केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बीते 8 जून को जम्मू-कश्मीर में 9 नई बटालियन बनाने का ऐलान किया था. इन 9 बटालियनों में 'दो बॉर्डर बटालियन' होंगी, जो सीमावर्ती इलाकों में काम करेंगी. इसके अलावा, 5 इंडिया रिजर्व बटालियन (आईआरबी) और 2 महिला बटालियन (जम्मू-कश्मीर डिविजन में तैनाती के लिए) बनाई जाएंगी. दोनों महिला बटालियनों को क्रमशः पीर पंजाल पर्वतमाला के उत्तर और दक्षिण में तैनात किया जाएगा. साथ ही, 5 रिजर्व बटालियनों में 60 फीसदी कर्मी सीमावर्ती इलाकों से होंगे.
जम्मू-कश्मीर दौरे में राजनाथ सिंह ने किए थे कई ऐलान
राजनाथ सिंह ने अपने जम्मू-कश्मीर दौरे के दौरान जो बाकी ऐलान किए, उसमें दुश्मन की गोलाबारी से सुरक्षा के लिए 450 करोड़ रुपये की लागत से 14,460 बंकरों का निर्माण, गोलाबारी के पीड़ित परिवारों के लिए अनुग्रह राशि 3 लाख से बढ़ाकर 5 लाख रुपये किया जाना, तीन साल के फिक्स्ड डिपॉजिट के अनुबंध को हटाना शामिल हैं.
इसके अलावा, कश्मीर प्रवासियों के लिए नकदी मदद में 30 फीसदी की बढ़ोतरी की जाएगी, जिससे 22,000 परिवारों को फायदा होगा. अब हर परिवार को 13,000 रुपये मिलेंगे, जबकि पहले 10,000 रुपये मिलते थे. साथ ही, पाकिस्तानी शरणार्थियों के हर परिवार को 5.50 लाख का मुआवजा देने का ऐलान किया गया है जिससे 5,764 शरणार्थियों को फायदा होगा. जहां तक बंकरों के निर्माण का सवाल है, तो 1,431 साझा और 13,029 निजी बंकर बनाए जाने की बात है.
एक साथ 9 बटालियन तैयार किया जाना जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष लाभ का मामला है, लेकिन हम किस मात्रा में आत्मसमर्पण किए आतंकवादियों का सहयोग लेना चाह रहे हैं? राजनाथ सिंह ने 2014 में मणिपुर और असम में सरेंडर कर चुके आतंकवादियों से बीएसएफ और एसएसबी में एक-एक सहायक बटालियन बनाने का ऐलान किया था, लेकिन यह आइडिया कारगर नहीं रहा.
नगालैंड में नगा प्रतिनिधियों के एक गुट को बीएसएफ की अलग यूनिट के तौर पर शामिल कर लिया गया, लेकिन ऑपरेशंस में इनकी सक्रियता नहीं के बराबर रही. हालांकि, उनके ठिकानों वाले इलाके में हिंसा की घटनाएं कम हो गई थीं. सरेंडर कर चुके आतंकवादियों और समर्थकों को नगालैंड और मणिपुर में नौकरी तो मिली, लेकिन इससे राज्य के लोगों की नाराजगी और आकांक्षाओं पर कोई असर नहीं हुआ, जो राज्य में आतंकवाद बढ़ने की मुख्य वजह हैं.
जम्मू-कश्मीर में 1990 के शुरुआती दशक में इखवां अल-मुस्लिमीन बनाए जाने का मामला सफल रहा. इसे बाद में जम्मू-कश्मीर पुलिस के स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप (एसओजी) में बदल दिया गया. फिलहाल, प्रादेशिक सेना के तहत 'होम एंड हर्थ' बटालियन है, लेकिन उसके कर्मियों का इस्तेमाल संयुक्त अभियानों में खुफिया सपोर्ट के लिए किया जाता है.
