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डरिए...चौंकिए...हैरान होइए...आप राजस्थान में हैं

'पधारो म्हारे देस' की जगह अब नई टैगलाइन, 'जाने कब क्या दिख जाए' तय की गई है.

Updated On: Feb 22, 2017 08:42 AM IST

Sandipan Sharma Sandipan Sharma

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डरिए...चौंकिए...हैरान होइए...आप राजस्थान में हैं

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि कुछ महीनों पहले राजस्थान ने अपने पर्यटन विभाग की दिल को छू जाने वाली टैगलाइन बदल दी है. पहले की टैगलाइन, 'पधारो म्हारे देस' की जगह अब नई टैगलाइन, 'जाने कब क्या दिख जाए' तय की गई है.

जब इसे बदला गया तो सवाल उठाने वालों ने मजाक उड़ाया कि पहले राजस्थान अपने मेहमानों का स्वागत करने वाला राज्य था. और अब यहां भूत प्रेत और चौंकाने वाली चीजें देखने को मिलेंगी.मजे की बात ये कि ये मजाक सच साबित होता दिख रहा है.

राजस्थान में अब चौंकाने और डराने वाले किस्से

पिछले कुछ महीनों में राजस्थान में जो घटनाएं हुई हैं उनसे राजस्थान के लोगों की सोच के दरवाजे बंद होते दिख रहे हैं. जो राजस्थान पहले अपने शातिर कारोबारी दिमाग और बहादुरी के लिए जाना जाता था, वही राजस्थान अब चौंकाने वाले और डराने वाले बर्ताव के लिए जाना जाने लगा है.

पहले फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ हाथा-पाई और मार-पीट हुई. इसकी वजह बताई गई है कि वो आठ सौ साल पहले मलिक मोहम्मद जायसी की लिखी एक कहानी में छेड़खानी करके अपनी फिल्म में सपने का एक सीन डाल रहे थे.

विधायक जी चाहते हैं इतिहास में बदलाव

फिर एक ख्वाब को हकीकत में बदलने की कोशिश हुई. जब सत्ताधारी बीजेपी के एक विधायक ने राजस्थान से इतिहास को फिर से लिखने को कहा. ये विधायक चाहते हैं कि इतिहास में बदलाव करके महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में विजेता बताया जाए और अब वो चाहते हैं कि फेमिनिस्ट निवेदिता मेनन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चले. क्योंकि उन्हें लगता है कि निवेदिता मेनन ने कश्मीर और सैनिकों के बारे में देशद्रोही बयान दिए.

इस बयान को सिर्फ एक इंसान से सुना गया हैं. मगर राजस्थान के लोग चाहते हैं कि निवेदिता मेनन के साथ ही जोधपुर यूनिवर्सिटी के एक टीचर पर भी कार्रवाई हो. उसे नौकरी से निकाल दिया जाए क्योंकि उसने निवेदिता मेनन को ऐसा बयान देने का मौका मुहैया कराया.

क्या हालात इतने हास्यास्पद हो सकते हैं? या फिर कुछ और होना बाकी है? एक फिल्म की शूटिंग के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन, मशहूर निर्देशक पर हमला, इतिहास बदलकर महाराणा प्रताप को एक हारे हुए युद्ध का विजेता घोषित करने की कोशिश? शब्दों को तोड़-मरोड़कर एक टीचर और मशहूर हस्ती के खिलाफ मुहिम चलाना. ये सब क्या है?

किस्सों के मुताबिक है राजस्थान पर्यटन विभाग की नई टैगलाइन

ये दोनों ही घटनाएं हिंसक विरोध से नहीं जुड़ी होतीं, तो मजाक का विषय नही बनतीं. ये राजस्थान की नई टैगलाइन-जाने कब क्या दिख जाए, के हिसाब से एकदम सटीक हैं.

संजय लीला भंसाली पर हमला करने वालों को वो चीज दिख गई, जो कहीं और किसी को नहीं दिखी. पहले तो विरोध करने वालों ने जायसी की कहानी को हकीकत मान लिया. जिसमें जायसी ने चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मावती के लिए अलाउद्दीन खिलजी की दिलचस्पी को बयां किया है. फिर वो विरोध के नाम पर हिंसा पर उतारू हो गए.

वो भी ख्वाब के एक ऐसे सीन को लेकर, जिसके बारे में खुद निर्देशक ने कहा कि वो तो फिल्म का हिस्सा ही नहीं और अगर ये ड्रीम सीन फिल्म में है भी तो क्या बुरा है. मोहब्बत करने वाले कई बार ऐसे ख्वाब देखते हैं. उन्हें फिल्माया भी गया है. उदाहरण शाहरुख खान की फिल्म डर में.

महाराणा प्रताप के मामले में तो इतिहास बदलने की बेहद ही बेशर्म कोशिश हुई. राणा प्रताप जिन्होंने उस वक्त मुगल साम्राज्य के खिलाफ जंग छेड़ी जब उनके आस-पास के तमाम राजपूत घराने मुगल बादशाह के सजदे कर रहे थे, उन्हें सिर्फ एक युद्ध से जोड़कर उनकी पूरी जिंदगी की लड़ाई को मिट्टी में मिलाने की कोशिश हुई. क्या राणा प्रताप सिर्फ हल्दीघाटी के युद्ध के लिए जाने जाते हैं?

