प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर की रात यह घोषणा कर के देश को चौंका दिया था कि चार घंटे बाद 500 और 1000 रुपये के नोट चलना बंद हो जाएंगे और उनका कोई वैधानिक मूल्य नहीं रह जाएगा. काले धन पर अचानक हुए इस हमले ने पूरे देश को सकते में डाल दिया था.
सबके दिमाग में यही चल रहा था कि पुराने नोटों को नए नोटों से बदलने में कितनी दिक्कत आएगी और नए नोट जारी होने तक केवल 100, 50, 20 और 10 रुपये की करेंसी से कैसे काम चल सकेगा. इस बीच हालांकि एक और सवाल पैदा हो चुका था. सवाल ये था कि आखिर ऐसे अप्रत्याशित कदम का ख्याल कहां से उपजा?
भारत जितनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश की सरकार जब इतना बड़ा फैसला लेती है, तो बहुत मुमकिन है कि उससे पहले कई स्रोतों से वह उस संबंध में विचारों को आमंत्रित करती होगी.
फर्स्टपोस्ट ने ऐसे ही एक संगठन की पहचान की है जिसके काले धन के बारे में विचार प्रधानमंत्री की घोषणा के साथ मेल खाते हैं.
काला धन के खिलाफ आंदोलन का बिगुल
इस संगठन का नाम है अर्थक्रांति. पुणे स्थित इस संस्थान को कुछ तकनीकविद और चार्टर्ड अकाउंटेंट मिलकर चलाते हैं, जिनका मिशन मोटे तौर पर संगठन के नाम के ही अनुरूप है.
यह नाम इन्होंने अपने लिए खुद चुना है. अर्थक्रांति का दावा है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही उसने बड़े मूल्य की मुद्रा को चलन से हटाने समेत चार अन्य प्रस्ताव उनके पास भेजे थे.
संगठन की वेबसाइट पर 9 सितंबर को प्रकाशित एक न्यूजलेटर के मुताबिक,'अर्थक्रांति संस्थान के एक अहम सदस्य अनिल बोकिल को मोदी की ओर से (काला धन निकालने की अपनी योजना के संबंध में) अपनी बात रखने का वक्त दिया गया था. उन्हें नौ मिनट का वक्त दिया गया था लेकिन मोदी उन्हें दो घंटे तक सुनते रहे.'
अर्थक्रांति के मुताबिक उसने पांच प्रस्ताव रखे थे. उसके मुताबिक ये प्रस्ताव,'मौजूदा भारतीय सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य का कायाकल्प करने के लिए पर्याप्त शोध के बाद अपनाए गए वैज्ञानिक विचार हैं. यह नजरिया देश के सभी नागरिकों के लिए 'सैद्धांतिक, संपन्न और शांतिपूर्ण' जीवन को समर्थ बनाएगा.'
इन प्रस्तावों के पीछे की दृष्टि और संगठन के सफर के बारे में बात करते हुए अर्थक्रांति के एक सदस्य और पेशे से मेकैनिकल इंजीनियर आमोद फाल्के ने बताया,'पांच सूत्रीय अर्थक्रांति प्रस्ताव 1999 में अस्तित्व में आया. ध्यान देने वाली बात है कि 1999 में 1000 के नोट चलन में नहीं थे. वे 2001 में चलन में आए और आज समूचे मौद्रिक मूल्य में इनकी हिस्सेदारी 38 फीसदी है.'
वे कहते हैं, 'हमारी तलाश 1995 के आसपास शुरू हुई. इसके पीछे की प्रेरणा कुछ ऐसे संवेदनशील और विवेकशील लोग थे, जिन्होंने अपने आसपास कुछ परिवारों को निजी सूदखोरों के बोझ तले टूटते हुए देखा, जो उनसे दो फीसदी प्रतिमाह का न्यूनतम ब्याज वसूलते थे.'
उन्होंने कहा, 'कुछ बुनियादी जिज्ञासाओं से तलाश की शुरुआत हुई. मसलन, सरकार जरूरी मात्रा में पैसे क्यों नहीं छाप रही है? इतने सारे लोगों की बैंकों तक पहुंच क्यों नहीं है? मुद्रा क्या होती है? बैंक का पैसा क्या होता है? सरकार द्वारा निश्चित मात्रा में करेंसी को छापने के पीछे क्या तर्क है?
