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कोई राहुल बाबा को बताए, चैनलों पर बैन की जननी कांग्रेस है

कांग्रेस के युवराज को इस बात का जरा भी इल्म नहीं है कि जिन कानूनों के अन्तर्गत समाचार चैनल पर कारवाई की गई है उसकी नींव 1995 में कांग्रेस कार्यकाल के दौरान ही रखी गई थी.

Updated On: Nov 18, 2016 07:51 AM IST

Srinivasa Prasad

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कोई राहुल बाबा को बताए, चैनलों पर बैन की जननी कांग्रेस है

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर एनडीटीवी पर नौ नवम्बर को एक दिन का बैन क्या लगा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आव देखा न ताव और एक बार फिर मोदी सरकार पर हमला बोला दिया. ओआरओपी के मुद्दे पर विरोध कर रहे राहुल गांधी को दो दिन में तीन बार गिरफ्तार किया गया.

उन्होंने ट्वीट कर कहा ‘ये है मोदीजी का भारत, यहां विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार किया जाता है और टीवी चैनलों पर प्रतिबंध लगाया जाता है’.

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कांग्रेस के युवराज को इस बात का जरा भी इल्म नहीं है कि जिन कानूनों के अन्तर्गत समाचार चैनल पर कारवाई की गई है उसकी नींव 1995 में कांग्रेस कार्यकाल के दौरान ही रखी गई थी.

कांग्रेस राज में चैनल बैन की शुरुआत

समाचार चैनलों पर प्रतिबंध लगाने की पहली नजीर 2007 में कांग्रेस सरकार ने ही पेश की थी. उस वक्त राहुल गांधी सांसद बन चुके थे. तब लाइव इंडिया को किन्हीं कारणों से पूरे एक महीने के लिए प्रतबंधित किया गया था.

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि नरसिम्हा राव सरकार द्वारा बनाए कानून को बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने और सख्त बना दिया.

अब इसी कानून का इस्तेमाल करते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने एनडीटीवी इंडिया पर एक दिन का प्रतिबंध लगा दिया है. एनडीटीवी पर पठानकोट हमले के दौरान संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक करने का आरोप है.

द केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (रेग्यूलेशन) एक्ट 1995 की धारा 20 मे परिभाषित शक्तियां सरकार को यह अधिकार देती हैं. मूल एक्ट की धारा 20 केवल जनहित के मामलों में ही किसी टीवी नेटवर्क को प्रतिबंधित करने की वकालत करती है. ये बात अलग है कि जनहित के मुद्दों को सरकार अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित कर लेती है.

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इस अधिनियम को सन 2000 में वाजपेयी सरकार ने संशोधित कर इसमें चार बिन्दु और जोड़े. इसमें भारत की एकता अखंडता, संप्रभुता, राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पहुंचाने वाली खबर दिखाने पर कार्रवाई की जा सकेगी. साथ ही किसी देश के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते खराब करने की रिपोर्टिंग और देश के अंदर कानून व्यवस्था भंग करने या अश्लीलता फैलाने पर कार्रवाई का प्रावधान जोड़ दिया गया.

इस संशोधिन से सरकार को किसी भी चैनल को मनमानी ढंग से प्रतिबंधित करने की आजादी मिल गई. इस तरह के एकतरफा और कठोर कानून राजनीतिक रूप से अस्थिर देश के लिए तो जायज हो सकते हैं लेकिन भारत जैसे विशाल और स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए नहीं.

26/11 चैनलों के कवरेज की आलोचना

आंतकरोधी अभियानों की कवरेज को लेकर खबरिया चैनल पहले भी कड़ी आलोचना झेल चुके हैं. 26/11 मुंबई हमलों की कवरेज को सुप्रीम कोर्ट ने ‘लापरवाह’ बताया था. 29 अगस्त 2012 को अजमल कसाब पर सजा सुनाते हुए न्यायाधीश आफताब आलम और सीके प्रसाद ने अपने फैसले में इस पर तल्ख टिप्पणी की.

उन्होंने कहा कि 26/11 हमले के दौरान भारतीय जवानों के पास आतंकवादियों के विषय में कोई जानकारी नहीं थी. वो क्या कर रहे हैं, उनके पास कितनी मात्रा में असलहा-बारूद हैं, उनकी संख्या कितनी है या फिर वो कितनी देर तक सुरक्षा एजेंसियों का सामना करने में सक्षम हो सकते हैं. लेकिन हमारे चैनलों की मेहरबानी से होटल के अंदर मौजूद आतंकी बिना किसी मशक्कत भारतीय जवानों की हर हरकत पर नजर रखे हुए थे. चैनलों की आलोचना में कोई मुरव्वत किए बगैर बेंच ने आगे कहा कि टीआरपी की हो़ड़ में उन्होंने अनजाने में ही सही लेकिन आतंकियों की मदद की है. हालांकि इस आरोप को साबित कर पाना नामुमकिन है.

