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हिंदुत्व ताकतों और दबंगों की दबंगई की वजह से पढ़े-लिखे दलितों ने तेज की वजूद की लड़ाई

शिक्षा और रोजगार के स्तर में इजाफे के साथ दलितों में अपने हक की दावेदारी बढ़ी है

Updated On: Feb 06, 2018 02:17 PM IST

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हिंदुत्व ताकतों और दबंगों की दबंगई की वजह से पढ़े-लिखे दलितों ने तेज की वजूद की लड़ाई

वाकया इसी साल की पहली जनवरी का है. हिन्दू समाज की जाति-संरचना के भीतर सबसे वंचित दलित समुदाय के लोग इतिहास की एक खास घटना की याद में पुणे के भीमा कोरेगांव में बड़ी तादाद में जुटे थे. दो सौ साल पहले भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय के महार जाति के लोगों ने ब्राह्मणवादी पेशवा वंश की ताकतों को हराने में यहां अंग्रेजों की मदद की थी.

भीमा कोरेगांव में जुटे दलितों पर दक्षिणपंथी जमात के लोगों ने हमला किया. वे इस बात से नाराज थे कि अंग्रेजों की जीत का जश्न मनाया जा रहा है. अगले दिन दलित समुदाय के लोगों का आक्रोश भड़का और उनके विरोध-प्रदर्शन के कारण भारत की आर्थिक राजधानी कहलाने वाली मुंबई में रोजमर्रा का जन-जीवन ठप्प हो गया.

बीते दो सालों में तीसरी दफे फिर से यह स्पष्ट हुआ कि दलित अगड़ी जातियों के अत्याचार की मुखालफत में पूरे दम-खम के साथ उठ खड़े हो सकते हैं. दो साल पहले हैदराबाद के एक दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकशी के मामले में देश भर में छात्रों ने विरोध-प्रदर्शन किए थे. इसके बाद 2016 की जुलाई में ऊना में कथित गौ रक्षकों ने दलितों पर सरेआम अत्याचार किए तो हिंसक विरोध-प्रदर्शन हुए थे.

Bhima Koregaon Protest

शिक्षा और रोजगार के स्तर में इजाफे के साथ दलितों में अपने हक की दावेदारी बढ़ी है. इंडियास्पेन्ड की 13 दिसंबर 2013 की एक रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति में साक्षर लोगों की तादाद में 51 फीसदी का इजाफा हुआ है. शहरी इलाकों में अनुसूचित जाति के लोगों में साक्षर व्यक्तियों की तादाद में 62 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. अनुसूचित जाति के लोगों में वर्कर पार्टिसिपेशन रेट(कामगार प्रतिभागिता दर) राष्ट्रीय औसत(39.8 प्रतिशत) से ज्यादा(40 प्रतिशत) है.

साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर इंडियास्पेन्ड ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों में जिन्हें नव-बौद्ध भी कहा जाता है, अनुसूचित जाति के हिन्दुओं की तुलना में साक्षरता दर कहीं ज्यादा है, उनमें कार्य प्रतिभागिता दर और लैंगिक अनुपात(सेक्स रेशियो) भी बेहतर है.

फ्रेंच विद्वान और स्तंभकार क्रिस्टोफर जेफरलो (53 साल) बीते तीन दशकों से भारत के दलित और मुस्लिम समुदाय की हाशियाकरण (मार्जिलाइजेशन) का अध्ययन कर रहे हैं. जेफरलो फिलहाल पेरिस स्थित सीईआरआई-साइंसेज पीओ/सीएनआरएस में सीनियर रिसर्च फेलो हैं. भारतीय दर्शन में जेफरलो की दिलचस्पी अठारह साल की उम्र में जागी और आखिरकार उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा संघ परिवार पर अपनी पीएच.डी की.

