बीते 2 अप्रैल को देश दलित संगठनों की सरपरस्ती में बुलाए गए "भारत बंद" का गवाह बना. बंद के दौरान कई राज्यों में तोड़फोड़, मारपीट और फायरिंग की दुखद घटनाएं हुईं. इन हिंसक घटनाओं में कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी वहीं करोड़ों की सरकारी और निजी संपत्तियों का नुकसान हुआ.
दलित संगठनों का यह भारत बंद सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के उस आदेश के खिलाफ था, जिसमें एससी/एसटी एक्ट 1989 (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम) के तहत किसी भी आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाई गई थी. इसके अलावा एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज होने वाले केसों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दी थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामलों में ऑटोमेटिक गिरफ्तारी की बजाय पुलिस को 7 दिन के भीतर जांच करनी चाहिए और फिर आगे कार्रवाई करना चाहिए. यही नहीं शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि, एसटी एक्ट के अतंर्गत किसी भी सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती. वहीं गैर-सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी के लिए ज़िले के एसएसपी की मंजूरी लेना जरूरी होगा.
एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ज़्यादातर दलित संगठनों के गले नहीं उतरा. लिहाज़ा उन्होंने एक्ट में हुए संशोधन को वापस लेने की मांग छेड़ दी. दलित संगठनों की दलील है कि एससी/एसटी एक्ट को कमज़ोर कर दिया गया है. जिसके चलते अब दलितों पर अत्याचार और बढ़ेंगे जबकि दमनकारियों के हौसले बुलंद होंगे. दलित संगठनों का साफ कहना है कि एक्ट को पुराने स्वरूप में ही लागू किया जाए. वरना उनका आंदोलन खत्म नहीं होगा.
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश का दलित और आदिवासी समुदाय सदियों से हाशिए पर चला आ रहा है. कठोर जाति व्यवस्था के तहत समाज के निचले पायदान में आने वाला दलित समुदाय सैकड़ों सालों से दमन और अत्याचार झेल रहा है. देश को आज़ादी मिले 70 सालों से ज़्यादा का वक्त बीत चुका है लेकिन लोगों के दिलो-दिमाग से जातिगत ऊंच-नीच अबतक खत्म नहीं हो पाई है. यही वजह है कि दलित समाज आज भी दमन और भेदभाव का शिकार है.
हाल के दिनों में दलित समुदाय के प्रति भेदभाव की भावना कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है. आए दिन कहीं न कहीं से दलितों के साथ हिंसा की खबरें आ रही हैं. कभी सरेआम मारपीट, कभी भीड़ के द्वारा दलितों की हत्या आम बात हो चली है. अपने साथ हो रही हिंसक घटनाओं और दमनकारी कार्रवाइयों से दलित समुदाय में असंतोष पनप रहा है. दलितों के गुस्से और हताशा की अभिव्यक्ति उनके विरोध प्रदर्शनों के तौर पर सामने आ रही है. अहम बात यह है कि दलितों के विरोध प्रदर्शनों में दिन-ब-दिन इज़ाफा हो रहा है.
पिछले कुछ सालों में सरकार ने अपनी नीतियों के ज़रिए दलितों को खासा निराश किया है. देश भर में दलितों के खिलाफ हुईं हिंसक घटनाओं के बावजूद आरोपियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई. और न ही ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ज़रूरी कदम उठाए गए. सरकार के इस रवैए से ऐसा संदेश गया कि दलित देश में दोयम दर्जे के नागरिक हैं.
