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निजता का अधिकार: शायद अब लोगों को चैन से जीने दे सरकार

आम लोगों के जीवन का कोई बड़ा उत्तरदायित्व जब सरकार नहीं उठा पा रही है तो वह आखिर किस तरह से उसके शरीर पर अपना दावा पेश कर सकती है

Updated On: Aug 26, 2017 10:45 AM IST

Sandipan Sharma Sandipan Sharma

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निजता का अधिकार: शायद अब लोगों को चैन से जीने दे सरकार

निजता को मौलिक अधिकार बताने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार हड़बड़ी में दिखाई दी. एनडीए सरकार ने अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के जरिए कोर्ट में यह तर्क दिया था, ‘किसी का अपने शरीर पर संपूर्ण अधिकार एक मिथक है.’ अब चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया है तो सरकार अलग-थलग पड़ती नजर आई है.

रोहतगी का तर्क था कि राज्य किसी के शरीर पर अधिकार कर सकता है, इसे राष्ट्रीय प्रोजेक्ट के लिए राष्ट्रीय संपत्ति के तौर पर देख सकता है. लेकिन, यह तर्क अपनी शुरुआत से ही बेमतलब का था. इसमें नाजी-स्टालिन युग की सोच नजर आ रही थी.

क्या था सरकार का तर्क?

उस वक्त राज्य का तर्क यह था कि नागरिकों का जीवन अपने मन, शरीर और दिमाग से राज्य की सेवा करना है, नागरिक सरकार के मकसद का साधन होते हैं और उनकी निजता, महत्वाकांक्षा, सपने दूसरे दर्जे के होते हैं या होते ही नहीं है.

रोहतगी या विस्तारित रूप में नरेंद्र मोदी सरकार ने जो तर्क दिया है उसे लेखक आयन रैंड ने कम्युनिस्ट-नाजी दौर के कलेक्टिविज्म (समूहवाद) का नाम दिया था. उन्होंने कहा था, ‘कलेक्टिविज्म एक सिद्धांत है जो कहता है कि समूह की इंडीविजुअल पर सर्वोच्चता होती है. कलेक्टिविज्म का मतलब है, सामूहिक- समाज, राष्ट्र, सर्वहारा, जाति वगैरह. कलेक्टिविज्म हकीकत की एक इकाई है और मूल्यों का मानक है. इस नजरिए से, इंडीविजुअल केवल एक समूह के हिस्से के तौर पर हकीकत है, और उसका मूल्य उतना ही जितनी वह इसकी सेवा करता है. इंडीविजुअल को समूह के लिए ऐसे किसी भी मौके पर अपना बलिदान देना होगा, जब उसके प्रतिनिधि- राज्य को करने की जरूरत महसूस हो.’

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सरकार से अलग सोचने का हक

सर्वोच्च न्यायालय का निजता को मौलिक अधिकार मानने एकमत से दिया गया फैसला सरकार के अपने नागरिकों पर कलेक्टिविज्म थोपने की कोशिश को करारा झटका है. अपनी शुरुआत से ही सरकार ने नारों और एजेंडा के जरिए ऐसे संदेश देने की कोशिश की है जिनसे नागरिक सरकार के घुमाए जा रहे एक बड़े पहिये के दांतों की तरह प्रतीत होते हैं.

सरकार की नागरिकों से उम्मीद रही है कि वे एक निश्चित तरीके से सोचें और कार्य करें. मसलन, नागरिक राष्ट्र की बुराई न करें, विरोध राष्ट्रद्रोह है, आर्मी पर सवाल न उठाएं, अपने खानपान को बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा के हिसाब से तब्दील करें, भारत के लिए खड़े हों, वगैरह.

मोदी दौर की बहस का मूल इंडीविजुअल को खत्म करने और उसे एक बड़े समूह का हिस्सा बनाने का रहा है, जिसे राष्ट्र निर्माण, हिंदुत्व और शोर-शराबे वाले राष्ट्रवाद का नाम दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने नागरिकों को उन्हें इसका मोहरा बनाए जाने की कोशिशों का विरोध करने का अधिकार दिया है.

