‘मैं मानता हूं कि खाकी यानि पुलिस की नौकरी के लिए आज देश में लाखों युवा लाइन लगाए खड़े रहते हैं. भले ही आज वो इज्जत हासिल न हो, जो हमारे जमाने में वर्दी की नौकरी में मिला करती थी. मेरे वक्त की पुलिस में थानेदार का मतलब ‘धरती का देवता’ से कम नहीं होता था. थानेदार का लिखा-पढ़ा काटने की हिम्मत आईजी/डीआईजी में नहीं होती थी. आज समाज की नजरों में थानेदार की हालत कपड़े के ‘थान’ सी हो चली है. लंदन में मेरी पोस्टिंग के वास्ते विशेष पद बनाया गया था. इसके बाद भी मगर मुझे लंदन की जीवन-शैली रास नहीं आई. डेपूटेशन का नंबर आया. दिल्ली पुलिस के साथियों की लाख मान-मनुहार के बाद भी मैं डेपूटेशन पर सीबीआई में चला गया. सीबीआई में मन नहीं लगा तो तीन साल बाद वापिस पुलिस में पहुंचने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया. उस वक्त सीबीआई के साथी और कुछ अफसरानों ने ताने मारे और बोले, पुलिस में नोट कमाने जा रहे हो? मैंने उन्हें जबाब दिया कि नोट तो CBI से ज्यादा कहीं नहीं है. नोट कमाया होता तो भला तीन साल तक मुझे सीबीआई ने अपनी पीठ पर कैसे और क्यों ढोया होता? मैं कौन हूं? पुलिस और सीबीआई भला दोनो से एक साथ मेरा क्या वास्ता रहा था? जिद करके क्यों मैं गया पुलिस छोड़कर सीबीआई में? क्यों गया भारत से नौकरी करने लंदन? पाठकों के जेहन में उठ रहे. इन्हीं तमाम सवालों के जबाब पढ़ने को मिलेंगे ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस किश्त में आगे...
पिता को पढ़ाकू पुत्र चाहिए था और मैं...
इस वक्त मेरी उम्र 73-74 साल के बीच में है. पूर्वज सियालकोट (पाकिस्तान) के रहने वाले थे. भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान मेरे खानदानी हिंदुस्तान में आकर बस गए. मेरा जन्म दसुआ (पंजाब) में हुआ. पहले मेरा परिवार यूपी के सिकंदरा राऊ में आकर बस गया. पिता दीनानाथ चाहते थे कि उनका बेटा (मैं) पढ़ाकू निकले. मैंने मगर बीएससी की पढ़ाई बीच में छोड़ दी. उसके बाद साल 1965 में पिता से चोरी-छिपे ही दिल्ली पुलिस में डायरेक्ट थानेदार (सब-इंस्पेक्टर) बन गया. मुझे विश्वास था कि भले ही मैं इंसान ईमानदार न होऊं लेकिन पुलिस अफसर के तौर पर मैं ईमानदार बनकर दिखाऊंगा. बाद में हुआ भी यही.
सीधे सवाल का दो-टूक जवाब कमाल कर गया
दिल्ली पुलिस के इंटरव्यू में मुझसे पूछा गया कि अगर मुझे नेवी में कमीशन मिल गया तब मैं नेवी या पुलिस में से किसे चुनूंगा? मैंने इंटरव्यू कमेटी को सीधा-सीधा दो-टूक जबाब दिया, नेवी का कमीशन. इंटरव्यू लेने वाली कमेटी के सदस्यों ने मेरी उस बेबाकी को सकारात्मक रूप में लिया. मैं दिल्ली पुलिस में दारोगा बना दिया गया. यह बात है साल 1965-66 के आसपास की. दिल्ली पुलिस में मैने करीब तीन दशक तक अफसरी (दारोगा से सहायक पुलिस आयुक्त तक) की पूरी नौकरी की. मगर खुद के और अपने बदन पर मौजूद दिल्ली पुलिस की खाकी-वर्दी के ऊपर कोई दाग नहीं लगने दिया. मैं अपने मुंह मियाँ मिट्ठू नहीं बनना चाहता. भले ही मैं अब दिल्ली पुलिस में न होऊं. दिल्ली पुलिस में मेरी मेहनत और ईमानदारी के तमाम गवाह आज भी खोजने पर नसीब हो जायेंगे.
