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भारत में स्कूली शिक्षा के मौजूदा हालात विनाशकारी

एक तरफ तो दुनिया की तुलना में भारत कम शिक्षा हासिल करता है. दूसरी ओर जो शिक्षा हासिल की जा रही है उसका स्तर भी खराब है.

Updated On: Dec 21, 2016 08:58 AM IST

TSR Subramanian

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भारत में स्कूली शिक्षा के मौजूदा हालात विनाशकारी

न्यूयॉर्क के प्यू रिसर्च सेंटर ने दुनिया के बड़े धर्मों में शिक्षा की स्तर पर एक शोध किया है. दुनिया पहली बार इस तरह का शोध किया गया है जिसमें हर सभी धर्मों में शिक्षा के स्तर को जांचा गया. शोध के नतीजे भारत के लिए  चिंताजनक है.

प्यू सेंटर, जॉन टेम्पलटन फाउंडेशन का हिस्सा है. इसका दावा है कि यह बिना किसी बाहरी दबाव के यह अहम मसलों पर शोध करता है. दुनिया के अलग-अलग देशों के धर्मों में स्कूल जाने के औसत सालों पर शायद यह अपने तरह का पहला शोध है.

जो निष्कर्ष सामने आए हैं उसके मुताबिक यहूदी 13.4 साल स्कूल में बिताते हैं. ईसाइयों का औसत 9.3 साल है. बौद्ध धर्म मानने वाले 7.9 वर्ष स्कूल में बिताते हैं.

सबसे बुरा औसत मुसलमानों और हिंदुओं का है. दोनों धर्मों के बच्चे सिर्फ 5.6 साल स्कूल में बिताते हैं. जबकि दुनिया भर के सभी धर्मों के बच्चे औसतन 7.7 साल स्कूल में बिताते है.

हिंदुओं की हालत दयनीय

सबसे चौंकाने वाले आंकड़े हिदू धर्म को लेकर है. हिंदू दुनिया में सबसे कम समय स्कूली पढ़ाई करते हैं. ऐसा तब है जब बीते कुछ सालों में हिंदुओं के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार काफी तेजी से हुआ है.

शोध के मुताबिक 41 प्रतिशत हिंदुओं को तो किसी तरह की औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पाती है. हर पीढ़ी की महिलाओं में जागरुकता बढ़ने के बावजूद सभी धर्मों में हिंदू महिलाएं सबसे कम पढ़ी लिखी हैं. पुरुषों और महिलाओं के बीच शैक्षणिक अंतर के लिहाज से सबसे ज्यादा लैंगिक असमानता हिंदुओं के बीच ही है.

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160 पन्नों की इस रिपोर्ट का शीर्षक 'रीजन एंड एजुकेशन अराउंड द वर्ल्ड एट लार्ज' रखा गया है. इसे यूनेस्को की इंटरनेशनल स्टैंडर्ड क्लासिफिकेशन ऑफ एजुकेशन के मुताबिक शिक्षा के चार मुख्य स्तरों के हिसाब से तैयार किया गया है.

प्यू का शोध इस बात पर था कि आखिर कितने सालों तक शिक्षा ली गई. इस शिक्षा की क्वालिटी कैसी है, इस पर प्यू ने अपनी रिपोर्ट में कोई जिक्र नहीं किया गया. इस अध्ययन में जनसंख्या का वो हिस्सा शामिल है जिसे कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिलती. फिर स्कूली शिक्षा यानी सेकेंडरी एजुकेशन के बाद की शिक्षा को केंद्र में रखा गया है.

रिपोर्ट में फिर स्कूल की कुल शिक्षा को वर्षों में निकाला गया है. इसके लिए ऐसा तरीका अपनाया गया है कि हर देश में शिक्षा के हाल का मिलान किया जा सके.

रिपोर्ट में उन 151 देशों और इलाकों को शामिल किया गया है. जहां के शिक्षा और धर्म से जुड़े आंकड़े जाहिर हैं. हर देश के धर्म आधारित शोध के लिए इस्तेमाल आंकड़ों के बारे में भी बताया गया है. उम्र के हर वर्ग के हिसाब से नतीजे और इनकी बेहतरी के लिए मशवरे भी रिपोर्ट में दिए गए हैं.

दुनिया में हिंदुओं की कुल आबादी का ज्यादातर हिस्सा (94 प्रतिशत) भारत, नेपाल और बांग्लादेश में रहते हैं. भारत में एक औसत हिंदू 5.5 साल स्कूल जाता है. नेपाल में ये आंकड़ा 3.9 वर्ष और बांग्लादेश में 4.6 वर्ष है.

