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50 फीसद से ज्यादा आरक्षण की मांग नौवीं अनुसूची को 'संवैधानिक कूड़ेदान' में बदल देगी

गुजरात में संविधान की धारा 46 के जरिए भी पाटीदारों की मदद की चर्चा हो रही है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1951, 1975 और 1980 के अपने फैसलों में इसके बेजा इस्तेमाल पर नाखुशी जताई थी

Updated On: Dec 07, 2017 03:47 PM IST

Srinivasa Prasad

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50 फीसद से ज्यादा आरक्षण की मांग नौवीं अनुसूची को 'संवैधानिक कूड़ेदान' में बदल देगी

संपादक की कलम से:आरक्षण के मुद्दे पर ये हमारी स्पेशल सीरीज का दूसरा हिस्सा है.

सवाल ये है कि जातिगत आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की लगाई अधिकतम 50 फीसद की पाबंदी से कौन डरता है? जवाब ये है कि किसी को इसका डर नहीं है. आरक्षण को लेकर गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में जोर-शोर सुनने को मिल रहा है, उससे तो यही लगता है.

गुजरात में कांग्रेस ने पाटीदारों को आरक्षण का वादा किया है. पार्टी अगर इस महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में जीती तो वो आरक्षण का वादा निभाने को कह रही है. अगर ऐसा होता है तो राज्य में आरक्षण 49 फीसद से ऊपर चला जाएगा. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसके ऊपर आरक्षण देने पर रोक लगा रखी है.

कर्नाटक आरक्षण की दर को 70 फीसद तक बढ़ाना चाहता है. आंध्र प्रदेश इसे 55 प्रतिशत करना चाहता है. वहीं तेलंगाना इस पाबंदी को 62 फीसद तक बढ़ाना चाहता है. कर्नाटक में पांच महीने बाद चुनाव होने वाले हैं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 2019 में चुनाव होंगे. इन चारों राज्यों में से गुजरात और कर्नाटक में तो आरक्षण का दायरा बढ़ाने का वादा किया जा रहा है.

वहीं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने तो बाकायदा बिल पास कर दिया है. ताकि संविधान की नौवीं अनुसूची के तहत अपने फैसले को न्यायिक समीक्षा से बचा सकें. यानी इन फैसलों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके.

K Chandrasekhar Rao

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव

इन सभी राज्यों में तमिलनाडु की मिसाल दी जाती है. तमिलनाडु में आरक्षण 69 फीसद तक दिया जा सकता है. ये देश के किसी भी राज्य में सबसे ज्यादा है. महाराष्ट्र ने भी सुप्रीम कोर्ट की लगाई पाबंदी पार कर ली है. यहां 52 फीसद आरक्षण है. तमिलनाडु में आरक्षण की जो दर है, उससे पड़ोसी राज्य भी दबाव में हैं. तमिलनाडु के पिछड़ी जाति के लोग इसके लिए पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के शुक्रगुजार हैं.

तमिलनाडु में मौजूदा आरक्षण के तहत, अनुसूचित जातियों को 15 प्रतिशत, अरुन्थाथियार समुदाय को 3 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियों को 1 प्रतिशत, पिछड़ों को 26.5 फीसद, पिछड़े मुसलमानों को 3.5 प्रतिशत, अति पिछड़े समुदायों को 10 फीसद, गैर अनुसूचित समुदायों को 10 प्रतिशत यानी कुल 69 फीसद आरक्षण मिलता है.

राजनीति कई बार गोल-गोल घूमने का नाम है. जयललिता इसे अच्छे से जानती थीं. 1993 में जब मद्रास हाई कोर्ट ने उनकी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक आरक्षण की दर को कम करने को कहा, तो जयललिता ने संविधान की नौवीं अनुसूची का फायदा उठाया. इस अनुसूची के तहत राज्य सरकारों के फैसलों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती.

जयललिता ने विधानसभा से 69 प्रतिशत आरक्षण का बिल पास कराया. इसके बाद उन्होंने उस वक्त के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव पर दबाव बनाया कि इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी दिलाएं और इसे नौवीं अनुसूची में भी रखें.

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संविधान की नौवीं अनुसूची देश के पहले प्रधानमंत्री का आविष्कार है. वो सरकार के जमीन सुधार के अभियान में कोर्ट के दखल से परेशान थे. 1951 में उन्होंने संविधान का पहला संशोधन बिल लाकर नौवीं अनुसूची को संविधान में जोड़ा.

इस संशोधन के जरिए धारा 31बी को भी संविधान में जोड़ा गया. इसके तहत नौवीं अनुसूची में रखे गए विधेयकों को अदालतें बुनियादी अधिकारों के खिलाफ बताकर रद्द नहीं कर सकती थीं. असल में जमींदारी के खिलाफ पंडित नेहरू के अभियान को जमींदार लगातार अदालतों में चुनौती दे रहे थे. वो जमीन सुधार के कानूनों को बुनियादी अधिकारों के खिलाफ बता रहे थे.

Indira Gandhi

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संविधान की धारा 31बी का दुरुपयोग बहुत बढ़ गया. सियासी फायदे के लिए कांग्रेस ने संविधान की आत्मा को क्षत-विक्षत कर दिया.

संविधान विशेषज्ञ राजीव धवन कहते हैं कि नौवीं अनुसूची आज संवैधानिक कचरे का डब्बा है. आज इसकी आड़ में हर तरह के कानून को अदालती समीक्षा से बचाया जाता है. नेहरू का जो विजन था, वो अब दूर-दूर तक नजर नहीं आता. नेहरू ने संविधान की नौवीं अनुसूची में राज्यों के 13 विधेयक रखे थे. मगर आज की तारीख में 300 से ज्यादा विधेयक नौवीं अनुसूची में रखे गए हैं. इनमें चुनाव से लेकर बीमा तक के कानून हैं. जयललिता का आरक्षण का कानून भी इसी के दायरे में रखा गया है. यानी इसे भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. क्या नौवीं अनुसूची के कानून अभी भी समीक्षा से परे हैं?