उनका उपयोग यूनिट/सब-यूनिट स्तर पर अभियानों के लिए नहीं होता है. बहरहाल, इन तमाम कवायदों के बावजूद पिछले कुछ साल में जम्मू-कश्मीर में हालात बदतर हुए हैं. इससे साबित होता है कि सिर्फ आतंकवादियों को 'साझेदार' बनाना समस्या का समाधान नहीं है. यह माना जा सकता है कि ये 9 अतिरिक्त बटालियन (बशर्ते वे सीआरपीएफ बटालियनों के बदले रीप्लेसमेंट नहीं हों) हिंसा के स्तर को कम करने के लिए मौजूदा सुरक्षा ढांचे को और बढ़ाएंगे, लेकिन इससे और कुछ हासिल नहीं होगा.
9 बटालियन बनाने का फैसला चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया
जाहिर तौर पर 9 बटालियन तैयार करना चुनावों को ध्यान में रखकर लिया जाने वाला फैसला है. हालांकि, पिछले चार साल में उनके लिए गुंजाइश बनाना शायद बेहतर संकेत होता. यह फैसला अन्य जगहों पर भी नाराजगी बढ़ा सकता है. लद्दाख के लोग वर्षों से यह कहते रहे हैं कि उनकी उपेक्षा इसलिए की गई, क्योंकि उन्होंने बंदूक नहीं उठाया.
नगा समुदाय सेना में अतिरिक्त नगा बटालियन बनाए जाने की मांग कर रहा है. मणिपुर के लोगों का कहना है कि जब सेना में असम रेजिमेंट और नगा रेजिमेंट हो सकते हैं, तो मणिपुर रेजिमेंट क्यों नहीं हो सकता. संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि सेना को कैश के भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है (हालांकि, आरएम की तरफ से इसे खारिज किया गया है), ऐसे में यह जोक भी चल रहा है कि फंड के लिहाज से सेना का गृह मंत्रालय के दायरे में होना बेहतर हो सकता है.
अलग-अलग इलाकों में नए बटालियनों की तैनाती तय करते वक्त हाल में सुनियोजित तरीके से की गई हत्याओं और सिर काटने की घटनाओं, चरमपंथी गतिविधियों के बढ़ते मामले व इसके परिणामस्वरूप उनके परिवार पर बढ़ते खतरे को ध्यान में रखने की जरूरत है. 1990 के शुरुआती दशक में असम राइफल्स की दो बटालियन (7 और 26 असम राइफल्स) ने काफी शानदार काम किया और दोनों को सीओएएस यूनिट प्रशस्ति पत्र मिला. इसकी एक वजह यह थी कि उनका परिवार अपने घर में सुरक्षित था.
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार युद्धविराम की अवधि रमजान से आगे भी बढ़ा सकती है. हिंसा के मौजूदा स्तर के जारी रहने या इसमें और बढ़ोतरी होने की सूरत में भी ऐसा किया जा सकता है. हालांकि, युद्धविराम के जरिये आतंकवादियों को फिर से संगठित होने का मौका मिल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति ममनून हुसैन ने भले ही एक-दूसरे से हाथ मिलाया हो, लेकिन पाकिस्तान में पूरी ताकत सेना के पास है और इसमें बदलाव की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पास जम्मू-कश्मीर में पर्याप्त संख्या में स्थानीय आतंकवादी हैं. इसके अलावा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन भी भारत पर निशाना साधने के लिए मिलकर काम करते हैं.
पत्थरबाजी को लेकर सख्ती नहीं दिखा रहे प्रधानमंत्री, गृह मंत्री
केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने हाल में कहा था कि वैसा कोई भी फैसला नहीं लिया जाएगा, जो जम्मू-कश्मीर के अभियान में सुरक्षा बलों का हौसला कमजोर कर सकता है. हालांकि, उसके बाद राजनाथ सिंह कहते हैं कि 'सुरक्षाकर्मी के खिलाफ एफआईआर मामले में जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ बातचीत हो रही है'. यह किस तरह का जोक है? जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की दिल्ली में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के साथ विस्तार से बातचीत हुई और गृह मंत्री की तरफ से ऐलान किए गए पैकेज पर भी जरूर चर्चा हुई होगी, लेकिन जब एफआईआर का मामला आता है, तो केस पर विचार या बातचीत होने का हवाला दिया जाता है. क्या दुनिया में ऐसा कोई अन्य देश है, जहां पुलिस द्वारा सेना के जवान के खिलाफ उस काम के लिए एफआईआर दर्ज की जाती है, जो पुलिस अपनी जिम्मेदारी के तहत करने में नाकाम रही?