हैरानी की बात ये है कि अमरीका में रहने वाला हिंदू औसतन 15.7 साल तक स्कूली शिक्षा हासिल करता है. ये औसत अमरीकी यहूदियों से भी एक साल ज्यादा है. औसत अमरीकी वयस्क (12.9 वर्ष) से भी यह आंकड़ा तीन साल ज्यादा है. यूरोपीय देशों में रह रहे हिंदुओं में भी ये औसत 13.9 साल का है.

भारत कई अफ्रीकी देशों से भी पीछे

ये नतीजे निराशाजनक दिख सकते हैं लेकिन चौंकाने वाले नहीं है. हाल ही में इस तरह के दूसरे शोध में भी कमोबेश यही बात सामने आई है.

कई रिपोर्ट्स भारत में शिक्षा की बुरी हालत को जगजाहिर करते हैं. खास कर दूसरे देशों की तुलना में. 70 साल के लोकतंत्र में शिक्षा को लेकर सरकारों की बेरुखी पर भी बात होती रही हैं.

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स्कूली शिक्षा का दुनिया भर में औसत वक्त 7.9 साल है. इसमें विकसित देशों का औसत 11.3 साल है. विकासशील देशों का औसत 7.2 साल है. भारत इन सबसे बुरी तरह पिछड़ रहा है. भारत का औसत 5.6 साल है.

भारत इस पायदान में बहुत नीचे हैं. यह आंकड़ा काफी दुखद है. हम सिर्फ कुछ अफ्रीकी देशों से ही ऊपर हैं. यूरोप, मध्य एशिया, मध्य-पूर्व और लैटिन अमरीका की तुलना में भारत बहुत पीछे हैं.

गौर करने वाली बात यह है कि यूरोप का पीसा इंडेक्स शिक्षा पर अपने अध्ययन में भारत को शामिल करने लायक नहीं मानता. इसमें 80 देशों का अध्ययन है और शिक्षा पर इसकी रिपोर्ट की दुनिया भर में साख है.

पुरानी रिपोर्टों के मुताबिक तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश ने इस सदी के पहले दशक में पीसा को आमंत्रित किया था. जो रिपोर्ट तैयार हुई उसमें भारत नीचे से दूसरे पायदान पर था. भारत से नीचे केवल कीर्गिस्तान था.

इस बुरी खबर के बाद भारत ने पीसा से सारे संबंध ही तोड़ लिए. इसके अध्ययन को अतार्किक करार दिया गया. कहा गया कि यह भारत जैसे देशों के हिसाब से माकूल नहीं है. हालांकि ताजा अध्ययन में भी जो बात सामने आई है, वह प्यू सेंटर के निष्कर्षों के ही करीब है.

शिक्षा के अच्छे दिन कब आएंगे

आजादी के समय भारत में साक्षरता दर 11 प्रतिशत थी. चालीस के दशक में विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र ने जो शिक्षा के अधिकार का जो घोषणापत्र जारी किया उसमें भारत संस्थापक सदस्य था. लेकिन दुर्भाग्य देखिए भारत को इसे अपने देश में लागू करने में छह दशक लग गए.

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अब जाकर शिक्षा का अधिकार विधेयक लागू किया जा सका. इसमें सिर्फ नामांकन पर जोर है. शिक्षा के स्तर या उसकी गुणवत्ता पर नहीं. इसमें चौतरफा विकास की बात भी नहीं है. आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों की भागीदारी भी इस कानूम में कम है.

हालांकि इसमें कोई शक नहीं है कि हाल ही में भारत में स्कूली शिक्षा का स्तर सुधरा है. लैंगिंग असमानता भी कम हुई है. लेकिन भारत में शिक्षा से जुड़ी अच्छी खबर केवल इतनी ही है.

गैर सरकारी संगठन प्रथम 2005 के बाद हर साल शिक्षा पर रिपोर्ट निकालता है. इसके लिए घर-घर जाकर नमूने हासिल किए जाते हैं. इसमें बच्चों के स्कूल जाने और पढ़ने की बुनियादी क्षमता का जिक्र होता है.

वर्ष 2000 में 577 जिलों में किए गए सर्वे से पता चला कि पांचवी क्लास के आधे बच्चे ठीक से पढ़ भी नहीं पाते. यही नहीं पांचवीं के आधे बच्चे दूसरी कक्षा में पढ़ाया जाने वाला गुणा-भाग नहीं कर पाते हैं.

नेशनल काउंसिल ऑफ रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) भी 2001 के बाद तीसरी, पांचवीं और आठवीं के बच्चों का नेशनल एचीवमेंट सर्वे करता है. कुछ महीनों पहले ही इसकी ताजा रिपोर्ट आई है.

