राजस्थान उपचुनावों में बीजेपी और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को बड़ा झटका लगा है. अलवर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है, वहीं अजमेर के नतीजे भी उसके पक्ष में जाते दिख रहे हैं.
अजमेर में 8, अलवर में 11 विधानसभा सीटें हैं और मांडलगढ़ को मिलकर इसे 20 विधानसभा सीटों पर चुनाव के नज़रिये से देखा जा रहा था. अजमेर नॉर्थ और अजमेर साउथ सीट से वसुंधरा कैबिनेट के दो मंत्री वासुदेव देवनानी और अनीता भदेल विधायक हैं, लेकिन फिर भी यहां कांग्रेस को भारी समर्थन मिला. जानकारों के मुताबिक शीर्ष नेतृत्व से मनमुटाव भी वसुंधरा को भारी पड़ा है.
पार्टी में जारी कलह ही वसुंधरा को पड़ी भारी
उपचुनावों से ठीक पहले ही राजस्थान सोशल मीडिया पर राज्य संगठन की फूट खुलकर सामने आ गई थी. चुनावों से ठीक पहले बीजेपी के ही एक धड़े ने सोशल मीडिया पर वसुंधरा के खिलाफ कैंपेन चलाया था. इस कैंपेन के जरिए वसुंधरा की 'रानी वाली ठसक' को बार-बार निशाना बनाया गया. पार्टी के वसुंधरा विरोधी गुट ने उन्हें बार-बार निशाने पर लिया, जिससे बीजेपी का ही वोटबैंक उनसे छिटकता गया.
सरकार में मिनिस्टर राजकुमार रिणवां ने नाराज़गी जाहिर करते हुए पहले ही कह दिया था कि इस फालतू की बयानबाजी के चलते अगर हम हार जाएं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. उधर विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने भी बागी सुर अपनाते हुए यहां तक कह दिया कि उन्हें वसुंधरा का नेतृत्व स्वीकार नहीं है. तिवाड़ी ने अपनी ही सरकार से रिफाइनरी पर श्वेत पत्र तक मांग लिया.
क्यों नाकाम हुईं वसुंधरा
साल 2013 में कांग्रेस के भ्रष्टाचार और आलसी रवैये से तंग आकर लोगों ने बीजेपी को वोट दिया था. हालांकि काम के मामले में वसुंधरा सरकार पिछली सरकार से भी आगे ही नज़र आई है. राज्य में डॉक्टरों की हड़ताल के मामले को ही लें तो राज्य सरकार की जिद के चलते 25 से ज्यादा मरीजों को जान गंवानी पड़ी. स्थिति को संभालने की जगह हेल्थ मिनिस्टर कालीचरण सराफ असंवेदनशील बयान देते रहे जिससे हालात और ख़राब हो गए. इतनी मौतों के बावजूद भी सीएम की तरफ से किसी तरह का दखल देखने को नहीं मिला.
मामला तब और बिगड़ गया जब सरकार भ्रष्ट लोकसेवकों को बचाने के लिए कानून लेकर आ गई. इसे काला कानून कहा गया क्योंकि ये आरोपी लोकसेवकों को तो बचा ही रहा था, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी प्रतिबंध लगा रहा था. मामला बढ़ने पर इस प्रस्ताव को सेलेक्ट कमेटी को सौंपकर मामला रफा-दफा किया गया.
कथित गौरक्षकों की गुंडागर्दी पर पीएम मोदी भी आगे आकर बयान देने के लिए मजबूर हो गए लेकिन वसुंधरा सरकार इस पर लगातार चुप्पी ही बनाए रही. पहलू खान, उमर खान को जान से हाथ धोना पड़ा लेकिन राज्य सरकार ने निंदा करना भी ज़रूरी नहीं समझा. बीते साल जयपुर, सीकर, भीलवाड़ा, बाड़मेर, उदयपुर, राजसमंद जैसी जगहों पर सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आईं और पूरे साल जम्मू-कश्मीर से भी ज्यादा बार राजस्थान के इलाकों में इंटरनेट बंद करना पड़ा.
आनंदपाल, पद्मावती और गुर्जर आरक्षण
सिर्फ सांप्रदायिकता ही नहीं आनंदपाल एनकाउंटर से नाराज़ राजपूत, गुर्जर आरक्षण से उपजा गुस्सा और पद्मावती विवाद पर वसुंधरा की चुप्पी उनके लिए काफी नुकसानदायक साबित हुई. आनंदपाल एनकाउंटर ने जाट-राजपूतों को आमने-सामने कर दिया लेकिन राज्य सरकार चुप्पी साधे रही. राजस्थान में युवाओं की नाराजगी पर भी बेफिक्री है. 2013 में बीजेपी मैनिफेस्टो में 15 लाख रोजगार का वादा था. 15 लाख तो छोड़िए जो कुछ हज़ार भर्तियां निकली भी तो आरक्षण या पेपर लीक जैसे मामलों के चलते अदालतों में उलझ गई.
चंद्रशेखर भी रहे नाकाम
राजस्थान विधानसभा चुनाव और उपचुनावों को ध्यान में रखते हुए बीते साल सितंबर में करीब 8 साल से खाली संगठन महामंत्री पद पर केंद्रीय नेतृत्व ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के तेजतर्रार और युवा संगठन महामंत्री चंद्रशेखर को तैनात किया था. बता दें कि RSS से जुड़े चंद्रशेखर उत्तरप्रदेश चुनाव में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं. इस हार को चंदशेखर से जोड़कर भी देखा जा रहा है.
(साभार न्यूज 18)
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