दलितों के साथ जो कुछ हो रहा है वैसी ही पीड़ा हाशिए पर पड़े कुछ अन्य समुदायों को भी झेलना पड़ रही है. ऐसा लग रहा है कि देश में भेदभाव और दमन का नया चलन शुरू हो चुका है. मुस्लिम समुदाय को भी हाशिए पर लाने की कोशिशें हो रही हैं. उन्हें यह एहसास करवाया जा रहा है कि देश से उनका कोई संबंध नहीं है. यह खतरनाक सियासी एजेंडा एक मुस्लिम व्यक्ति की पहचान को एक भारतीय से अलग करने की कोशिश कर रहा है. देश के मुस्लिम समुदाय को तेज़ी से अलग-थलग करने के बाद केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बीजेपी की नज़र अब दलितों पर है. दलित समुदाय को अलग-थलग करके हाशिए पर लाने के लिए वही नीति और प्रक्रिया अपनाई जा रही है जो मुस्लिम समुदाय के लिए अपनाई गई.
हर समुदाय को एक मजबूत, राष्ट्रव्यापी, विश्वसनीय नेतृत्व की आवश्यकता होती है ताकि उनका उचित मार्ग दर्शन हो सके. एक विश्वसनीय नेतृत्व ही किसी समुदाय की समस्याओं और ज़रूरतों को भली-भांति समझ सकता है और उनका हल निकाल सकता है. एक मज़बूत नेतृत्व ही किसी समुदाय को समाज की मुख्यधारा में लाता है और उसके वाजिब अधिकारों को दिलाने में मदद करता है. इस तरह के नेतृत्व का सबसे अच्छा उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका है. अमेरिका में हिंसा, भेदभाव और अलगाव का लंबा और दर्दनाक इतिहास रहा है.
ऐसा ही कुछ हुआ था अमेरिका में भी
गुलामी प्रथा के चलते अमेरिका को गृह युद्ध की आग में झुलसना पड़ा. अमेरिका में गुलामी की व्यवस्था बिल्कुल वैसी ही व्यापक और दमनकारी थी जैसी कि भारत में जाति व्यवस्था. एक वक्त था जब भारत संवैधानिक रूप से अमेरिका से आगे था. साल 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ था तब देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए गए थे. जबकि अमेरिका में 1950 और 1960 के दशक में नागरिक अधिकार आंदोलन (सिविल राइट्स मूवमेंट) के बाद ही सभी नागरिकों को समान अधिकार (मताधिकार सहित) मिल पाए थे.
अमेरिका के सिविल राइट्स मूवमेंट से अलग-अलग विचारधाराओं वाले कई नेताओं का उदय हुआ था. जिनमें गांधीवादी मार्टिन लूथर किंग और मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर आतंकी संगठन ब्लैक पैंथर पार्टी भी शामिल थी. दासता और समुदाय विशेष के अलगाव-आधारित उत्पीड़न ने अमेरिका को बहुत नुकसान पहुंचाया था, जिसे आज भी महसूस किया जा सकता है. हालांकि मजबूत सकारात्मक कदमों और समान अधिकारों के लिए राजनीतिक और विधायी सुदृढ़ीकरण के चलते अमेरिका को अपना पहला अश्वेत राष्ट्रपति मिला.
यह अश्वेत राष्ट्रपति कोई और नहीं बल्कि बराक ओबामा थे, जो लगातार दो बार सत्तारूढ़ रहे. मुझे विश्वास है कि अमेरिका स्वतंत्र और समान देश होने की अपनी क्षमता का एहसास करने में सक्षम है. अमेरिका ने दुनिया को यह साबित करके दिखाया है कि व्यक्तिगत मामलों में पूर्वाग्रहों से कैसे निपटा जाता है. अमेरिका ने यह भी दिखाया है कि विकास और उद्धार के मकसद से संस्थाएं सभी लोगों वास्ते समान रूप से कैसे काम करती हैं.