कैप्शन तिरेपन वर्षीय फ्रेंच विद्वान तथा स्तंभकार क्रिस्टोफर जेफरलो बीते तीन दशक से भारत के दलित और मुस्लिम समुदाय के हाशियाकरण का अध्ययन कर रहे हैं

फ्रेंच विद्वान तथा स्तंभकार क्रिस्टोफर जेफरलो बीते तीन दशक से भारत के दलित और मुस्लिम समुदाय के हाशियाकरण का अध्ययन कर रहे हैं

दक्षिणपंथी राजनीति पर केंद्रित जेफरलो की पहली पुस्तक का नाम 'द हिन्दू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स: 1925 टू द 1990' है. जेफरलो ने ओबीसी की राजनीति और भारतीय मुसलमानों पर भी लिखा है. वे इन समुदायों को ‘नव दलित’ का नाम देते हैं और उन्होंने इन दोनों समुदायों के एक दायरे के भीतर सिमटे रह जाने की घटना की व्याख्या की है. जेफरलो की हालिया किताब  'द पाकिस्तान पैराडॉक्स' में पाकिस्तान की राजनीति में इस्लाम के स्थान पर चर्चा की गई है.

जेफरलो हाल में डा. आंबेडकर एंड डेमोक्रेसी नाम के अपने एक संकलन और  'द इस्लामिक कनेक्शन्स' नाम की सह-संपादित पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर भारत में थे. उन्होंने इंडियास्पेन्ड से दलितों की हाल की गोलबंदी के विषय पर बात की और बताया कि यह गोलबंदी किन मायनों में लीक से हटकर है और किन वजहों से पिछड़ी जातियों में दक्षिणपंथी राजनीति का आकर्षण हमेशा सीमित रहेगा.

रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या के बाद दलित समुदाय की गोलबंदी और दावेदारी में स्पष्ट उभार हुआ है. इस उभार में आपको क्या बात खास नजर आ रही है? क्या आपको लगता है कि यह आंदोलन पहले की तुलना में कहीं ज्यादा ताकतवर है?

आंबेडकर का महाड सत्याग्रह 1927 में हुआ और इसके बाद से कई चरणों में दलितों की गोलबंदी देखने को मिली है. इस गोलबंदी का एक रुप गलियों और सड़कों पर धरना-प्रदर्शन का रहा है तो दूसरा रुप चुनावी गोलबंदी का भी है. साल 1962 और 1967 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया उत्तरप्रदेश में बहुत कामयाब थी. दलितों की हाल की दावेदारी बहुत अहम है क्योंकि इस दावेदारी का उभार एक साथ कई राज्यों में हुआ है.उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि गुजरात में भी यह दावेदारी देखने में आयी.

Ambedkar

इसकी कुछ वजहें तात्कालिक हैं तो कुछ वजहों को लंबे वक्त से जारी प्रक्रियाओं में तलाशा जा सकता है. कई दशकों से जारी आरक्षण की नीति के कारण दलितों को कुछ शिक्षा हासिल हुई है और शिक्षित होने के साथ उनमें अपने अधिकार को लेकर नई चेतना जागी है.

दलितों की गोलबंदी की व्याख्या के लिए परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. एक बात तो यही है कि दलितों को दबंग जातियों के दुश्मनी भरे रवैये का सामना करना पड़ रहा है. मिसाल के लिए 1989 के अत्याचार विरोधी अधिनियम को लेकर मराठों का सवाल उठाना. दूसरी बात यह कि हिन्दुत्ववादी ताकतों के उभार और उनके कुछ कार्यक्रमों की चोट दलित समुदाय पर पड़ी है. ऐसे कार्यक्रमों गोरक्षा का आंदोलन शामिल है. मिसाल के लिए गुजरात के ऊना में हुई घटना को याद किया जा सकता है.

jignesh mevani

नौजवान अब दलित समुदाय के नेता बनकर उभरे हैं. मिसाल के लिए भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद  और जिग्नेश मेवाणी का नाम लिया जा सकता है. दलित आंदोलन के नेताओं में शुमार पुराने नाम जैसे मायावती की चमक और ताकत मंद पड़ी है. ऐसा क्यों हुआ ? पुरानी पीढ़ी के दलित नेताओं से नौजवान नेता किन मायनों में अलग हैं?

ऐसा सोचना आंशिक रुप से सही है. इसकी एक वजह तो मीडिया है जिसका जोर अपने पसंद के चेहरों पर होता है. लेकिन जिन महत्वपूर्ण नौजवान नेताओं का नाम आप ले रहे हैं वे पुराने नेताओं की जगह नहीं ले पाये हैं. इसकी सीधी सी वजह ये है कि इन नौजवान नेताओं के साथ कोई बड़ा संगठन नहीं है. संगठन खड़ा करने में समय लगता है.

