सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह का घटनाक्रम देखने को मिला है वह निराश करता है. आप चाहे किसी भी पक्ष के साथ खड़े हों, लेकिन हम में से सभी इस बात को लेकर सहमत जरूर होंगे कि भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को इस पूरे घटनाक्रम से धक्का लगा है.
इस पूरे वाकये में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि इसका देश के न्यायिक अनुशासन पर लंबे वक्त तक दुष्परिणाम देखने को मिल सकता है. देश के बाकी सभी कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के मुकाबले जूनियर हैं और ये सर्वोच्च अदालत द्वारा तय किए गए मानकों का पालन करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के सुनाए गए आदेश सभी निचली अदालतों के लिए बाध्यकारी
संविधान में यह साफ तौर पर दर्ज है कि सर्वोच्च अदालत के सुनाए गए आदेश सभी निचली अदालतों के लिए बाध्यकारी हैं, जो कि कानून भी बनता है. न्यायिक अभ्यास और आचरण के मानक भी सुप्रीम कोर्ट के तय किए गए मानकों का ही हिस्सा होते हैं. ये चाहे पॉजिटिव हों या नेगेटिव, लेकिन ये देश के पूरे न्यायिक तंत्र के स्वास्थ्य पर असर डालते हैं.
मिसाल के तौर पर, मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के मामलों को खास बेंचों को असाइन करने के लिए अपनाई गई पद्धति से एक गलत मिसाल तय हुई है. मास्टर ऑफ रोस्टर होने के नाते सीजेआई केवल बेंचों के सब्जेक्ट मैटर और बेंचों के कंपोजिशन को तय कर सकते हैं, न कि इंडीविजुअल केसों को. सब्जेक्ट मैटर का यहां मतलब यह है कि सीजेआई यह तय कर सकते हैं कि फलां जज क्रिमिनल केसों की सुनवाई करेंगे, इसमें खास केसों को असाइन नहीं किया जाता. इसी राह पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी चल सकते हैं और सीजेआई के उदाहरण को इस मामले में सामने रख सकते हैं.
मीडिया के सामने आकर अपनी बात रखना एक गलत तरीका था
साथ ही, भले ही हम चारों जजों के मकसद को लेकर उनसे सहानुभूति रखते हों, लेकिन मीडिया के सामने आकर अपनी बात रखना एक गलत तरीका था. निचली अदालतें भी अपने-अपने चीफ जस्टिस के खिलाफ बात कहने के लिए इस तरह का रास्ता अख्तियार कर सकती हैं. इसी तरह से कोई मजिस्ट्रेट डिस्ट्रिक्ट जज के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सकता है और वह सुप्रीम कोर्ट के तय किए गए मानक का हवाला दे सकता है. इस घटनाक्रम से गड़बड़ियों का पिटारा खुल गया है.
यह चीज समझने की जरूरत है कि न्यायपालिका सरकार के देश के दूसरे दोनों अंगों (कार्यपालिका और विधायिका) के मुकाबले बिलकुल अलग तरह से काम करती है. न्यायपालिका के कामकाज में ऐसे अलिखित नियम और कानून भी हैं जिनका पालन किया जाता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने ब्रिटिश राज की आम कानूनी परंपराओं पर चलने का फैसला किया है.
दुनिया भर में किसी जज के चरित्र का अभिन्न अंग उसकी निष्ठा और नैतिकता को माना जाता है. इसी के आधार पर सबसे अच्छी जुडिशल प्रैक्टिस को मान्यता मिलती है. संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशंस) ने बेंगलौर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट, 2002 को पेश किया जिसमें अच्छे न्यायिक आचरण के लिए मूल्यों को तय किया गया है. इसमें सबसे ज्यादा जिस वैल्यू पर जोर दिया गया है वह नैतिकता है. इसमें कहा गया है कि न केवल नैतिकता की मौजूदगी जरूरी है, बल्कि इसका दिखना भी जरूरी है.
जज का कैरेक्टर और व्यक्तित्व राजनेता से बिलकुल अलग होता है
यह जानना जरूरी है कि किसी जज का कैरेक्टर और व्यक्तित्व एक राजनेता से बिलकुल अलग होता है. किसी जज की ईमानदारी के मानक कहीं ऊंचे होते हैं और जरा भी नैतिकता की कमी उसकी साख को पूरी तरह से बर्बाद कर सकती है. आदर्श रूप में किसी जज के लिए किसी भी तरह के सामाजिक मेलजोल वाले कार्यक्रम में जाने तक की मनाही है, इससे ऐसे मामलों में जज की निष्पक्षता पर सवाल उठ सकते हैं जिनमें ऐसे लोग शामिल हों जिनके मामले उस जज की अदालत में चल रहे हों. ऐसे में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
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राजनेताओं के लिए आरोपों का सामना करना और पटलवार में आरोप लगाना एक आम बात है, लेकिन जजों के लिए यह आम बात नहीं है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के घटनाक्रमों को इन्हीं बेस्ट प्रैक्टिसेज के संदर्भ में देखना चाहिए. अदालत को आदेश पास करना चाहिए और कहना चाहिए कि ये घटनाक्रम कोर्ट के मानकों का हिस्सा नहीं बनते हैं. हमें उम्मीद है कि पूरी कोर्ट बैठकर अदालत की प्रतिष्ठा और सम्मान की बहाली के लिए कदम उठाएगी.
(लेखक आईआईटी बॉम्बे के डिपार्टमेंट ऑफ ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेज के रिसर्च फेलो हैं. उनकी ईमेल आईडी raghav10089@gmail.com है, और वह @raghavwrong से ट्वीट करते हैं)
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