आने वाले कुछ दिनों में देश में इस बात पर बहस और चर्चा होगी कि भारत की लगभग एक चौथाई आबादी-दलितों और आदिवासियों- को मिलने वाले आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान होना चाहिए कि नहीं? देश में दलितों और आदिवासियों की आबादी करीब 30 करोड़ है.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की बेंच ने ऐसी मांग करने वाली एक याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है. यह याचिका समता आंदोलन समिति नाम के एक संगठन ने दाखिल की है. याचिका में मांग की गई है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के 'क्रीमी लेयर' को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए. याचिका में दूसरी मांग यह है कि सुप्रीम कोर्ट उन मानदंडों की पहचान करे, जिसके आधार पर इन समुदायों में क्रीमी लेयर की पहचान हो सके.
याचिका का क्या है तर्क?
याचिका के मुताबिक, अनुसूचित जाति और जनजाति का अपेक्षाकृत समृद्ध और पढ़ा लिखा तबका आरक्षण का लाभ हड़प रहा है. इससे जरूरतमंद लोगों को आरक्षण का फायदा नहीं मिल पा रहा है. इस वजह से इन समुदायों में कुछ अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं. गरीब को तो कोई फायदा ही नहीं हो रहा है. याचिकाकर्चाओं का कहना है कि ऐसे समृद्ध और पढ़े-लिखे लोगों को आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.
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दरअसल याचिकाकर्ताओं ने जो कहा है, वह बात समाज के एक हिस्से में काफी समय से चल रही है. इस तरह के तर्क बेहद आम हैं कि 'मैं आरक्षण के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन क्या किसी मंत्री के बेटे को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए.' इसी तरह का तर्क यह भी है कि 'गटर साफ करने वालों को आरक्षण से क्या मिला. सारा फायदा अफसरों के बच्चे हड़प रहे हैं.'
यह बात भी कही जाती है कि 'शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण तो दस साल के लिए था. इसे बार-बार बढ़ाया क्यों जा रहा है?' जब तक यह बहस बस, ट्रेन और पान दुकानों में थी, तब तक आप और हम इसकी अनदेखी कर सकते थे. लेकिन अब चूंकि यह बहस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है, तो इस बारे में बात करने से पहले कुछ तथ्यों को जुटाकर लिस्ट कर लेना आवश्यक है. इससे बहस का दायरा तय करने में आसानी होगी. यह आलेख ऐसे ही कुछ तथ्यों को लिस्ट करने की कोशिश है.
क्रीमी लेयर क्या है
क्रीमी लेयर का मतलब है कि किसी सामाजिक समूह का तरक्कीशुदा तबका. यानी आर्थिक आधार पर किसी की समाजिक कैटेगरी के निर्धारण का प्रावधान संविधान में नहीं है. अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण के सिलसिले में क्रीमी लेयर की कभी कोई बात ही नहीं हुई है.
क्रीमी लेयर की बात पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़े वर्गों यानी ओबीसी के आरक्षण के संदर्भ में की है. संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत जब मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की सिफारिश की और विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने इसे लागू करने की घोषणा कर दी. तब इसका विरोध सुप्रीम कोर्ट में किया गया. इसे देखते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद आई नरसिंह राव सरकार ने ओबीसी आरक्षण की जो नई अधिसूचना जारी की, उसमें आर्थिक रूप से संपन्न या उच्च पदों पर आसीन लोगों के परिवारों को ओबीसी आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया.
यह एक विवादास्पद फैसला था क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 340 'सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन' की बात तो करता है, लेकिन उसमें आर्थिक पिछड़ेपन का जिक्र नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने इंदिरा साहनी जजमेंट में ओबीसी में क्रीमी लेयर के प्रावधान पर अपनी मुहर लगा दी. उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण के दायरे से पिछड़ी जातियों के क्रीमी लेयर के लोग बाहर हैं.
मिसाल के तौर पर, आईएएस अफसर की बेटी ओबीसी आरक्षण नहीं ले सकती. सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला यह कहते हुए दिया कि आर्थिक हैसियत भी पिछड़ेपन का एक आधार है. लेकिन अभी तक क्रीमी लेयर यह सिर्फ ओबीसी पर ही लागू है.
अनुसूचित जाति और जनजाति की लिस्ट का आधार क्या है?
अनुसूचित जाति और जनजाति कौन हैं और इनकी पहचान कैसे की गई? दरअसल इसकी लिस्ट आजादी से पहले की बनी हुई है, जो कुछ बदलावों के साथ अब भी लागू है.
मिसाल के तौर पर, अनुसूचित जाति को पहले डिप्रेस्ड क्लासेस कहा गया और यह लिस्ट सबसे पहले 1931 की जनगणना के समय बनी. अनूसूचित जाति की पहचान बताते हुए तत्कालीन जनगणना कमिश्नर लिखते हैं- 'डिप्रेस्ड क्लासेस के लोग वे हैं, जिनके संपर्क में आने के बाद ऊंची जातियों के हिंदू अपना शुद्धिकरण करते हैं. ये वे जातियां हैं, जो हिंदू समाज में अपनी स्थिति की वजह से मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर सकतीं, ऊंची जातियों के कुएं का पानी नहीं ले सकतीं और स्कूल नहीं जा सकतीं.'