दिल्ली पुलिस की नौकरी ‘एक्सीडेंटल’ थी!
वर्दी पहनने का शौक मुझे बचपन से था. जबकि पिता जी को वर्दी से सख्त नफरत थी. वे पुलिस की नौकरी से खराब दूसरी और कोई सरकारी नौकरी नहीं मानते थे. साल 1963 में मैं रिपब्लिक-डे परेड में नेशनल कैडिट कोर (NCC) में यूपी सीनियर डिवीजन सलेक्ट हुआ था. बाकायदा परेड में हिस्सा भी लिया. कक्षा दस करते ही पायलट अफसर के लिए आवेदन किया. चुने गये 5 प्रतिभागियों में एक मैं भी था. चुनाव के आखिरी पड़ाव पर पहुंचने पर मैं पिछड़ गया. उसके बाद नेवी (जल-सेना) में शार्ट सर्विस कमीशन पाने की कोशिश की. उसी दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया. लिहाजा वो सलेक्शन प्रक्रिया भी अधर में लटक कर सरकारी फाइलों में गुम हो गई.
जब मैं दिल्ली में दारोगा बना, उस जमाने में 80 फीसदी भर्ती ईमानदारी से और 20 फीसदी सोर्स-सिफारिश से हुआ करती होगी. यह मेरा अपना अनुमान है. साल 1967 में ट्रेनिंग के बाद मुझे पहली पोस्टिंग मिली, जीबी रोड जैसे देह-व्यापार के लिए दुनिया भर में बदनाम रेड-लाइट एरिया के थाना कमला मार्केट में. कुल जमा अगर यह कहूं कि दिल्ली पुलिस में मेरा भर्ती होना एक्सीडेंटल था. तो भी झूठ नहीं होगा.
लंदन के लालच में जान के ‘लाले’ पड़ गए
दिल्ली पुलिस की नौकरी करते वक्त अधिकांश कर्मचारियों की हसरत होती है कि वो दौरान-ए-नौकरी एक मर्तबा कम से कम विदेश में ड्यूटी जरूर कर आए. मैं भी कौन-सा इस चाहत से अछूता था. 1980 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से विदेश मंत्रालय में डेपूटेशन ले लिया. दिल्ली पुलिस की तरफ से विदेश मंत्रालय के कंधों पर बैठकर चीन में पोस्टिंग कराने के तमाम इंतजामात कर लिए. उसी दौरान पता चला कि लंदन में कुछ दिन बाद जगह खाली होने वाली है. लंदन में उन्हीं दिनों आर्थिक संकट गहरा गया. जिसके चलते मेरी वहां पोस्टिंग अधर में लटक गई. फिर मुझे लंदन के बजाए कंपाला भेज दिया गया. रूस जाने का प्रस्ताव विदेश मंत्रालय ने दिया, जो मैने अस्वीकार कर दिया. मैं अमेरिका या लंदन ही जाने का तलबगार था.
फरवरी 1982 में मेरे लिए विशेषकर लंदन में एक खास पोस्ट क्रिएट कराई गई. पद का नाम था ‘अटेची’. यह अलग बात है कि लंदन की पोस्टिंग के दौरान तीन महीने में ही मेरी जान के लाले पड़ गए. मैं वहां डिप्रेशन का शिकार हो गया. कुछ आर्थिक संकट, कुछ वहां का बेहद ठंडा वातावरण और एकदम बदला-बदला सा माहौल. जैसे-तैसे मैने लंदन की उस 'काला-पानी' के जैसे वाली पोस्टिंग के चार साल (1985 तक) गिरते-पड़ते काटे.