बहुजन समाज पार्टी 30 साल पुरानी है और धन की कमी के बावजूद इस संगठन ने पर्याप्त मजबूती दिखायी है. आखिर इस संगठन को यूपी में पिछले चुनाव में 20 फीसदी वोट मिले.

गुजरात में मेवाणी की जीत की एक वजह यह भी रही कि कांग्रेस ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया और कांग्रेस अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर अपना आंकड़ा दो से बढ़ाकर सात पर ले आयी तो उसकी बड़ी वजह दलित शक्ति केंद्र जैसे संगठन हैं जिसे मार्टिन मैक्वन जैसे नेताओं ने कई दशकों की मेहनत के बाद खड़ा किया है.

पत्रकारों को इस किस्म की जमीनी तैयारी पर ध्यान देना चाहिए और उन हालातों की तनिक गहरी जांच-परख करनी चाहिए जिनकी वजह से दलित स्वयंसेवी संगठनों को एफसीआरए से वंचित रखा गया है.

भीमा कोरेगांव में पैदा तनावपूर्ण हालात के बाद अपने हाल के एक लेख में आपने कहा कि तमिलनाडु, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र सहित देश के कई हिस्सों में जातिगत पहचान और वैमनस्य की लकीर अब मुख्य रुप से दलित तथा दबंग जातियों के बीच खींची है. ज्यादातर मामलों में अब अगड़ी जातियां इस समीकरण का हिस्सा नहीं हैं. आपकी इसके पीछे क्या वजहें दिखती हैं ?

यहां पहले दबंग जाति(डोमिनेन्ट कास्ट) की परिभाषा कर लेना ठीक कहलाएगा. दबंग जाति वह है जिसके पास संख्याबल और जमीन हो. ऐसी जातियों में सवर्ण(जैसे कि यूपी में राजपूत) भी आ सकते हैं और शूद्र भी जिनके एक तबके को ओबीसी का नाम दिया जाता है, जैसे कि पटेल. इन जातियों में एक बात समान है. ये जातियां मुख्य रुप से ग्रामीण हैं और खेती-बाड़ी के काम में लगी इन जातियों के सदस्य कृषि-संकट और शिक्षा की कमी के कारण बेरोजगारी की दशा में सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.

दबंग जातियों के सदस्य ओबीसी और दलित जातियों के लोगों के कारण दबाव महसूस कर रहे हैं क्योंकि दलित और ओबीसी जाति के सदस्यों को विश्वविद्यालयों और नौकरियों में आरक्षण के कारण कोटा हासिल है. दबंग जातियों की हाल के समय में अनुसूचित जाति से प्रतिस्पर्धा की वजह सामाजिक-आर्थिक तो है ही, साथ ही एक वजह है इन जातियां का अपनी हैसियत को लेकर मोह. खैर, यह बात अपनी जगह ठीक है लेकिन दलित अब भी बराबरी की टक्कर दे पाने की स्थिति में नहीं हैं और उन्हें राजकीय संरक्षण की जरुरत है( जान-माल की हिफाजत के मामले में भी).

जातिगत हिंसा से जुड़ी अपनी हाल की पड़ताल में इंडियास्पेन्ड को पता चला कि दलितों के खिलाफ अपराध में तेज बढ़ोतरी हुई है. इसकी एक वजह तो ये हो सकती है कि रिपोर्ट पहले की तुलना में ज्यादा संख्या में दर्ज हो रही हो लेकिन दोषमुक्त करार पाये आरोपियों की संख्या भी ज्यादा है. क्या आपको लगता है कि जातिगत हिंसा के अपराधों को लेकर यह सोच हावी है कि ऐसे मामलों में सजा नहीं होगी कि शासन को ऐसे अपराधों की खास परवाह नहीं?