 

नागरिकों से अपराधी की व्यवहार सही नहीं

मौजूदा वक्त में सरकार के लिए इस्तेमाल होने वाले मधुर शब्द राज्य (स्टेट) को क्यों किसी इंडीविजुअल के निजता के अधिकार को खारिज करना चाहिए? मई में, जब रोहतगी ने यह तर्क दिया, तब वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की कानून की प्रक्रियाओं के साथ तुलना करते हुए बचकाने से नजर आए.

उनका तर्क था कि जिस तरह से ड्राइविंग या क्रिमिनल मामलों में अल्कोहल की टेस्टिंग के लिए खून के सैंपल देने के लिए नागरिकों को बाध्य किया जा सकता है, उसी तरह से आधार के सरकारी काम के लिए उनके आंखों और फिंगरप्रिंट्स भी लिए जा सकते हैं.

इस मूर्खतापूर्ण तर्क के सात उन्होंने एक बयान में हर नागरिक को क्रिमिनल इनवेस्टिगेशन के आरोपी के बराबर ला खड़ा किया. सुप्रीम कोर्ट के पास सरकार के इस अतार्किक, अनुचित और बचकाने तर्क को मानने की कोई वजह नहीं थी.

शायर इब्राहिम ज़ौक़ की मशहूर पंक्तियां हैं, ‘लाई हयात आए, कज़ा ले चली चले, अपनी खुशी न आए अपनी खुशी न चले.’ अगर सरकार के समझदार लोगों ने ज़ौक़ की दार्शनिक शायरी को पढ़ा होता तो उन्हें पता होता कि राज्य का किसी इंडीविजुअल के शरीर पर कोई हक नहीं है. राज्य की इंडीविजुअल की उत्पत्ति या जीवन में कोई भूमिका नहीं है. यह सब प्रकृति के हाथों में है और हयात (मौजूदगी) और कज़ा (मौत) एक चक्र है.

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बिना जिम्मेदारी उठाए शरीर पर दावा कैसे 

भारतीय राज्य के लिए यह चीज और अधिक सत्य है जिसका किसी इंडीविजुअल के जीवन को शक्ल देने में बेहद सीमित रोल है. भारत में तकरीबन हर शख्स अपने बूते टिका हुआ है, उसे राज्य से शिक्षा, स्वास्थ्य या कल्याण में कोई खास मदद नहीं मिलती.

आम लोगों के जीवन का कोई बड़ा उत्तरदायित्व जब सरकार नहीं उठा पा रही है तो वह आखिर किस तरह से उसके शरीर पर अपना दावा पेश कर सकती है. यह स्वार्थ और अनुचित है. सर्वोच्च न्यायालय ने निजता पर सरकार की दलील को खारिज कर एक सही कदम उठाया है.

इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे. डिजिटलीकरण के दौर में इंडीविजुअल प्राइवेसी को सरकार और इसकी एजेंसियों की संपत्ति बताना एक खतरनाक चीज है. इससे हरेक की जिंदगी धीरे-धीरे ट्रूमेन शो में तब्दील हो जाती, और इंडिया वैकोवस्की ब्रदर्स की मैट्रिक्स जैसा हो जाता, जहां हर इंडीविजुअल की जिंदगी रिमोट से राज्य के हाथों कंट्रोल होती.

इसमें कोई अचरज नहीं है कि कलेक्टिविज्म और अथॉरिटेरियनिज्म को खारिज करना डेमोक्रेसी की जीत है. इससे यह भी साफ हुआ है कि शख्स की खुद की अहमियत सबसे ऊपर है. सदियों पुरानी कहावत 'अहं ब्रह्मास्मि' ने उन लोगों का मुंह बंद कर दिया है जो कि सुप्रीम कोर्ट के तलाक-ए-बिदत (एक बार में तीन तलाक) को खत्म करने का क्रेडिट मिलने का जश्न मना रहे थे.

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