इन मानदंडों के हिसाब से बनी अनुसूचित जातियों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया (शिड्यूल्ड कास्ट) ऑर्डर 1936 में शामिल किया गया. आजादी के बाद 1950 में यही लिस्ट अनूसूचित जाति की लिस्ट बन गई. 1965 में बनी लोकुर कमीशन ने अनुसूचित जाति की परिभाषा बैकवर्ड कमीशन से ली, जिसके मुताबिक- 'अनुसूचित जाति में होने का आधार अस्पृश्यता है. इस लिस्ट में वे जातियां हैं, जिन्हें हिंदू अछूत मानते हैं.'
इन तमाम परिभाषाओं में गौर करने की बात है कि अनूसुचित जाति की सूचि में शामिल होने के सारे आधार सामाजिक हैं और आर्थिक आधार एक भी नहीं है. यानी आर्थिक आधार पर न तो कोई अनूसूचित जाति का बन सकता है और न ही इस आधार पर किसी को अनूसूचित जाति से निकाला जा सकता है. इसी तरह अनुसूचित जनजाति की परिभाषा में इन समुदायों का पहाड़ों में रहना, या मैदानों में बाकी समुदायों से अलग रहना, जैसे आधार तो हैं, लेकिन यहां भी कोई आर्थिक आधार नहीं है.
किस आधार पर दिया जा सकता है आरक्षण?
आरक्षण पर अब तक की सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी बेंच इंदिरा साहनी केस में बैठी थी. उस बेंच ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के नरसिंह राव सरकार के आदेश को खारिज कर दिया था. भारतीय संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है. इसके बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लाकर आरक्षण में आर्थिक आधार को शामिल कर दिया है.
लेकिन गौर करने की बात है कि आर्थिक आधार ओबीसी आरक्षण में लगा है, अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में नहीं. ओबीसी आरक्षण चूंकि पिछड़ेपन के आधार पर है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने उसमें क्रीमी लेयर लाने की गुंजाइश निकाल ली. लेकिन यही बात अनुसूचित जाति के मामले में नहीं कही जा सकती, क्योंकि ये आरक्षण सामाजिक कारणों से दिया जा रहा है.
एक बात और गौर करने की है. किसी व्यक्ति की सामाजिक हैसियत इस बात से तय नहीं होती कि उसके पास कितने पैसे हैं. एक समृद्ध दलित के साथ भी सामाजिक भेदभाव हो सकता है.
आरक्षण है क्यों, अगर उससे गरीबों का भला नहीं हो सकता?
आरक्षण को लेकर यह गलत धारणा बहुत आम है कि आरक्षण से गरीबों का भला होना चाहिए. भारत में गरीबी उन्मूलन और गरीबों की भलाई के लिए सैकड़ों सरकारी कार्यक्रम हैं. नरेगा से लेकर आवास योजनाएं और स्वरोजगार शुरू करने के लिए बैंक लोन देने तक के कार्यक्रम सरकार चलाती है.
कई लोग आरक्षण को भी एक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम मान लेते हैं, जो कि वह है नहीं. आरक्षण को संविधान में इसलिए नहीं लाया गया है कि इससे एससी, एसटी, ओबीसी की गरीबी दूर की जाएगी. संविधान में आरक्षण का प्रावधान इसलिए है ताकि समाज के पीछे रहे गए समुदायों को राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाया जाए. राजकाज और देश के विकास के कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित की जा सके.
ऐतिहासिक कारणों से ये समुदाय पीछे रह गए हैं. अभी भी सत्ता के विभिन्न केंद्रों और खासकर उनके उच्च पदों पर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोग बेहद कम हैं, जबकि उनकी आबादी 85% तक बताई जाती है. उनकी इस अनुपस्थिति को हम उच्च न्यायपालिका, टॉप ब्यूरोक्रेसी, कॉरपोरेट बोर्ड रूम, मनोरंजन और मीडिया उद्योग, धार्मिक केंद्रों आदि में सहजता से देख सकते हैं.
इस वजह से इन समुदायों के अंदर, राष्ट्र निर्माण से न जुड़े होने की भावना आ सकती है. इसी समस्या के समाधान के लिए आरक्षण का प्रावधान है. इससे 85% आबादी का भला कतई नहीं होना है. चंद नौकरियों से इतनी बड़ी आबादी का भला कैसे हो सकता है?
देश में दो करोड़ से भी कम सरकारी-अर्धसरकारी नौकरियों में कुछ लोगों के आ जाने से इतनी बड़ी आबादी का कोई व्यापक हित नहीं होना है. लेकिन इससे उनके अंदर यह भावना जरूर आएगी कि देश को चलाने में उनकी भी भूमिका है. उनके सामने भी कुछ अवसर खुले हैं.
67 साल के आरक्षण के बावजूद सरकारी नौकरियों में पर्याप्त संख्या में एससी-एसटी के लोग नहीं है. अगर क्रीमी लेयर के नाम पर उनके आने के रास्ते और तंग कर दिए जाएंगे तो ढेर सारे और पद खाली रह जाएंगे. यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा.
(लेखक दलित चिंतक और पत्रकार हैं)
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