिता दी.
इन 14 सालों में आमिर की खुद की दुनिया के साथ साथ बाहर की दुनिया में भी सब कुछ बदल चुका था. आमिर कहते है कि जब वो बाहर आए तो लोगों के हाथों में मोबाइल फोन थे, इंटरनेट आ चुका था, जिसके बारे में मैं अक्सर जेल में आने वाले कैदियों से सुनता था, दिल्ली की रफ्तार में अब मेट्रो जुड़ चुकी थी, प्लास्टिक मनी आ चुका था यहां तक कि क्रिकेट का फॉरमेट भी बदल चुका था.
मैं आज भी जिंदगी और जमाने को सीख रहा हूं. अपनी आजादी महसूस करने के लिए मैं रातों में घर की छत पर बैठा चांद तारे देखता. जेल की दुनिया में चांद तारे नहीं होते, मैंने चौदह साल चांद तारे नहीं देखे.
Framed As a Terrorist: My 14-Year Struggle to Prove My Innocence, आमिर की बायोग्राफी है जिसे नंदिता हक्सर ने लिखा है.आमिर कहते है कि ये कहानी और किताब सिर्फ मोहम्मद आमिर खान की नहीं है बल्कि उन बाकी नौजवानों की भी है जो कानून के दुरुपयोग का शिकार हुए है. ये कहानी समाज को इसलिए जाननी जरूरी है ताकि वो ये समझ पाए कि सलाखों के पीछे खड़ा हर व्यकित दोषी नहीं होता. वो कानून या पावर के दुरूपयोग का शिकार भी हो सकता है.
नंदिता हक्सर कहती है, आमिर या उनके जैसे और भी बेगगुनाह मुसलमान, दलित या फिर आदिवासियों का सालों तक जेल में सड़ना सिर्फ हमारे सिस्टम या कानून की असफलता नहीं है बल्कि ये असफलता हमारे लोकतंत्र और सिविल समाज की है जो इन मामलों में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं समझता.
मुझे दुख इस बात का है कि आमिर की कहानी गुस्से की जगह दया की भावना से देखी जाती है. ये सवाल उठाती है हमारे जेलों की हालत पर, हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों पर और मानव अधिकारों के उल्लंघन के निवारण पर.
हाल ही में एनएचआरसी के दखल के बाद आमिर को दिल्ली पुलिस की तरफ से पांच लाख का मुआवजा मिला है. पर सवाल ये कि क्या ये पांच लाख उन 14 सालों की सॉरी के लिए काफी है. आमिर कहते है 5 लाख या 5 करोड़ उन चौदह सालों को वापस नहीं ला सकते, कोई भी रकम उसकी भरपाई नहीं कर सकती.
मैं आज भी खाकी वर्दी देखकर डर जाता हूं, इतना कि जब दिल्ली पुलिस की तरफ से कोई मुझे मुआवजे के लिए इत्तला करने आया तो मैं डर गया कि फिर मुझे किसी बहाने से बुलाया जा रहा है. मुआवजे के लिए डीसीपी आॅफिस जाते समय मेरे 14 साल मेरी आंखों के सामने थे.
आमिर कहते है,आतंकी घटनाओं के वजह से जरूर मुसलमानों को शक की नजरों से देखा जाता है. लेकिन मैं ये नहीं मानता कि जो भी मेरे साथ हुआ वो पहली या आखिरी बार था. ना ये मानता हूं कि ये सब मेरे मजहब के वजह से हुआ.1984 में टाडा कानून के तहत सिखों के साथ भी ये सब हुआ.
कश्मीरियों के साथ या फिर झारखंड के आदिवासियों के साथ भी ये सब होता रहा है. समय और राजनीति तय करती है कि शिकार कौन होगा. हमारी कानून व्यवस्था मकड़ी के जाल की तरह है जिसमे छोटे कीट पतंगे जैसे असहाय,अशिक्षित,गरीब फंस जाते है, पैसे वाले इस जाल से निकल जाते है.ये विडंबना है.
दुख जरूर होता है कि भारतीय नागरिक होते हुए भी हमें शक की निगाह से देखा जाता है, हमारी देशभक्ति पर उंगली उठाई जाती है और हमें देशभक्त होने की सफाई देनी पड़ती है. मुसलमान नौजवानों को शक और गलतफमी के वजह से अच्छे संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता, रहने को किराए का घर नहीं मिलता.
मुझे गर्व है 1947 में जब देश बंटा तो मेरे पुरखों ने गांधी जी के इस सेक्युलर देश को चुना. अपना देश चुनने का विकल्प सिर्फ हमारे पास था, तो हम बाय चॉयस इंडियन है बाय चांस नहीं, फिर क्यों हमारी देशभक्ति सवालों के घेरे में है. क्यों हमें अपनी देश भक्ति दिखानी और जतानी जरूरी है .
मैंने जो कुछ भी सहा उससे मेरा इस देश के प्रति, संविधान के प्रति या सिस्टम के प्रति सम्मान कम नहीं हुआ. जो देशभक्ति की भावना मेरे अम्मी अब्बू ने मुझे सिखाई मैं चाहता हूं वो ही भावना मैं अपनी बेटी को भी दूं. डरता हूं कि जब मेरी बेटी 20 साल की होगी, तो वो कैसा भारत देख पाएगी. साथ में उम्मीद भी करता हूं कि वो वैसा ही भारत देख पाए जिसकी कल्पना गांधी, अंबेडकर, नेहरू, अब्दुल कलाम ने की थी.
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.