समय-समय पर पत्थरबाजों की रिहाई के लिए सीएम महबूबा मुफ्ती को हरी झंडी देने में केंद्र सरकार और गृह मंत्री की अहम भूमिका रही है. पत्थर फेंकने की घटनाओं के बावजूद इनकी रिहाई की जाती है, जिससे हिंसा का दुश्चक्र जारी रहता है.
राजनाथ सिंह के लिए यह काफी निराशाजनक है कि उन्होंने उन पत्थरबाजों को न तो गिरफ्तार करने की कोशिश की और न ही कोई अन्य कार्रवाई की, जिन्होंने 4 अप्रैल 2018 को श्रीनगर के लाल चौक पर सीआरपीएफ के दो कर्मियों की पत्थर मारकर हत्या कर दी थी. इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि सीधे उनके कमांड के तहत आने वाले सुरक्षाकर्मी की हत्या को मुलायमियत के साथ स्वीकार कर लिया जाए. कोई भी अन्य देश इसे स्वीकार नहीं करेगा. 5 सी प्रोग्राम (कंपैशन, कम्युनिकेशन, को-एग्जिस्टेंस, कॉन्फ्रेंस बिल्डिंग मेजर और कंसिस्टेंसी) को एक शब्द में बयां किया जा सकता है-तुष्टिकरण. इसमें चाणक्य के 'साम, दाम दंड भेद' वाले ज्ञान को भी पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है.
छद्म युद्ध को दुश्मन के क्षेत्र में ले जाने में नाकाम रही है सरकार
इससे पूरे घटनाक्रम का सबसे विंडबनापूर्ण पहलू एक बार फिर से हुर्रियत को काफी अहमियत दिया जाना है. सबसे पहले उसे पाकिस्तान उच्चायोग जाने को लेकर पूरी तरह से आजादी दी गई. इसके बाद हुर्रियत के पाकिस्तान से तार जुड़े होने और आतंकवाद के लिए फंडिंग के सबूत मिलने पर उसके खिलाफ आधी-अधूरी कार्रवाई की गई. बाद में फिर से युवाओं को चरमपंथी की तरफ भटकाने के मामले में उस पर शिकंजा नहीं कसा गया.
खुफिया एजेंसियों की सलाह पर ऐसा किया गया. वे (हुर्रियत) 'अप्रासंगिक' हो चुके हैं और फिर से संवाद की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि, हुर्रियत दशकों से आईएसआई के लिए काम कर रहा है और उसे जम्मू-कश्मीर से बहिष्कृत कर उसके प्रतिनिधियों पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है. इसके अलावा, जब रॉ का प्रमुख किताब लिखने के लिए भारत के टुकड़े करने की शपथ लेने वाले आईएसआई के प्रमुख के साथ मिल जाता है, तो ऐसी स्थिति में खुफिया एजेंसियों पर भी भरोसा करना मुश्किल हो सकता है.
कुल मिलाकर कहा जाए, तो राजनाथ सिंह के इस ऐलान से चुनावों में फायदा हो सकता है, लेकिन जब तक प्रशासन में सुधार नहीं किया जाता और कट्टरपंथ-चरमपंथ की चुनौती से नहीं निपटा जाता, तब तक इस ऐलान से ज्यादा कुछ हासिल करने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जम्मू-कश्मीर में हिंसा में कमी और बढ़ोतरी का सिलसिला जारी रहेगा.
हिंसा बढ़ने की स्थिति में सुरक्षा बलों के हताहत होने के मामले भी बढ़ेंगे और जनता को और मुश्किल होगी. जहां तक छद्म युद्ध को दुश्मन के क्षेत्र में ले जाने का सवाल है, तो मौजूदा सरकार ने पिछले चार साल में इस सिलसिले में किसी तरह का संकल्प नहीं दिखाया है.
(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हैं)
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