जाहिर है, सिर्फ कानून बनाकर उसे पारित करना ही पर्याप्त नहीं है. यह किसी समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता है. किसी देश में किसी समुदाय विशेष को हाशिए से हटाकर मुख्यधारा में लाने के लिए मज़बूत नेतृत्व और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है. सबसे पहले देश के मुख्य संस्थानों के चरित्र को बदलना पड़ता है. पुलिस, राजनीतिक दलों, नौकरशाहों को समावेशी और निष्पक्ष बनाना पड़ता है. महत्वपूर्ण बदलाव तो मजबूत नेतृत्व से ही आता है. तभी कानून के ज़रिए वास्तविक परिवर्तन होता है.
भारत की बात करें तो सत्ता में अल्पसंख्यक समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व मौजूद है, लेकिन नेताओं का मुस्लिम या दलित होना जरूरी नहीं है. यही कतई ज़रूरी नहीं है कि किसी समुदाय विशेष का उद्धार करने वाला उसी समुदाय से संबंध रखता हो. संभवत: लोकतंत्र और विकास का सच्चा संकेत तो तब मिलेगा जब मुस्लिमों की समानता और अधिकारों की लड़ाई कोई हिंदू जननेता लड़ेगा, या जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए कोई ब्राह्मण नेता उभर कर सामने आएगा.
इस तरह के नेतृत्व को विश्वसनीय होना चाहिए. वहीं इस तरह के नेतृत्व को कुछ मुद्दों पर राजनीति करने और कुछ मुद्दों पर राजनीति से दूर रहने का संतुलन बनाए रखना होगा. नेतृत्व का मतलब सिर्फ कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं होना चाहिए. नेतृत्व का मतलब कोई एक विचार भी हो सकता है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक प्रभावी नेतृत्व तभी पैदा हो सकता है जब वह किसी वर्ग और समुदाय विशेष के सीधा संबंध न रखता हो. यानी वह अन्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाला हो.
हमारे यहां कदम नहीं उठाते नायक
उदाहरण के लिए, जब हॉलीवुड अभिनेता मार्लोन ब्रैंडो ने फिल्म 'गॉडफादर' में अपने अभिनय के लिए ऑस्कर जीता था, तब उन्होंने अवॉर्ड लेने से इनकार कर दिया था. उस वक्त मार्लोन ब्रैंडो ने ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में अपनी जगह नेटिव अमेरिकन (अमेरिकी आदिवासियों) के नागरिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली अमेरिकन अभिनेत्री सशीन लिटिलफीदर को भेजा था. अभिनेत्री सशीन ने समारोह में मार्लोन ब्रैंडो की स्पीच (भाषण) पढ़ी था और विरोध दर्ज कराया था. दरअसल मार्लोन ब्रैंडो पॉपुलर कल्चर और हॉलीवुड फिल्मों में आदिवासियों की खराब छवि और फिल्म इंडस्ट्री में उनका उचित प्रतिनिधित्व न होने से नाखुश थे.
लिहाज़ा उन्हें अनोखे तरीके से अपना विरोध दर्ज कराया था. इस तरह का विरोध और नेतृत्व एक देश को मज़बूत बनाता है और एक सच्चे वैश्विक नेता को जन्म देता है. भारत में निजी क्षेत्र या मनोरंजन जगत से शायद ही कोई ऐसी शख्शियत हो जिसने दलितों पर हो रहे अत्याचारों और उनके दमन की निंदा की हो या उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कदम उठाया हो.
नेतृत्व का मतलब होता है, शासक वर्ग की ओर से खतरों के बावजूद खुद को असुविधाजनक स्थिति में रखना. खुद को असुविधा में रखने का यह फैसला होशो-हवास में किया जाता है. नेतृत्व के पास खोने के लिए बहुत कुछ होता है. उसके निकट कई खतरे और आशंकाएं होती हैं. लेकिन नेतृत्व को इंसाफ के लिए अडिग खड़ा रहना पड़ता है. इतिहास गवाह है कि परंपरागत रूप से वंचित समुदायों को उनके अधिकार दोबारा दिलाने और समाज में वास्तविक परिवर्तन की गति तेज़ करने के लिए यही एकमात्र तरीका कारगर है.
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