यह बात सिर्फ दलितों के खिलाफ हुए अपराधों पर ही लागू नहीं होती है. ठीक ऐसी ही समस्या मुसलमानों के साथ भी है.  पीट-पीट कर जान से मार देने की घटनाओं में जितनी कम संख्या में लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं, उससे इस बात की तस्दीक होती है. हालात को समझने के लिए कई अलग-अलग बातों पर एक साथ गौर करना होगा जैसे कि पुलिस का पूर्वाग्रह भरा रवैया, अदालतों में मुकदमों की धीमी गति से सुनवाई और साथ ही एक अहम बात यह कि अपराध की गवाहियां जुटाना भी बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि लोग आगे नहीं आते.

संघ को अमूमन दलित-विरोधी और अगड़ी जातियों का माना जाता है लेकिन बीजेपी को यूपी में दलित वोट हासिल करने में कामयाबी मिली. बीजेपी ने बीएसपी से ये वोट अपने पाले में खींच लिए. क्या आपको लगता है कि ऐसा अपवादस्वरुप हुआ या ऐसा बाकी जगहों पर भी हो सकता है ?

उत्तरप्रदेश और अन्य जगहों पर कुछ दलितों ने हमेशा बीजेपी को वोट दिया है और इसकी ढेर सारी वजहें हैं.  इसमें एक वजह है प्रेरक-प्रभाव यानि डेमोन्स्ट्रेशन इफेक्ट(आप एम.एन.श्रीनिवास के शब्दों में इसे संस्कृतीकरण कह सकते हैं) जिसका रिश्ता 19वीं और 20वीं सदी के शुद्धि आंदोलनों से है जब हिन्दू महासभा के नेता दलितों के साथ भोजन करने के मसले पर राजी हुए थे.

दूसरी वजह है संरक्षणवाद यानि एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें दलित बीजेपी के किसी कद्दावर नेता को समर्थन देते हैं और बदले में यह नेता उन्हें आर्थिक रुप से या फिर किसी अन्य तरीके से मदद करता है.

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तीसरी वजह है जातियों के बीच वैमनस्य और गुटबंदी की भावना. अगर कोई एक जाति किसी दलित पार्टी का समर्थन कर रही है तो दूसरी जाति किसी और दल का समर्थन करती है. उत्तरप्रदेश में जाटव समुदाय की बीएसपी के पक्ष में लामबंदी देखकर प्रतिक्रिया में वाल्मिकी( विश्वहिन्दू परिषद् के प्रयासों से यह जाति अब संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में है) समुदाय के लोग बीजेपी को वोट करते हैं. महाराष्ट्र में महारों के वोट आरपीआई को मिलते हैं जबकि अन्य जातियों के वोट शिवसेना और बीजेपी को.

ये बातें तो खैर अपनी जगह ठीक हैं लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि दलित बीजेपी की तरफ बड़ी तादाद में कभी आकर्षित नहीं हुए. साल 2014 में केवल 20 फीसदी दलितों ने बीजेपी का समर्थन किया और दलितों में हमें वह चलन भी देखने को नहीं मिलता जो बाकी जातियों में नजर आता है कि ‘मैं जैसे जैसे धनी होता जाऊंगा वैसे वैसे मेरा झुकाव बीजेपी की तरफ होता जाएगा.

आपको क्यों लगता है कि जातिविहीन समाज बनाने का पुराना समाजवादी सपना अब अपनी चमक खो चुका है? क्या आपको लगता है कि निकट भविष्य में भारत में जातियां प्रासंगिक नहीं रह जायेंगी ?

जातियां एक हद तक अपने को बदल रही हैं. अपवित्रता का विचार कुछ जगहों पर अब भी जड़ जमाये हुए हैं लेकिन अब यह मनोभाव आपको बस-ट्रेन में बाकी लोगों के साथ सफर करने से रोक पाने में कामयाब नहीं. लेकिन जाति-बिरादरी के भीतर ही शादी-ब्याह के चलन के कारण जाति की भावना अब भी जारी है. ज्यादातर भारतीय अपनी जाति-बिरादरी में ही शादी करते हैं.  इस किस्म की शादियों के चलन से जातिगत-पहचान की मजबूती की झलक मिलती है. इस पहचान को खान-पान की आदतों और इतिहास की धारणा(मिसाल के लिए राजपूत जाति का अपने इतिहास को लेकर गौरवबोध) से और ज्यादा बल मिलता है.