तब सीबीआई ‘सरकारी-तोता’ नहीं थी
भले ही आज सीबीआई ‘सरकारी-तोता’ में तब्दील हो चुकी हो. सीबीआई की ‘साहिबी’ (सीबीआई डायरेक्टर) की खातिर पढ़े-लिखे काबिल लोग सिर-फुटव्व्ल पर उतारू हों. दिन-रात अपनी कुर्सी बचाने की खातिर. अधिकांश अफसरान दूसरे की कुर्सी खींचने में खुल्लमखुल्ला जुटे हों. जब मैं सीबीआई में गया तो उसका वाकई अपने आप में एक अलग ही रुतबा था. बेवजह का रोना-धोना तो सीबीआई में अब शुरू हुआ है. बहरहाल साल 1972 में मैं दिल्ली पुलिस में एक प्रमोशन पाकर थानेदार से इंस्पेक्टर बन गया. उन्हीं दिनों मुझे सीबीआई का डेपूटेशन मिल गया. दिल्ली पुलिस के साथियों ने लाख समझाया कि सीबीआई मेरे लायक संस्था नहीं है. मुझे मगर जांच-पड़ताल का शौक था. सो सुनी सबकी और करी मन की.
आईपीएस एसपी से ज्यादा तनख्वाह मातहत की
लिहाजा दिल्ली में जब तुगलक रोड थाने में तैनात था, तभी सीबीआई में चला गया. उन्हीं दिनों मैं हैदराबाद से ‘डिटेक्टिव’ की ट्रेनिंग से वापस लौटा था. हैदराबाद से लौटते ही मुझे दिल्ली पुलिस की प्रधानमंत्री सुरक्षा विंग में ‘ठूंस’ दिया गया. जबकि PM SECURITY में नौकरी करने का मेरा जरा भी मन नहीं था. PM SECURITY में पोस्टिंग मिलते ही सोच लिया था कि क्यों न अब कुछ दिन सीबीआई की नौकरी करके एक बेहतर ‘पड़ताली’ बनने की ही कोशिश कर ली जाए.
यहां उल्लेखनीय है कि सीबीआई में मैं दिल्ली पुलिस से एक रैंक ऊपर की पोस्ट पर पहुंचा था. उस जमाने में सीबीआई में तैनात पुलिसअधीक्षक स्तर के आईपीएस की सैलरी 450 रुपए हुआ करती थी. जबकि मैंने उससे कही छोटी पोस्ट पर भी आईपीएस से ज्यादा यानि करीब 550 रुपए महीना की तन्ख्वाह पर सीबीआई ज्वॉइन की. 1977 तक मैं सीबीआई में तैनात रहा. सीबीआई में मेरी जिम्मेदारी थी, स्पेशल पुलिस स्टेविलिश्मेंट जनरल ऑफेंसिस विंग दिल्ली ब्रांच में सेंट्रल गवर्मेंट के अफसरों के खिलाफ आने वाली शिकायतों की पड़ताल करना.
सीबीआई वालों ने रोका तो उन्हें सुना डाली!
इसमें दो राय नहीं कि खाकी वर्दी की नौकरी में अगर कुछ सीखना है और एक काबिल ‘पड़ताली’ बनने की ललक हो तो उसके लिए हिंदुस्तान में सीबीआई से बेहतर दूसरी कोई जांच एजेंसी नहीं है. सीबीआई में रहते हुए ही मैं दिल्ली पुलिस में भी प्रमोट हो चुका था. सीबीआई के वरिष्ठ अफसरों और सहयोगी-साथियों को मेरे दिल्ली पुलिस में जाने की सुगबुगाहट लगी. वे सब सीबीआई मे ही मुझे रोकने की सलाह-मश्विरा देने लगे. कुछ ने तो हंसी-मजाक में ही सही मगर ताने-उलाहने भी दिए कि ‘नोट कमाने दिल्ली पुलिस में जा रहे हो.’ उन सबको मैंने एक ही जबाब देकर निरुत्तर कर दिया, ‘गुरु नोट तो सीबीआई में भी सबसे ज्यादा है!
