आठ नवंबर की रात राष्ट्र के नाम अपने संदेश में जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 के नोटों को बंद करने का फरमान सुनाया, देश की जनता स्तब्ध रह गई.
किसी ने भी अचानक हुए इस ऐलान की उम्मीद नहीं की थी. इसके बाजार और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को लेकर रात से ही तरह-तरह के कयास लगने लगी थी, जो कि अभी भी जारी है.
खासतौर पर बीजेपी समर्थक ये कहते सुने जा सकते हैं कि सरकार के इस कदम से ‘कालेधन’ की समस्या समाप्त हो जाएगी. ये समझ उस सोच पर टिकी हुई है, जो कि राजा-रानी के किस्सों के खजानों से बनी है.
जनता को ये मनवाया जाता है कि बड़े रईस, माफिया, नेता जैसे लोग अपने धन को नोटों और सिक्कों की शक्ल में अपने गद्दे-तकियों में छुपा कर या फिर जमीन में गाढ़ कर रखते हैं.
इन लोगों को ये भी लगता है कि अब जबकि उनको अपना धन बर्बाद होता लगेगा तो वो उसे लेकर बैंक में आएंगे और पकड़ लिए जाएंगे. क्या ये लोग अपने आसपास के बड़े माफिया, नेता या फैक्ट्री मालिक को नहीं जानते.
क्या वो अपने हाथ के नीचे काम करने वाले बहुत से लोगों को बैंकों की लाइन में लगा कर ये धन न बदलवा लेंगे? सरकार पहले ही जनधन योजना के तहत ऐसे बैंक खातेदारों की फौज तैयार कर चुकी है.
ये बात कुछ छोटे दुकानदारों या साहूकारों के लिए सही हो सकती है, जो टैक्स की चोरी कर पैसे बचाते हैं लेकिन वे तो तालाब की छोटी मछलियां हैं. ‘कालाधन’ असल में खुद में ही एक बहकाने वाला शब्द है.
कालाधन कहीं पर जमा नोटों के बंडल या सिक्कों के ढेर का नाम नहीं है. ये उन गैरकानूनी तरीकों का नाम है जिस से कि देश को टैक्स का नुकसान पहुंचाया जाता है.
असल में हमारे देश के बड़े पूंजीपति देश से कोई धन बाहर बोरों में भर कर नहीं ले जाते. वो एक्सपोर्ट के गलत दाम बता कर विदेश में ही बहुत सा पैसा रोक लेते हैं. ये भारतीय नोट नहीं होते ये विदेशी मुद्रा ही होती है.
हवाला के जरिये भी देश की बहुत सी संपत्ति बाहर के मुल्कों में ही रोक ली जाती है. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनावी अभियान के दौरान बार-बार ये कहा था कि देश का खरबों रुपया स्विट्जरलैंड और अन्य देशों के बैंकों में जमा है जिसको वापस लाने की जरूरत है.
उनकी अपनी समझ में देश के अंदर चल रहे 1000 या 500 रुपये के नोट कालाधन की समस्या नहीं थे. यहां पर ये बात समझाता चलूं कि प्रधानमंत्री जी का वो भाषण भी काले धन की परिभाषा को अलग मायने देता था.
उनको सुन आम जनता को ऐसा लगता था जैसे कि स्विस बैंक में गठरियों में बांध कर भारतीय मुद्रा रखी गई है.लोगों के ये समझने की जरूरत है कि माल्या या दाऊद इब्राहिम जैसे बड़े कालेधन के जमाखोर बोरों में भर कर पैसा अपने साथ नहीं ले जाते.
उनका पैसा कानूनी तरीकों से चलने वाले बैंकों के जरिए ही देश के बाहर ले जाया जाता है और उन देशों में वो पैसा भारतीय नोटों के तौर पर जमा नहीं होता बल्कि डॉलर और यूरो के तौर पर होता है.
तो विदेशों में जिनका पैसा जमा है आप ये शेखचिल्ली का ख्याल निकाल दीजिये कि वो अपने पैसे को बचने उसे देश वापस ले कर आने वाले हैं या उनका कोई नुकसान होगा. अटकलों से हटकर सरकार के इस कदम का देश की अर्थव्यवस्था पर असर आने वाले समय में ही साफ हो पायेगा.
(लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में इतिहास के शोधकर्ता हैं)
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