जवाब की तलाश में इन प्रतिभावान लोगों को उस व्यापक तस्वीर का अहसास हुआ, जहां अर्थव्यवस्था के मौद्रिक और वित्तीय दोनों ही आयामों को तय करने में कररोपण प्रणाली, उच्च मूल्य की मुद्रा और अल्पविकसित बैंकिंग तंत्र आदि की भूमिका शामिल होती है. इसी अथक प्रयास के चलते 1999 में 'अर्थक्रांति प्रस्ताव' का जन्म हुआ.'
प्रधानमंत्री से अपनी मुलाकात के बारे में फाल्के ने बताया, 'हम लोग मोदीजी से 2014 में गांधीनगर में मिले थे, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. यह बैठक करीब 90 मिनट तक चली. हमने इस बात को रेखांकित किया कि कैसे मौजूदा आर्थिक हकीकत की जड़ में दरअसल व्यापक अर्थव्यवस्था की तकनीकी गड़बडि़यां हैं- कररोपण प्रणाली, उच्च मूल्य की मुद्रा और अल्पविकसित बैंकिंग तंत्र.'
उन्होंने बताया, 'उच्च्ा मूल्य की मुद्रा (500 और 1000 के नोट) कुल मौद्रिक मूल्य में करीब 85 फीसदी हिस्सेदारी रखती है और यही काले धन, भ्रष्टाचार, समाजविरोधी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में मदद देती है. यही चीज हमारे देश में पैसे को 'जिंस' में तब्दील कर देती है और उसे उसके मूल उद्देश्य यानी 'विनिमय का माध्यम' भर रहने से भटका देती है.
माध्यम का अर्थ ऐसी वस्तु है, जिसका इस्तेमाल तो हर कोई कर सके लेकिन किसी के पास उसका स्वामित्व न हो. उच्च मूल्य की मुद्रा के कारण ही हमारे देश में हम बड़ी आसानी से भारी मात्रा में नकदी जमा कर पाते हैं और इस तरह मुद्रा जिंस (माल) बन जाती है. इसके चलते बैंक का पैसा यानी जो पैसा कर्ज में दिया जा सकता है, वह बाधित हो जाता है.
इसके अलावा नकली मुद्रा का भी एक सवाल है, जो तकनीकी समस्या है. उच्च मूल्य की मुद्रा को छापने की लागत बहुत सस्ती है (चार रुपया प्रति नोट) जिसके चलते उसे छाप कर अर्थतंत्र में धकेलना आसान हो जाता है.'
वे कहते हैं, मोदीजी ने पहला कठिन कदम उठाते हुए उच्च मूल्य की मुद्रा को प्रतिबंधित कर के जबरदस्त साहस का परिचय दिया है. हमें उम्मीद है कि जल्द ही वे अर्थक्रांति प्रस्ताव के शेष बिंदुओं को भी लागू करेंगे.'
सवाल उठता है कि अर्थक्रांति के बाकी क्रांतिकारी प्रस्ताव क्या हैं? हमने पहले ही कहा कि बहुत संभव है मोदी ने जहां-जहां से नुस्खे आमंत्रित किए हों, अर्थक्रांति उनमें महज एक संस्था हो लेकिन अर्थक्रांति के प्रस्तावों और सरकार की कार्रवाई के बीच जो चौंकाने वाली समानताएं दिख रही हैं, वे यह सवाल पूछने को मजबूर करती हैं.
आखिर अर्थक्रांति के तरकश में अगला कौन सा महान तीर है और क्या सरकार उसे आजमाने को तैयार है?
जवाब के लिए इस जगह पर निगाह बनाए रखें. अर्थक्रांति का अगला महान नुस्खा जानकर आपके होश फाख्ता हो जाएंगे. नुस्खे के स्तर पर देखें तो वह वाकई बहुत कष्टदायक है, इसलिए कहा नहीं जा सकता कि वह कभी लागू भी हो पाएगा या नहीं. फिर भी दो दिन पहले का सबक याद रखिए, जब वह हो गया जिसके बारे में हमने पहले कभी सोचा तक नहीं था.
अर्थक्रांति का अगला मारक नुस्खा जल्द ही आपके सामने होगा.
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