इस अनुसूची पहली तगड़ी चुनौती सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में दी. आईआर कोएल्हो बनाम तमिलनाडु सरकार के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की 8 जजों की बेंच ने फैसला सुनाया कि नौवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को भी अदालत रद्द कर सकती है, अगर ये संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ हैं.

अदालत ने कहा कि उसका आदेश 24 अप्रैल 1973 के बाद बने हर कानून पर लागू होगा. ये वो तारीख है जब केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार संविधान के बुनियादी ढांचे से छेड़खानी नहीं कर सकती.

तमिलनाडु के आरक्षण कानून को भी एक याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. हालांकि अभी अदालत ने उस पर आखिरी फैसला नहीं सुनाया है. इस दौरान एक के बाद एक राज्य, संविधान की नौवीं अनुसूची के पीछे छुपकर सियासी और गैरकानूनी विधेयक पास कर रहे हैं. इनमें से कई कानून ऐसे हैं जो सामाजिक रुप से काफी नुकसानदेह हैं. ज्यादातर कानून आरक्षण से जुड़े हैं, जो देश के हित में नहीं हैं.

जैसे आतंकवादी छुपकर हमला करते हैं, वैसे ही ये कानून देश के सामाजिक ताने-बाने को संविधान के पीछे छुपकर तोड़ने की कोशिश हैं.

लेकिन, राज्यों के हौसले बुलंद हैं. इसकी दो वजहें हैं. पहली तो ये कि संविधान की धारा 31बी को चुनौती देने पर ये साबित करना पड़ेगा कि ये संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ है. दूसरी बात ये है कि आरक्षण पर संविधान ने 50 फीसद की जो पाबंदी लगाई है, उससे कुछ खास मामलों में रियायत ली जा सकती है.

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आरक्षण पर पचास फीसद की पाबंदी का सुप्रीम कोर्ट का आदेश 1962 के एमआर बालाजी और अन्य बनाम मैसूर राज्य के केस में आया था, न कि 1992 में, जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है.

1962 के उस केस में सुप्रीम कोर्ट ने मैसूर सरकार (उस वक्त कर्नाटक को मैसूर ही कहा जाता था) के 68 प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले को खारिज कर दिया था. मैसूर सरकार राज्य की मेडिकल और इंजीनियरिंग की सीटों में पिछड़ों, अनुसूचित जातियों-जनजातियों को 68 प्रतिशत आरक्षण देना चाहती थी. उस वक्त चीफ जस्टिस बीपी सिन्हा की अगुवाई में पांच जजों की बेंच ने कहा था, 'हम ये नहीं बताना चाहते हैं कि कितनी सीटें आरक्षित होनी चाहिए. हमारा मानना है कि आरक्षण का दायरा 50 फीसद तक सीमित होना चाहिए. आरक्षण 50 फीसद से कितना कम हो ये हालात पर निर्भर करता है'.

इस फैसले की वजह से ही मंडल आयोग ने पिछड़ों को आरक्षण की दर 27 फीसद तक सीमित रखने का सुझाव दिया था. इसके अलावा अनुसूचित जातियों और जनजातियों को 22.5 प्रतिशत यानी कुल आरक्षण 49.5 फीसद रखने का सुझाव दिया गया था.

1992 के इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य के मुकदमे में चीफ जस्टिस एम वेंकटचलैया की अगुवाई वाली 8 जजों की बेंच ने कहा था कि, 'आरक्षण 50 फीसद होने का नियम होना चाहिए. हालांकि कुछ खास हालात में देश की विविधता को देकते हुए कुछ दूर दराज के इलाकों में लोगों को विशेष दर्जे की जरूरत हो सकती है. ऐसे में इस नियम में कुछ रियायत दी जा सकती है. लेकिन ऐसा करते वक्त बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होगी. कुछ बहुत खास मामले में ही रियायत दी जानी चाहिए'.

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अब इस फैसले की रौशनी में हम गुजरात के पाटीदारों की आरक्षण की मांग को देखें तो बहुत अजीब लगता है. सामाजिक और सियासी तौर पर बेहद ताकतवर पाटीदारों के बारे में ये कैसे कहा जा सकता है कि वो राज्य के दूर-दराज के इलाकों में रहते हैं और उन्हें आरक्षण की जरूरत है?

Hardik Patel, leader of India’s Patidar community, addresses during a public meeting after his return from Rajasthan’s Udaipur, in Himmatnagar

गुजरात में संविधान की धारा 46 के जरिए भी पाटीदारों की मदद की चर्चा हो रही है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1951, 1975 और 1980 के अपने फैसलों में इसके बेजा इस्तेमाल पर नाखुशी जताई थी. धारा 46 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत आती है. 1975 मे केरल सरकार और अन्य बनाम एन एम थॉमस और अन्य के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था, 'धारा 46 में जिन अन्य कमजोर तबको का जिक्र है, हर वो तबका पिछड़ी जाति नहीं. इसका मतलब है कि सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े लोग. जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों से भी पिछड़े हैं'.

तो क्या गुजरात के पाटीदार बेहद पिछड़े हैं? उनकी हालत अनुसूचित जातियों और जनजातियों से भी गई गुजरी है? लेकिन क्या करेंगे, वो वोट बैंक हैं. जिनका कारोबार हो सकता है. जिनके जरिए सियासत चमकाई जा सकती है.

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