एटीएम मशीनों और बैकों में लगी लंबी कतारों को सरकार के नोटबंदी के फैसले में ‘बुनियाद की सबसे कमजोर ईंट’ बताया जा रहा है. लेकिन जिस तरह के सांस्कृतिक माहौल से गुजरते हुए भारत यहां तक पहुंचा, उसे देखते हुए यह बात अजीब लगती है.
जब 8 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम अपने लाइव संबोधन में कहा कि अब पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट नहीं चलेंगे, तो लोगों को धक्का जरूर लगा लेकिन उन्होंने इस फैसले की सराहना भी की.
एजेंडा साफ था: यह कालेधन पर अभूतपूर्व हमला था. इस घोषणा के एक घंटे बाद जब फर्स्ट पोस्ट के रिपोर्टरों ने एटीएम के बाहर लाइन लगाए खड़े लोगों से बात की, तो लोग बहुत उत्साहित थे और उन्हें काफी उम्मीद थी. उत्साहित इस बात को लेकर थे कि अब भ्रष्ट लोगों की खैर नहीं और उम्मीद उन्हें यह थी कि अब सिस्टम साफ होगा.
इस फैसले को एक हफ्ता भी नहीं हुआ है कि मीडिया में रिपोर्टों की भरमार हो गई है कि लोग कैसे एटीएम मशीनों और बैंकों के बाहर लाइन लगाए खड़े है, वो कितने परेशान हैं, घंटों लाइन में लगने के बावजूद खाली हाथ लौट रहे हैं और एटीएम मशीनों में पैसा नहीं है.
कहां नहीं है कतार
लंबी लाइनों को देख कर यह मतलब निकालना बहुत आसान होता है कि सिस्टम लोगों को लाचार बना रहा है. ऐसा है तो यह इस देश के लोगों के लिए तो नई बात होगी.
ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब रेलवे की तरफ से ऑनलाइन रिजर्वेशन सिस्टम शुरू होने से पहले देश के किसी भी रेलवे स्टेशन पर सर्पीली कतारें देखने को मिलती थीं. स्थिति अब भी बहुत ज्यादा नहीं बदली है. सबूत चाहिए तो किसी रेलवे स्टेशन पर चले जाइए. प्लेटफॉर्म टिकट लेने के लिए भी कम से कम एक घंटा लाइन में लगना ही होगा.
कोई अच्छी सी फिल्म देखने चले जाइए या फिर वीकेंड पर किसी खाने वाली जगह चले जाइए, वहां आपको पता चलेगा कि लाइन में लगना इस देश के लोगों के लिए कितनी सामान्य सी बात है. दो दशक पहले तक देश के बहुत से शहरों और गांवों में, ‘लाइसेंस परमिट राज’ खत्म होने से पहले, लोग लंबी कतारों में झोला लेकर खड़े दिखते थे, राशन की दुकानों के सामने. यह वो दौर था जब बिग बाजार एक सपना था और पड़ोस के किराना स्टोर देश की ज्यादातर आबादी की पहुंच से बाहर थे. यह वह समय था जब मिडिल क्लास धीरे धीरे तैयार हो रहा था और गरीब-ग्रामीण आबादी ही भारत की पहचान हुआ करती थी. यह वह दौर था जब लंबी लाइनें खबर का मसाला नहीं बनती थीं.
सोमवार को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में एक रैली में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी के अपनी सरकार के फैसले की आलोचना करने वालों को आड़े हाथ लिया. उन्होंने कहा, “नोट बंद होने के बाद गरीब चैन की नींद सो रहा है जबकि अमीर नींद की गोली खरीद रहा है.”
मोदी के लिए तालियां
मंदिर हो या अस्पताल, जिस देश में बिना लाइन में लगे काम करवाने से किसी आदमी की सामाजिक और आर्थिक हैसियत का पता चलता हो, वहां तो लंबी लाइन बुरी ही लगेगी, खास कर उन लोगों को जिन्होंने बिना अपना नंबर आए, आगे जाने का हक हासिल कर लिया हो.
जिस देश में लोग अपने पसंदीदा देवता की एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खड़े रहते हैं, वहां क्या एक लंबी कतार नेक इरादे के साथ उठाए गए सरकार के कदम को बर्बाद कर देगी ?
गाजीपुर में अपने भाषण में मोदी ने एक दिलचस्प तुलना पेश की. लोगों की परेशानी की बात करते हुए उन्होंने कहा, “शादी जैसे फंक्शन पर घर अच्छा दिखे, इसके लिए जब आप घर में पेंट करते हो तो उसके बाद घर में एक तेज गंध रह जाती है और इसकी वजह से आप कई दिनों तक ठीक से सो नहीं पाते, लेकिन फिर आप उस गंध को सहन कर लेते हो क्योंकि आप चाहते कि आपका घर अच्छा दिखे.”
जनता की मौजूदा परेशानियों की तुलना गंध से करते हुए मोदी ने लोगों से अपील की कि वे एक अच्छे काम के लिए कुछ दिन निभा लें और उन्होंने भीड़ से एक सादा सवाल किया, “क्या आप कुछ दिनों के लिए कष्ट उठाओगे?” लोगों ने जोरदार तरीके से हां बोला और जवाब में तालियां भी बजाईं.
राहुल क्या जानें लाइन
यह मान लेना सही नहीं होगा कि लंबी कतारें इस सरकार को उलट पलट कर देंगी. इस देश के लोगों के बारे में ऐसी धारणा बिल्कुल गलत होगी. लोगों में नाराजगी है लेकिन फिर भी वे संयम से काम ले रहे हैं क्योंकि वो मानते हैं कि भले ही कुछ असुविधा हो रही है लेकिन यह सब अच्छे के लिए हो रहा है. इसी भरोसे के चलते देश के सबसे गरीब जिलों में भी लोग संयम बनाए हुए हैं. कुछ शहरों में एटीएम मशीनों में तोड़फोड़ और बैंकों में लगी लाइनों में कुछ हाथापाई की खबरें मिली हैं.
वहीं सोमवार सवेरे दिल्ली के ग्रीनपार्क इलाके में यूनियन बैंक के एटीएम पर एक लंबी लाइन बन गई. इस बीच लाइन में लगे लोगों ने फैसला किया कि हर कोई सिर्फ 500 रुपए निकालेगा ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को कुछ तो कैश मिल सके जिससे वे कम से कम एक दिन का खर्च चला सकें. इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि परेशानी होने के बावजूद लोग इस बड़े बदलाव का हिस्सा बनना चाहते हैं.
साथ ही, ये बात भी सच है कि इस तरह की कतारें कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जैसे एलीट लोगों की पीढ़ी के सांस्कृतिक इतिहास का हिस्सा नहीं हैं. इसीलिए उनका लाइन में खड़ा होना बड़ी खबर है. बाकी लोगों के लिए यह उनकी सामाजिक जिंदगी का हिस्सा है.
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