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मनमोहन सरकार ने 2008 और 2009 में एडवायजरी भी जारी की थी. इसमें आतंकरोधी ऑपरेशन्स के दौरान चैनलों को रिपोर्टिंग में सतर्कता बरतने की हिदायत भी दी गई. सुरक्षा एजेसियों की लोकेशन और मूवमेंट को लेकर सरकार ने खास एहतियात बरतने को भी कहा था.

आतंकरोधी गतिविधियों के लिए कुछ ऐसी हिदायत मोदी सरकार ने भी जारी की थी. इसका पालन न करने के आरोप में ही सरकार ने एडीटीवी इंडिया पर एक दिन का प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है.

इस फैसले से तथाकथित उदारवादियों की मंडली और मोदी विरोधियों को एक बार फिर हमला बोलने का मौक मिल गया है. इस मंडली ने ऐसा महौल बना दिया जैसे आजाद भारत में पहली बार ऐसा हुआ हो.

पिछले साल सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहते हुए अरुण जेटली ने घटनास्थल से रिपोर्टिंग पर सख्त अनुशासन अपनाए जाने की जरूरत पर जोर दिया था. लेकिन सवाल यह उठता है कि जहां ऐसे अनुशासन की जरूरत है वहां इसे लागू करवाने की जिम्मेदारी किसकी होगी?

पत्रकारों पर राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ करने का आरोप उतना ही पुरातन है जितना कि सरकार को यह सलाह दे देना कि मीडिया को अपनी सीमा तय करने की आजादी दी जानी चाहिए.

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बेहतर तो यही है कि सरकार कानूनी कारवाई करने की बजाय मीडिया के प्रतिनिधियों से चर्चा करती. खासकर उन मीडिया संस्थानों से सरकार को सीधे बातचीत करनी चाहिए जिनसे सरकार को शिकायत है. चैलनों पर इस तरह से सेसंरशिप लगाना उनसे बदला लेना माना जा सकता है.

तथाकथित तौर पर राष्ट्रविरोधी काम करने वाले व्यक्तियों, संस्थानों या फिर पत्रकारों पर कानूनी कार्रवाई के लिए सरकार के पास भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी जैसे प्रावधान मौजूद हैं. आईपीसी और सीआरपीसी के तहत आरोपी को अपनी बात रखने का मौका मिलता है उसके पश्चात ही अपराध की सजा तय होती है.

बचकानी हरकतें करता 'इडियट बॉक्स'

ऐसा भी नहीं है कि भारत के तमाम समाचार चैनल भी दूध के धूले हों. मान लेते हैं कि चैनलों ने आतंक के खिलाफ सुरक्षा के अभियानों के कवरेज में कोई गड़बड़ी नहीं की. लेकिन इस बात से कोई इंकार भी नहीं कर सकता है कि ये खबरिया चैनल अपने कवरेज में लापरवाही बरतते हैं.

किसी महिला के साथ बलात्कार और आतंकियों के खिलाफ एजेंसियों के अभियान के मामले में समाचार कवरेज और उसके प्रस्तुतिकरण को लेकर चैनलों को आत्ममंथन की जरूरत है.

आज के दौर में समाचार चैनलों की विश्वसनीयता पर हर कोई सवाल खड़े कर देता है. अब यह चैनलों को तय करना है कि खोया हुआ विश्वास वापस हासिल करने के लिए उन्हें क्या करना होगा.

सरकार और राजनीतिक पार्टियों के बेजा हमले से बचने के लिए मीडिया को चाहिए कि वह एक बेदाग छवि और निर्विवाद निष्ठा वाले किसी व्यक्ति को अपना लोकपाल नियुक्त करे.

न्यूज़ चैनल की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है. लेकिन इन्हें चलाने के लिए उतनी संख्या में काबिल और प्रशिक्षित पत्रकार बाजार में उपलब्ध नहीं है. जो लोग इन दिनों मीडिया में आ रहे हैं वो केवल इसकी ग्लैमरस चकाचौंध से खींचे चले आते हैं. इन पत्रकारों को पत्रकारिता से कोई मतलब नहीं होता. इन्हें केवल सतही जानकारी होती है.

ऐसे ही नकारा लोगों पर टीवी न्यूज चैनल को टीआरपी में आगे निकालने की जिम्मेदारी होती है. समाचार देखने वाले दर्शक भी इन समाचार बनाने वालों से ज्यादा समझ रखते हैं. ऐसे पत्रकारों से राष्ट्रीय सुरक्षा पर तो क्या किसी भी मुद्दे पर संवेदनशीलता बरतने की उम्मीद रखना बेमानी है.

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स्वयं पर नियंत्रण रखने के लिए खबरिया चैनलों को मिलकर कोई तरकीब ईजाद करनी होगी. इसमें बेहतर गुणवत्ता के पत्रकारों को तैयार करना भी शामिल हैं. दर्शकों के बीच अपना विश्वास दोबारा हासिल करके ही चैनल अपने ऊपर हो रहे हमलों से बच सकेंगे.

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