नोट ही अगर कमाया होता तो मुझ जैसे दो-टूक कहने-सुनने वाले अफसर को सीबीआई तीन साल तक अपनी पीठ पर भला क्यों और कैसे ढोती?’ बहरहाल, इन्हीं तमाम उठा-पटकों के बीच साल 1977 में सीबीआई में नौकरी करने का शौक पूरा करके वापिस अपने मूल महकमे यानि दिल्ली पुलिस में लौट आया. उस वक्त दिल्ली पुलिस में कमिश्नरी सिस्टम लागू हो चुका था. पहले पुलिस कमिश्नर जयेंद्र नाथ चतुर्वेदी (जेएन चतुर्वेदी) थे.
पुलिस से पीछा छुड़ाने में एसीपी को पसीना आ गया
सुना था कि सरकारी नौकरी में हर अफसर अपने सहयोगी की मदद करता है. पुलिस के आगे भूत भागते हैं. मेरा अनुभव इसके एक उलट रहा. मैंने दिल्ली पुलिस की नौकरी से पीछा छुड़ाने के लिए साल 1998 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के लिए आवेदन कर दिया. मैं चाहता था कि पुलिस की नौकरी से निजात पाकर बाल-बच्चों के साथ बाकी बची जिंदगी सुकून से गुजार लूंगा लेकिन हुआ मेरी सोच के एकदम उलट. करीब दो साल तक मेरे वीआरएस की फाइल दिल्ली पुलिस मुख्यालय से लेकर न मालूम कहां-कहां भटकती रही.
अगर यह कहूं कि जिस पुलिस महकमे की मैंने तकरीबन 34 साल ईमानदारी से सेवा की. उसी दिल्ली पुलिस से निजात पाने के लिए मुझसे पापड़ बिलवा लिए गए. तो शायद गलत नहीं होगा. साल 2000 में जब मैं केंद्रीय गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की सुरक्षा में तैनात था. तब कहीं जाकर मुझे ब-मशक्कत और लम्हा-लम्हा पसीना-पसीना होते-करते दिल्ली पुलिस ने निजात मिल सकी.
हस्ती है मेरी कि, मिटाए मिटती नहीं
इस वक्त मेरी उम्र करीब 73-74 साल के आसपास है. दिल्ली पुलिस की नौकरी से निजात मिले हुए भी तकरीबन 18-19 साल हो चुके हैं. दिल्ली के कमला मार्केट, पटेल नगर, तुगलक रोड, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन थाना या फिर एसीपी डिफेंस कालोनी, वसंत विहार... आदि-आदि दफ्तरों में आज भी मेरे नाम की तख्तियां कहीं न कहीं आपको जरूर लटकी हुई देखने को मिल जाएंगीं. दिल्ली पुलिस में किसी पुराने मुलाजिम से मेरे बारे में पूछोगे तो सब कुछ गा-सुना देगा. नए खून से मेरे बारे में बात करोगे तो संभव है कि जबाब में सुनने को मिले ‘होते होंगे कोई. हम तो नए हैं. हम नहीं जानते ऐसे किसी नाम वाले अफसर को.’
अब मैं बताता हूं अपना नाम... मेरा नाम है आरसी भाटिया. मतलब रमेश चंद्र भाटिया. वही रमेश चंद्र भाटिया जिसकी दादी लाहौर (पाकिस्तान) के मशहूर जग्गा पहलवान (सियालकोट के मशहूर जग्गा हलवाई) की बहन हुआ करती थीं. मैं ही हूं दिल्ली पुलिस का वो रिटायर्ड असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर रमेश चंद्र भाटिया, जिसकी दादी अपने बेटे (यानि मेरे पिता दीनानाथ) की तार-विभाग में सरकारी नौकरी लगने पर बेइंतिहाई खुशी में अपनी जवानी में कभी जी-भर के नाची थीं.
(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)
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