'भारत का कश्मीर पर अवैध कब्जा'

निवेदिता मेनन का मामला तो और भी हास्यास्पद है. एक ऐसे बयान के लिए मेनन का विरोध हो रहा है, जो बस किसी की कल्पना भर है. ठीक उसी तरह जैसे पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी का ड्रीम सीन या फिर हल्दीघाटी की जंग में राणा प्रताप की जीत का ख्वाब. जोधपुर पुलिस ने निवेदिता मेनन के खिलाफ केस दर्ज किया है. आरोप है कि उन्होंने कहा कि-भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा जमा रखा है और सैनिक, सेना में अपनी रोजी कमाने के लिए जाते हैं.

निवेदिता मेनन कह चुकी हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा. दो स्थानीय अखबारों ने उनके हवाले से जो बयान लिखा है वो उन्होंने नहीं दिया. मेनन ने कहा कि, 'मैंने उस कार्यक्रम में कभी ये बयान नहीं दिया कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है', जैसा कि एक अखबार ने दावा किया है.

मेनन कहती हैं कि, 'जब कार्यक्रम की आयोजक राजश्री रानावत ने मेरा परिचय कराया तो उन्होंने कहा कि ये वो विद्वान हैं जिन्होंने जेएनयू में राष्ट्रवाद के विवाद पर बेहद बहादुरी भरा बयान दिया था. फिर उन्होंने वो बयान भी बताया जो साल भर पहले मैंने दिया था, इसमें उस बयान का भी जिक्र था, जो अखबार ने मेरे हवाले से लिख दिया'. अब राजश्री रानावत के खिलाफ भी मुहिम चल रही है. साल भर पहले जेएनयू प्रकरण पर दिए गए बयान को उस कार्यक्रम में दिया गया बयान बताया जा रहा है.

यहां आपको ठीक वैसी ही घटना दिखती है, जैसी जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ हुई थी. जब कन्हैया को देशद्रोह के आरोप मे गिरफ्तार कर लिया गया था. वो भी उस बयान के लिए जो उसने दिया ही नहीं था. लेकिन कम से कम उस मामले में आरोप लगाने वाले एबीवीपी के छात्रों ने एक वीडियो तो मुहैया कराया था, भले ही उससे छेड़छाड़ की गई थी. लेकिन मेनन के मामले में तो ऐसा भी वीडियो नहीं है. न ही एक भी तस्वीर है.

गणेश की मूर्ति के दूध पीने की अफवाह जैसा बर्ताव

पूरा विरोध प्रदर्शन केवल सुनी-सुनाई बातों पर हो रहा है. विरोध करने वाले ठीक वैसा ही बर्ताव कर रहे हैं, जैसे कि गणेश की मूर्ति के दूध पीने की अफवाह पर लोगों का रेला दूध पिलाने के लिए मंदिरों की तरफ दौड़ पड़ा था. इस मामले में दिक्कत ये नहीं है कि निवेदिता मेनन ने क्या कहा या उनका मकसद क्या था. हालांकि उन्हें कुछ भी कहने की संवैधानिक आजादी हासिल है. यहां दिक्कत इस बात की है कि पूरे देश की शिक्षण संस्थाओं को महज कठपुतली बनाकर रखने की कोशिश हो रही है.

पूरे देश में वो लोग जो संघ और उसकी विचारधारा से इत्तेफाक रखते हैं, उन्हें शिक्षण संस्थाओं में अच्छे ओहदों पर बैठाया जा रहा है. मिसाल के तौर पर राजस्थान यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर जे पी सिंघल को ही लीजिए. सिंघल को उस वक्त इस्तीफा देना पड़ा था जब उनकी नियुक्ति को चुनौती दी जाने लगी.

अब चूंकि शिक्षण संस्थाओं में सिफारिशी लोग आ रहे हैं, तो वो एबीवीपी की हरकतों और ऐसे दावों का विरोध करने की ताकत भी नहीं रखते. यानी अब तमाम यूनिवर्सिटी में दक्षिणपंथी ताकतें अपनी जोर-आजमाइश कर रही हैं. वरना, आप ही सोचिए कि किसी प्रोफेसर को सिर्फ इसलिए नौकरी से निकालने की मांग होने लगे कि उसने एक विद्वान को लेक्चर देने के लिए बुलाया और उसने ऐसा बयान दिया जो किसी ने सुना भी नहीं. और अगर बयान दिया भी, तो ये अभिव्यक्ति की आजादी है.

तमाम मुद्दों पर अलग-अलग राय रखने, विरोध करना ये सब अकादमिक बहस का अटूट हिस्सा हैं. इससे इंसान की सोच का दायरा बढ़ता है. विचार की नई खिड़कियां खुलती हैं.लेकिन जब सोच के दरवाजे बंद किए जाने लगते हैं, तो कोई भी बात अचंभा नहीं रह जाती.

राजस्थान जो कभी कहता था, पधारो म्हारे देस, तो क्या इसलिए कि आपकी पिटाई हो और आपको किसी केस में फंसा दिया जाए. और अब तो हालात और हास्यास्पद हो गए हैं. राजस्थान की सरजमीं अब मजाक बन गई है.जो नई टैगलाइन तय की गई है वो मजाकिया नहीं, अब सच्चाई बनती मालूम होती है.

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