एक तरह से देखें तो जाति अब एक दबाव-समूह का रुप ले चुकी है. कुछ जातियां आरक्षण को लेकर जिस तरह से एकजुट हैं उससे यह बात साफ जाहिर होती है. लेकिन एक और नजरिए से देखें तो नजर आएगा कि जातियां खुद में नन्हें राष्ट्र में तब्दील हो चुकी हैं और उनके भीतर नातेदारी और संस्कृति का मनोभाव बहुत गहरे जड़ जमा चुका है.

हिन्दू राष्ट्रवाद के हिमायती एकता की भावना पैदा करने की अपनी सारी कोशिशों के बावजूद जातिगत भेद की दीवारों को तोड़ पाने में कामयाब नहीं हुए हैं. शहरीकरण और औद्योगीकरण की प्रक्रिया के पूरा होने जाने के बाद एक ही जाति के धनी और गरीब व्यक्ति के बीच अगर कुछ एक-सा ना बचे तो जातियों के बीच वर्ग के ढर्रे पर सामाजिक-आर्थिक भेद जातिवाद का अंतिम तौर पर काट साबित होगा. हाल के गुजरात चुनाव में शहरी और ग्रामीण इलाकों में पटेल जाति के लोगों ने जिस तर्ज पर वोट डाला उससे यह रुझान स्पष्ट है.

आज की तारीख में बीजेपी समेत हर राजनीतिक दल में डा.आंबेडकर को अपनाने की होड़ लगी है. लेकिन इसके बावजूद दलितों की जीवन-दशा बेहतर क्यों नहीं हो रही?

बीजेपी ने आंबेडकर को तभी अपनाया जब उसके लिए दलित वोट बैंक की अनदेखी कर पाना मुश्किल हो गया. लेकिन बीजेपी ने देखा कि हिन्दुत्व के अजेंडे में आंबेडकर को सीधे-सीधे फिट नहीं किया जा सकता. आंबेडकर ने हिन्दू धर्म को छोड़ दिया था क्योंकि उनके अनुसार हिन्दू धर्म में जातिगत भेदभाव इतना ज्यादा है कि धर्म में रहते हुए बदलाव की कोई गुंजाइश ही नहीं है.

बीजेपी को यह भी जान पड़ा कि जो दलित उन्हें वोट दे रहे हैं उसकी वजह ये नहीं कि पार्टी आंबेडकर के बारे में बात कर रही है और अगर आंबेडकर का जिक्र बहुत ज्यादा किया जाय तो पार्टी के कुछ हिमायती दूर जा सकते हैं. यहां बीजेपी की नजर में राजपूत जाति के लोग थे जिनका सहारनपुर और अन्य जगहों पर दलितों के साथ झगड़ा हुआ था. ऐसे में बीजेपी ने दूसरा रास्ता अपनाया और दलित उद्यमियों की बात करनी शुरु की.

बाबा साहेब आंबेडकर को श्रद्धांजलि देते पीएम नरेंद्र मोदी

मनोरंजन ब्योपारी सरीखे दलित कार्यकर्ताओं ने ध्यान दिलाया है कि शिक्षा के उपयोग के सहारे जो दलित जीवन के ऊंचे मुकाम हासिल कर लेते हैं, जरुरी नहीं कि वे हमेशा उन लोगों की तरफदारी में खड़े दिखायी दें जो अभी वंचित की दशा में हैं. आंबेडकर ने शिक्षा की राह दिखायी थी लेकिन वह दलित-संघर्ष का समाधान नहीं है.

कुछ ऐसे हैं जो आते हैं, देखते हैं और जो दीन-दशा में हैं उनके लिए बहुत कुछ करते भी हैं. और हां, कुछ ऐसे भी हैं जो लौटकर इस तरफ नहीं आते. लेकिन बामसेफ ( ऑल इंडिया बैकवर्ड(एससी/एसटी/ओबीसी) एंड माइनॉरिटी कम्युनिटिज एम्पलॉइज फेडरेशन जिसकी स्थापना 1978 में हुई थी और जिसका मकसद कार्यस्थल पर होने वाले अन्याय और शोषण से लड़ने का था) इस एतबार से बहुत अहम साबित हुआ है , कांशीराम इस लिहाज से बहुत अहम साबित हुए हैं.

(प्रवीण चक्रवर्ती का लेख)

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