इराक में 39 भारतीयों की मौत पर रोजाना नए तरीके बात हो रही है. इस मुद्दे को राजनीतिक पार्टियां अपनी तरफ से तोड़-मरोड़ भी रही हैं. लेकिन इस मुद्दे की जड़ तक शायद कोई नहीं जाना चाहता. कोई भी दल या नेता इस पर बात नहीं करना चाहता कि अपनी जान जोखिम में डालकर आखिर हजारों मील दूर ये भारतीय मजदूर खाड़ी देशों में क्यों जा रहे हैं. इराक में जहां आज भी युद्ध चल रहा है क्यों ये मजदूर वहां काम करने जाने को तैयार हो गए. वो भी भारत के उस राज्य के लोग जिसे भारत के विकसित राज्यों में से एक माना जाता है.
पंजाब के होशियारपुर के पास मल मजारा के रहने वाले एक ऐसे ही भारतीय मजदूर अजय ठाकुर ने फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बात की. अजय भी उन भारतीयों की सूची में शामिल हैं जो काम करने के लिए इराक गए थे और सही सलामत हैं. अजय ने बताया कि भारत सरकार की बिना इजाजत के वह आखिर कैसे इराक पहुंचे.
अजय ने बताया 'हम इराक तो काम करने नहीं जाना चाहते थे, लेकिन एजेंट ने हमें लालच दिया कि हमारा कोई खर्चा नहीं होगा क्योंकि वहां सब कंपनी देती है. इसके बाद हम भी राजी हो गए, लेकिन हमें पहले दुबई जाने के लिए कहा गया और हमसे 1 लाख 60 हजार रुपए देने के लिए कहा गया.'
अजय ने इतना बताया और फिर थोड़ी देर के लिए चुप हो गए और पूछा आप सही में न्यूज़ वाले बोल रहे हो ना? इधर से विश्वास होने पर उन्होंने कहा कि इराक में काम करने का मतलब था रोजाना गोलियों और लॉन्चर की आवाज सुनना.
भारत सरकार की पाबंदी के बावजूद इस तरह पहुंचे इराक
अजय ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताया 'मेरे पापा गुजर चुके थे और परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल था. मैं अपनी नानी के पास रहता था. मैंने फिर हारकर विदेश जाकर काम करने की ठानी और रोजगार की तलाश में मैंने एक एजेंट से बात की. एजेंट ने मेरे सामने इराक की पेशकश की और कहा आधे पैसे तुम्हारे यहां जमा होंगे और बाकी वहीं तुम्हारे वेतन में से काटे जाएंगे.'
बकौल अजय ठाकुर, मैं भी तैयार हो गया और पैसे जमा करने के बाद एजेंट ने बताया कि हमें दुबई के रास्ते इराक भेजा जाएगा क्योंकि भारत सरकार ने सीधा इराक जाने पर रोक लगा रखी है. यह से हमें दुबई ले जाया गया जहां हमें एक गुजराती एजेंट मिला और उसने हमें एक बिल्डिंग में बिठा दिया. वहां कंपनियां आती थीं और हममें जो युवा होते थे उन्हें ले जाती थी. बाकी बचे लोगों को अगले दिन का दिलासा देकर फिर वहीं बिठा दिया जाता था. अगले दिन एक सरदार हमारे पास आया वो एक अमेरिका की कंपनी की तरफ से आया था. हमने उससे हमें ले जाने के लिए बात की तो उसने हमसे और पैसे मांगे.
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एक बार फिर हमें मायूसी हाथ लगी. तीन दिन हो चुके थे खाने को भी पेटभर नहीं मिल रहा था. मेरी उम्र तो कम थी, 50 साल की उम्र के लोग भी हमारे साथ थे. आखिरकार सब्र खत्म हुआ चौथे दिन मुझे एक कंपनी ने हायर कर लिया था और मेरा काम वहां बाथरूम साफ करने का था. दुबई को अब हमने अलविदा कहा और बगदाद हवाईअड्डे पर उतर गए. हमें एक छावनी में ले जाकर अपना काम बताया गया. काम तो करते-करते मुझे एक हफ्ता हो गया था और हमें रोज धमाकों की आवाज सुनाई देती थी. हमने जब अपनी कंपनी में काम कर रहे भारतीयों से पूछा तो उन्होंने बताया यहां अमेरिकी सेना और आतंकियों के बीच युद्ध होता रहता है. हमने कई बार अमेरिकी सैनिकों को बड़ी-बड़ी गाड़ियों में हथियार ले जाते देखा था. मुझे मेरे दोस्त ने बताया था कि अमेरिकी सैनिकों के पास एक मशीन लगी हुई गाड़ी भी है, जो 5 किलोमीटर दूर से ही खतरे के बारे में बता देती है.
इस वजह से नहीं बताया परिवार वालों को सच
इस घटना को याद करते हुए अजय अचानक भावुक हो गए. उन्होंने बताया कि मैंने एजेंट को पंजाब फोन लगाया और अपने पैसे वापस करने को कहा, साथ में यहां (इराक) के हालात के बारे में भी बताया. एजेंट ने कहा जो तुमने पैसे दिए थे वो तो सब मैंने आगे दे दिए. अब मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, क्योंकि मेरे सिर पर 80 हजार रुपए का कर्जा हो गया था. मैंने भी 15 दिन परेशानियों में काटे और 16वें दिन सोचा अब जो होगा देखा जाएगा, भारत जाकर भी तो भूखमरी से मरना है तो क्यों ना यहीं मरा जाए.
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हम कंपनी के साथ काम कर रहे थे तो हमारे लिए कम मुश्किल थी, जिन लोगों को बिना किसी कंपनी हायरिंग के इराक लाया गया था, उन्हें ज्यादा परेशानी हो रही थी. कुछ बुजुर्ग जो हमारे साथ दुबई में थे वो बगदाद में खुद काम कर रहे थे और उन्हें कोई भी सुरक्षा नहीं दी गई थी. एक दिन खबर मिली कि गोलीबारी में कुछ लोगों की मौत गई है और उनमें भारतीय भी शामिल हैं, अब पता नहीं यह कितना सच था और कितना झूठ. इसके बाद मैंने वहा 3 साल काम किया. कुछ साथी जो हमारे साथ थे वो अपने परिवार से बात करते हुए रोते भी थे, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया क्योंकि मैं अपने परिवार को दुख नहीं दे सकता था.
(तस्वीरें प्रतीकात्मक हैं)
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