सरकार का अतिमहत्वाकांक्षी जीएसटी बिल पास हो चुका है. इसमें सरकार ने रोजमर्रा की जरूरी चीजों के लिहाज से टैक्स स्लैब तय कर दिया है. जीएसटी स्लैब के मुताबिक, कॉन्डम पर कोई टैक्स नहीं लगाया जाएगा. जाहिर है इसके पीछे सरकार की मंशा इसे सस्ता बनाए रखने की है ताकि इसके इस्तेमाल से आबादी का बोझ कम हो सके.
वहीं दूसरी तरफ सरकार ने सैनिटरी नैपकिन को 12 फीसदी टैक्स स्लैब के दायरे में रखा है. महिलाओं की सेहत के लिहाज से यह फैसला काफी अहम हो जाता है. देश की महिलाओं का एक बड़ा तबका आज भी सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करता. वजह जागरुकता का अभाव और सैनिटरी नैपकिन की कीमत है. सरकार ने सिंदूर, बिंदी, चूड़ियों को जीएसटी से बाहर रखा है.
सैनिटरी नैपकिन पर सरकार के फैसले को देखकर तो कम से कम यही लगता है कि महिलाओं की सेहत की पूरी तरह अनदेखी की गई है. जीएसटी में 12 फीसदी टैक्स के प्रस्ताव के बावजूद ये नैपकिन आज के मुकाबले सस्ते होंगे. फिलहाल इस पर 14 फीसदी टैक्स लगता है. यह किसी लग्जरी प्रॉडक्ट पर लगने वाले टैक्स के बराबर है.
क्यों लग्जरी नहीं, जरूरत है?
निचले तबके की महिलाओं तक सैनिटरी नैपकिन पहुंचाने की जिम्मेदारी गूंज ने उठायी है. यह एनजीओ गांवों में महिलाओं को कपड़े से बने नैपकिन पहुंचाती है. गूंज की डायरेक्टर अंशु गुप्ता ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'आप जितना सोच सकती हैं, हालात उससे कहीं ज्यादा बुरे हैं. पीरियड्स के दौरान लड़कियां, महिलाएं क्या-क्या इस्तेमाल करने को मजबूर हैं, उसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकती हैं.' उन्होंने कहा, ऐसे वक्त में वे सूखी पत्तियां, गोबर के उपलों तक का भी इस्तेमाल करती हैं. यकीन करना मुश्किल है लेकिन यह सच है.
कीमत बनी अड़चन
जिन गावों तक सैनिटरी नैपकिन पहुंच गया है, वहां भी कीमत की वजह से महिलाएं इसे लेने में कतराती हैं. आप सोच रहे होंगे कि कपड़ा विकल्प है. लेकिन जहां पहनने को बमुश्किल कपड़ा मिल रहा है वहां इस चीज के लिए कपड़ा कहां से मिलेगा.
ट्राइबल लड़कियों के भविष्य को बेहतर बनाने का काम कर रहे अहान फाउंडेशन की रश्मी तिवारी ने ओडिशा के एक आदिवासी गांव का जिक्र किया. उन्होंने बताया कि एक आदिवासी परिवार की तीनों बेटियों को जब उन्होंने बाहर आने को कहा तो वे एक-एक करके आईं क्योंकि उनके पास सिर्फ एक जोड़ा कपड़ा था.
संक्रमण का बड़ा खतरा
कपड़ा इस्तेमाल करना सही है लेकिन डॉक्टरों के मुताबिक, एक ही कपड़ा दोबारा इस्तेमाल करने के लिए उसे धोकर धूप में सुखाया जाता है. ऐसा ना करने पर इंफेक्शन हो सकता है.
लेकिन शर्म और लिहाज के नाम पर ऐसा नहीं होता है. एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में 81 प्रतिशत महिलाएं संक्रमित कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. सैनिटरी प्रोडक्ट्स की कमी या फिर गलत चीजों के इस्तेमाल से महिलाओं में रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन की आशंका 70 प्रतिशत बढ़ जाती है.
सरवाइकल का बढ़ता खतरा
दुनिया भर में महिलाओं की सरवाइकल कैंसर से हो रही मौतों में से 27 प्रतिशत अकेले भारत में होती हैं. ये नहीं कहा जा सकता कि सबकी वजह सैनटरी से जुड़ी समस्याएं हैं पर हां ये एक मुख्य कारण है.
12-18 साल की बच्चियां महीने में 5 दिन सिर्फ इसलिए स्कूल नहीं जा पातीं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है.
क्या है लहू का लगान?
‘शी सेज’ नाम की एक संस्था ने ‘लहू का लगान’ नाम से एक कैंपेन की शुरूआत की थी. कैंपेन के जरिए उन्होंने सैनिटरी नैपकिन को टैक्स फ्री करने का मुद्दा उठाया गया था. कैंपेन को आम लोगों से लेकर सेलिब्रिटीज तक का सपोर्ट मिला था. पर जीएसटी की तय हुई एकदम ताजा दरों को देखकर लगता है कि कैंपेन का कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ा.
'फूल्लू' फिल्म के जरिए भी इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की गई है. फिल्म के डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना ने फ़र्स्टपोस्ट हिंदी को बताया कि जब वो मथुरा के पास कोयला अली पुर नाम एक गांव में फूल्लू फिल्म के लिए शूट कर रहे थे तो वहां लोगों को ये तक मालूम नहीं था कि सैनिटरी नैपकिन नाम की कोई चीज भी इस दुनिया में है.
अभिषेक कहते है हम किस मॉडर्न इंडिया की बात कर रहे हैं जब हम इतनी बेसिक चीज में ही पीछे हैं. आजादी के 70 साल और 70 प्रतिशत महिलओं के पास सैनिटरी नैपकिन नहीं है. भारत में लगभग 355 मिलियन महिलाएं मेंस्ट्रुएशन वाली उम्र में हैं और इनमें से लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं की सैनिटरी नैपकिन तक कोई पहुंच नहीं है.
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