इससे पता चलता है कि विज्ञान, गणित और अंग्रेजी के स्तरों में भारी गिरावट आई है. खास कर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरा है. 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक तीसरी कक्षा के 75 प्रतिशत बच्चे, पांचवीं के 50 प्रतिशत बच्चे और आठवीं के 25 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को भी ठीक से नहीं पढ़ सकते.

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2010 में ग्रामीण इलाकों के दूसरी कक्षा के सिर्फ 13.4 प्रतिशत बच्चे ठीक से संख्या और अक्षर पहचान पाते थे. ये आंकड़ा 2014 में बढ़ कर 32.5 प्रतिशत पर पहुंचा है. 2014 में पांचवीं के 20 प्रतिशत बच्चे सिर्फ अक्षर पढ़ पाते थे. 14 प्रतिशत बच्चे शब्दों को पढ़ पा रहे थे. पूरा वाक्य पढ़ने में दिक्कत थी.

पढ़ने की क्षमता के हिसाब से 2010 से 2012 के बीच गिरावट दर्ज की गई. सरकारी और निजी स्कूलों में ये अंतर ज्यादा है. लगभग आधे बच्चे आठवीं की पढ़ाई पूरी करने वाले हैं. लेकिन उन्हें बुनियादी अंक गणित नहीं आता. भारत में शिक्षा के मौजूदा हालात को विनाशकारी कहना ही ठीक होगा.

हालात चिंताजनक हैं

1994 में डिस्ट्रिक्ट इनफॉरमेशन सिस्टम ऑफ एजुकेशन (डीआईएसई) शुरू किया गया. इसमे देश के हर गांव के स्कूल से सूचना एकत्र करनी थी. यू-डीआईएसई को सरकारी आंकड़ा माना जाता है.

कहने को तो यह कारगर व्यवस्था नजर आती है. लेकिन इसकी हकीकत इसमें दर्ज आंकड़ों की सच्चाई से तय होगी. सिर्फ दस प्रतिशत स्कूलों में  बिजली और कंप्यूटर है. ज्यादातर डाटा शिक्षक खुद इकट्ठा करते हैं.

ब्लॉक और जिला स्तर पर भी इसे इंसान ही जोड़ते हैं. इस लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर इसकी हकीकत शक के दायरे में है. राज्यों के आंकड़े अलग-अलग देखने पर अंतर साफ नजर देखा जा सकता है.

पूरी तस्वीर धुंधली है और चिंताजनक है. एक तरफ तो दुनिया की तुलना में भारत कम शिक्षा हासिल करता है. दूसरी ओर जो शिक्षा हासिल की जा रही है उसका स्तर भी खराब है.

लेकिन क्या ऐसा होना चाहिए? ये भारतीय ही हैं जो अमेरिका में सबसे ज्यादा शिक्षा हासिल करते हैं. यूरोप में भी भारतीय बच्चे काफी आगे हैं. यही नहीं भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में भी टैलेंट की कोई कमी नहीं है.

इस बात के सभी सबूत मौजूद हैं कि भारतीयों में सीखने की ललक बहुत है. अगर मौका मिले तो वो दूसरे देशों से काफी आगे निकल सकते हैं.

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शिव नादर फाउंडेशन का विद्या ज्ञान स्कूल पिछले आठ वर्षों से गांवों के होनहार बच्चों को प्राथमिक और मध्यमिक शिक्षा दे रहा है. ये बच्चे गरीबी रेखा के नीचे वाले घरों से हैं. सीबीएसई स्तर पर इन स्कूली बच्चों का रिजल्ट कमाल का है.

2016 की बोर्ड परीक्षा में इन स्कूलों में पढ़ने वाला हर बच्चा प्रथण श्रेणी में पास हुआ. अधिकतर बच्चों ने आगे की पढ़ाई के लिए जाने-माने देसी-विदेशी संस्थानों में दाखिला पाने में सफलता हासिल की.

इससे स्पष्ट है कि बच्चों को बुनियादी कोचिंग देने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं है तो ये पिछले सात दशकों की सरकारी विफलता है. नई रणनीति की जरूरत है. इसमें गुणवत्ता पर जोर हो. छात्रों और शिक्षकों को केंद्र में रखा जाए.

मौजूदा सरकार भी पुराने ढर्रे की संरचना को कायम रखना चाहती है. इसमें मरहम पट्टी करने से कुछ नहीं होने वाला है. नई सोच की दरकार है. हमारे लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से प्यू रिपोर्ट आंखे खोलने वाली है.

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